हिंदू जागरण

हिंदू चेतना का स्वर

Archive for अगस्त, 2006

दीदी माँ

Posted by amitabhtri on अगस्त 31, 2006

अभी कुछ दिनों पूर्व श्रीकृष्ण की लीला स्थली वृन्दावन जाने का सुअवसर प्राप्त हुआ. श्रीकृष्ण की महक से सुवासित इस धार्मिक नगरी में अब भी एक अपना ही आकर्षण है. यहाँ मन्दिरों की बहुतायत और तंग गलियों के मध्य अब भी लोगों के ह्रदय में श्रीकृष्ण विद्यमान हैं. परन्तु इस नगरी में ही एक नये तीर्थ का उदय हुआ है और यदि वृन्दावन जाकर उसका दर्शन न किया तो समझना चाहिये कि यात्रा अधूरी ही रही.       यह आधुनिक तीर्थ दीदी माँ के नाम से विख्यात साध्वी ऋतम्भरा ने बसाया है. वृन्दावन शहर से कुछ बाहर वात्सल्य ग्राम के नाम से प्रसिद्ध यह स्थान अपने आप में अनेक पटकथाओं का केन्द्र बन सकता है किसी भी संवेदनशील साहित्यिक अभिरूचि के व्यक्ति के लिये.      इस प्रकल्प के मुख्यद्वार के निकट यशोदा और बालकृष्ण की एक प्रतिमा वात्सल्य रस को साकार रूप प्रदान करती है. वास्तव में इस अनूठे प्रकल्प के पीछे की सोच अनाथालय की व्यावसायिकता और भावहीनता के स्थान पर समाज के समक्ष एक ऐसा मॉडल प्रस्तुत करने की अभिलाषा है जो भारत की परिवार की परम्परा को सहेज कर संस्कारित बालक-बालिकाओं का निर्माण करे न कि उनमें हीन भावना का भाव व्याप्त कर उन्हें अपनी परम्परा और संस्कृति छोड़ने पर विवश करे.         समाज में दीदी माँ के नाम से ख्यात साध्वी ऋतम्भरा ने इस परिसर में ही भरे-पूरे परिवारों की कल्पना साकार की है. एक अधेड़ या बुजुर्ग महिला नानी कहलाती हैं, एक युवती उसी परिवार का अंग होती है  जिसे मौसी कहा जाता है और उसमें दो शिशु होते हैं. यह परिवार इकाई परिसर में रहकर भी पूरी तरह स्वायत्त होती है. मौसी और नानी अपना घर छोड़कर पूरा समय इस प्रकल्प को देती हैं और वात्सल्य ग्राम का यह परिवार ही उनका परिवार होता है.         इसके अतिरिक्त वात्सल्य ग्राम ने देश के प्रमुख शहरों में हेल्पलाइन सुविधा में दे रखी है जिससे ऐसे किसी भी नवजात शिशु को जिसे किसी कारणवश जन्म के बाद बेसहारा छोड़ दिया गया हो उसे वात्सल्य ग्राम के स्वयंसेवक अपने संरक्षण में लेकर वृन्दावन पहुँचा देते हैं. दीदी माँ ने एक बालिका को भी दिखाया जिसे नवजात स्थिति में दिल्ली में कूड़ेदान में फेंक दिया गया था और उसक मस्तिष्क का कुछ हिस्सा कुत्ते खा गये थे. आज वह बालिका स्वस्थ है और चार वर्ष की हो गई है. ऐसे कितने ही शिशुओं को आश्रय दीदी माँ ने दिया है परन्तु उनका लालन-पालन आत्महीनता के वातावरण में नहीं वरन् संस्कारक्षम पारिवारिक वातावरण में हो रहा है. यही मौलिकता वात्सल्य ग्राम को अनाथालयों की कल्पना से अलग करती है.             दीदी माँ यह प्रकल्प देखकर जो पहला विचार मेरे मन में आया वह हिन्दुत्व की व्यापकता और उसके बहुआयामी स्वरूप को लेकर आया.ये वही साध्वी ऋतम्भरा हैं जिनकी सिंह गर्जना ने 1989-90 के श्रीराम मन्दिर आन्दोलन को ऊर्जा प्रदान की थी, परन्तु उसी आक्रामक सिंहनी के भीतर वात्सल्य से परिपूर्ण स्त्री का ह्रदय भी है जो सामाजिक संवेदना के लिये द्रवित होता है. यही ह्रदय की विशालता हिन्दुत्व का आधार है कि अन्याय का डटकर विरोध करना और संवेदनाओं को सहेज कर रखना.       सम्भवत: हिन्दुत्व को रात दिन कोसने वाले या हिन्दुत्व की विशालता के नाम पर हिन्दुओं को नपुंसक बना देने की आकांक्षा रखने वाले हिन्दुत्व की इस गहराई को न समझ सकें.

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एक और फतवा

Posted by amitabhtri on अगस्त 30, 2006

अभी जब गणेश जी सहित देश के अनेक मन्दिरों में विभिन्न देवप्रतिमाओं ने दुग्ध पान किया तो सामान्य तौर पर हिन्दुओं ने इसे श्रद्धा के तौर पर नकारा भले न हो परन्तु धर्मगुरू और अन्य लोगों ने इसे अन्धविश्वास ही अधिक माना. इससे हिन्दू धर्म की तार्किकता प्रमाणित होती है.      परन्तु इसी देश में ऐसे धर्म के अनुयायी भी रहते हैं जो न केवल धर्म पालन में वरन् दिन प्रतिदिन के नियम पालन में भी धार्मिक कानून से ही संचालित होते हैं. अभी वन्देमातरम् पर फतवे की गूँज कम भी नहीं हुई थी कि सहारनपुर स्थित सुन्नी मुसलमानों के सबसे बड़े संस्थान दारूल उलूम देवबन्द ने लखनऊ के सलीम चिश्ती के प्रश्न के उत्तर में फतवा जारी किया है कि बैंक से ब्याज लेना या जीवन बीमा कराना इस्लामी कानून या शरियत के विरूद्ध है. दारूल उलूम के दो मुफ्तियों के साथ परामर्श कर मोहम्मद जफीरूद्दीन ने यह फतवा जारी किया . आल इण्डिया पर्सनल लॉ बोर्ड के अनेक सदस्यों ने इसे उचित ठहराया है. उनके अनुसार जीवन बीमा कराने का अर्थ है अल्लाह की सर्वोच्चता को चुनौती देना.       यह नवीनतम उदाहरण मुसलमानों की स्थिति पर फिर से विचार करने के लिये पर्याप्त है. आखिर जब इस आधुनिक विश्व में जब सभी धर्मावलम्बी लौकिक विषयों में देश के कानूनों का अनुपालन करते हैं तो फिर एक धर्म अब भी लौकिक सन्दर्भों में शरियत का आग्रह क्यों रखता है.      हो सकता है बहुत से लोगों का तर्क हो कि कितने मुसलमान शरियत के आधार पर चलते हैं, परन्तु प्रश्न शरियत के पालन का उतना नहीं है जितना यह कि शरियत का पालन कराने की इच्छा अब भी मौलवियों और मुस्लिम धर्मगुरूओं में है. यही सबसे खतरनाक चीज है क्योंकि शब्द और विचार ही वे प्रेरणा देते हैं  जिनसे व्यक्ति कुछ भी कर गुजरने का जज्बा पालता है. मुस्लिम समस्या का मूल यहाँ है, जब तक उनकी इस मानसिकता में बदलाव नहीं आयेगा प्रत्येक युग में इस्लामी कट्टरता का खतरा बना रहेगा.

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Posted by amitabhtri on अगस्त 30, 2006

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ह्रषीकेश दा

Posted by amitabhtri on अगस्त 29, 2006

किसी भी व्यक्ति के सामाजिक योगदान की समीक्षा इस आधार पर होती है कि उसके जीवनकाल से अधिक उसकी मृत्यु के बाद उसे समाज किस रूप में याद रखता है. इस कसौटी पर यदि प्रसिद्ध फिल्म निर्देशक ह्रषीकेश दा को परखें तो हम पाते हैं कि उनकी मृत्यु के साथ ही हिन्दी सिनेमा के एक ऐसे युग का अन्त हो गया है जिसमें फिल्में समाज के साथ जुड़कर आम दर्शक को उसके पात्रों के साथ आत्मसात् होने का अवसर प्रदान करती थीं. ह्रषीकेश दा की फिल्में गम्भीर मनोवैज्ञानिक चित्रण से लेकर गुदगुदाने वाले सजीव चित्रण तक विस्तृत थीं.          जिन भी दर्शकों ने अनुपमा फिल्म देखी होगी उन्हें अनुपमा और उसके पिता के मानसिक द्वन्द्व की यादें सदैव मस्तिष्क में ताजा रहेगी. इसी प्रकार अभिमान फिल्म के नायक के माध्यम से उन्होंने जिस प्रकार पुरूष प्रधान मानसिकता वाले कुण्ठित पति का जो स्वरूप लोगों के समक्ष प्रस्तुत किया था वह आज भी उतना ही प्रासंगिक है . इसी प्रकार आनन्द के बाबू मोशाय को भुला पाना किसी के लिये सम्भव हो पायेगा क्या. इसके साथ ही चुपके-चुपके फिल्म में ह्रषीकेश दा ने जिस सुन्दरता से हास्य व्यंग्य को प्रस्तुत किया वह उनकी बहुआयामी प्रतिभा और निर्देशन की कुशलता को प्रस्तुत करता है जब उन्होंने अपने समय के एक्शन हीरो को विनोदपूर्ण ढंग से प्रस्तुत किया. बावर्ची के राजेश खन्ना के माध्यम से दिया गया उनका सन्देश आज कहीं अधिक प्रासंगिक है जब व्यक्ति व्यावसायिक स्पर्धा में इस कदर लिप्त हो चुका है कि उसे खुलकर हंसना भी नहीं भाता.         लम्बे अन्तराल के उपरान्त जब ह्रषीकेश दा ने झूठ बोले कौवा काटे फिल्म बनाई तो उन्होंने दिखा दिया कि समय के साथ मनोरंजन के सिद्धान्तों में अन्तर नहीं आता और उनकी इस कला से उन निर्देशकों को शिक्षा लेनी चाहिये जो आज मनोरंजन के नाम पर अश्लीलता, नग्नता और द्विअर्थी संवादों का सहारा लेते हैं.     ह्रषीकेश दा के निधन के बाद अब ऐसी फिल्में दुर्लभ हो जायेंगी जहाँ दर्शक फिल्म को स्वयं के साथ जोड़कर ओर स्वयं को फिल्म के साथ जोड़कर देख सकेगा.         ह्रषीकेश की आनन्द का नायक सामान्य व्यक्ति लगता था जो समुद्र के किनारे हाथ में गुब्बारों के साथ जब गाता था कहीं दूर पर जब दिन ढल जाये तो फिल्म देखने वाला सामान्य व्यक्ति नायक को अपनी पहुँच में पाता था, परन्तु आज जब कल हो न हो का नायक न्यूयार्क की सड़कों पर या डिस्को थेक में इट्स टाइम टू डिस्को गाता है तो यहीं फिल्मों के साथ जनता से जुड़ने की और जनता पर फिल्म थोपने की मानसिकता का अन्तर स्पष्ट हो जाता है.        ह्रषीकेश दा का यही योगदान समाज को है कि फिल्म निर्माण व्यवसाय नहीं सामाजिक दायित्व है परन्तु आज के निर्देशकों में इसी भावना का अभाव है. वे कहानी से लेकर जीवन शैली और पात्र से लेकर संवाद तक सब कुछ दर्शकों के मस्तिष्क में जबरन ठूँसना चाहते हैं.

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हाय रे तुष्टीकरण

Posted by amitabhtri on अगस्त 28, 2006

अपने पिछले चिट्ठे में जब मैंने वन्देमातरम् के विषय पर मुसलमानों द्वारा उठाई जा रही आपत्तियों के पीछे छुपी मानसिकता को उजागर करने का प्रयास किया था तो मुझे इस बात का भान नहीं था कि हमारे पूज्य सन्त भी इस विषय को लेकर व्यथित हैं. अभी दो दिन-तीन दिन पूर्व मुझे ज्ञात हुआ कि इस विषय पर मुसलमानों की हठधर्मिता पर कुछ प्रमुख सन्त न केवल क्षुब्ध हैं वरन् उन्होंने प्रेस विज्ञप्ति के माध्यम से अपने क्षोभ को सार्वजनिक किया है.                           आर्ट ऑफ लिविंग फाउण्डेशन द्वारा जारी की गई गुरूवार दिनांक 25 अगस्त की गई प्रेस विज्ञप्ति में इस संस्था के संस्थापक श्री श्री रविशंकर व स्वामी चिदानन्द और स्वामी दयानन्द सरस्वती ने कुछ मुस्लिम संगठनों द्वारा वन्देमातरम् को इस्लाम विरोधी बताकर उसे न गाने के निर्णय को असहिण्णुता का एक उदाहरण बताते हुये प्रश्न किया है कि इस असहिण्णुता की कोई तो सीमा होनी चाहिये. कल हमसे कहा जायेगा कि नमस्ते मत बोलो फिर कहा जायेगा कि राष्ट्रीय ध्वज से भगवा रंग हटा दो.            प्राय: अनेक अवसरों पर शान्त रहने वाले सन्त भी इस विषय पर मुखर होकर बोल रहे हैं, जो इस विषय की गम्भीरता को स्पष्ट करता है. इतने विरोध के बाद भी कुछ राजनीतिक दलों को इसमें कुछ भी आपत्तिजनक नहीं लगता कि मुसलमान इसे गाना नहीं चाहता.            वास्तव में यह विषय एक विचित्र मानसिकता को प्रतिबिम्बित करता है जिसमें वास्तविकता से मुँह चुराकर दूसरों पर आरोप मढ़कर स्वयं को सन्तुष्टि प्रदान कर दी जाती है. यह विचित्र रोग हमारे राजनेताओं और बुद्धिजीवियों को लग चुका है.             ऐसा प्रतीत होता है मानों शब्द अपनी सार्थकता खो चुके हैं. जैसे बारम्बार कहा जाता है कि हमारे देश में विधि का शासन है और सरकार के निर्णयों की समीक्षा करने का अन्तिम अधिकार न्यायालय को है , परन्तु राजनेता उसी हद तक न्यायालय की बात स्वीकार करते हैं जब तक न्यायालय के निर्णय उनके राजनीतिक हितों की पूर्ति करते हैं. अभी पिछले सप्ताह इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने हज सब्सिडी रोकने का निर्णय दिया नहीं कि केन्द्र के सत्ताधारी दल ने इस निर्णय के विरूद्ध सर्वोच्च न्यायालय जाने की बात कह दी, क्यों इसलिये कि यह निर्णय मुसलमानों के विरूद्ध है. यह रवैया तो यही स्पष्ट करता है कि मुसलमान और उन्हें वोट बैंक बनाकर उनकी जिद का पोषण करने वाले राजनीतिक दल कोई भी ऐसा निर्णय नहीं मानेंगे जो मुसलमानों से कर्तव्य पालन की अपेक्षा भी करेगा. यदि ऐसा ही है तो न्यायपालिका, व्यवस्थापिका या फिर संसद के ढाँचे से मुसलमानों को उन्मुक्ति दे देनी चाहिये.                शाहबानो प्रकरण से लेकर आज तक मुसलमानों ने किसी भी प्रगतिशील निर्णय को अपनी शरियत में हस्तक्षेप बताकर उसका प्रबल विरोध किया. ऐसे में इस बात की क्या गारण्टी है कि मुसलमान राम मन्दिर के विषय में अपने प्रतिकूल निर्णय होने पर स्वीकार करेगा.               आज वह अवसर आ गया है कि हम अल्पसंख्यकों को दी जाने वाली इस संवैधानिक उदारता में छुपे अन्तर्निहित खतरे को भाँपे. विश्व में चल रहे इस्लामी आतंकवाद और इस मानसिकता में एक सम्बन्ध है. आखिर कहने से तो कुछ नहीं होता आचरण के आधार पर किसी का चरित्र प्रकट होता है. देश के प्रति लगाव के जो प्रतीक हैं आप उनकी अवहेलना करते हैं और रात-दिन गाते हैं कि हम सबसे पहले भारतीय हैं फिर मुसलमान, न्यायालय के निर्णय आपको स्वीकार नहीं, धर्म और राष्ट्रीय कर्तव्य में चयन के समय आपकी प्राथमिकता धर्म की मध्ययुगीन सोच है, देश के कानूनों मसलन, परिवार नियोजन, तलाक, समान नागरिक संहिता से आपको उन्मुक्ति चाहिये फिर किस आधार पर आपको देश से प्रेम है.                     मुसलमानों के इस अलगाववादी विचार का पोषण करने वालों में हमारे तथाकथित बड़े नाम वाले पत्रकार भी हैं. अभी 26 अगस्त को इण्डियन एक्सप्रेस के सम्पादक ने अपनी कुशलता का परिचय देते हुये प्रसिद्ध शहनाई वादक स्व.उस्ताद बिस्मिल्लाह खान की विशेषताओं के आधार पर इस्लामी आतंकवाद से मुसलमानों को अलग करने का प्रयास किया. यह विचित्र मानसिकता ही मुसलमानों को अलग-थलग करती है. आखिर भारत में रहने वाला व्यक्ति यदि अल्लाह के नाम पर रागभैरवी गाता है तो इसमें इतना अचरज क्यों, इस विषय को इतना महिमामण्डित करने की आवश्यकता क्या है, ऐसा इसलिये कि सेक्युलरिज्म के नाम पर मुसलमानों के मसीहा बनने वाले ये बड़े लोग स्वयं मुसलमानों को राष्ट्र की मुख्य धारा का अंग नहीं मानते अन्यथा इस्लामी आतंकवाद की बहस में अब्दुल हमीद, उस्ताद या फिर स्वयं राष्ट्रपति अब्दुल कलाम का नाम लेकर इस्लामी आतंकवाद बनाम मुसलमान की बहस की वास्तविकता से भागने का प्रयास न करते. यह किस भारतवासी को नहीं पता कि इस कोटि के मुसलमान अलगववाद या आतंकवाद के प्ररक नहीं है. इसके प्रेरक तो वे लोग हैं जो मस्जिदों में भाषण देकर मुस्लिम युवकों को को जेहाद के लिये प्ररित करते हैं या फिर वे मुस्लिम बुद्धिजीवी हैं जो मुस्लिम अत्याचार की झूठी कहानियाँ गढ़कर आम मुसलमान को उत्तेजित करते हैं.                   मुसलमानों के साथ देश में हो रहा विशेषाधिकारपूर्ण व्यवहार उन्हें मुख्यधारा में कभी नहीं ला सकता. क्योंकि यह व्यवहार उन्हें और जिद्दी और हठधर्मी ही बनायेगा. इसलिये आवश्यकता इस बात की है कि पूर्वाग्रह से मुक्त होकर मुस्लिम समस्या का समाधान खोजा जाये

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वन्देमातरम् पर आपत्ति

Posted by amitabhtri on अगस्त 23, 2006

एक बार फिर वन्देमातरम् विवादों में है. कारण वही पुरानी इस्लामी जिद कि हमारे लिये देश से बढ़कर धर्म है. हालिया विवाद का आरम्भ उस समय हुआ जब मानव संसाधन मन्त्रालय की ओर से एक शासनादेश जारी कर वन्देमातरम् की रचना के शताब्दी समारोहों को समस्त देश में मनाने के उद्देश्य से समस्त विद्यालयों को आदेशित किया गया कि 7 सितम्बर को उनके यहाँ वन्देमातरम् के दो प्रारम्भिक चरण अनिवार्य रूप से गवाये जायें. इस शासनादेश के जारी होते ही मुस्लिम संगठनों और उलेमाओं ने वन्देमातरम् को इस्लाम के विरूद्ध बताते हुये कहा कि इसे गाते समय उन्हें भारतमाता की आराधना करनी होगी जबकि उनका धर्म अल्लाह और रसूल के अतिरिक्त किसी अन्य की प्रशंसा या आराधना की अनुमति नहीं देता. वन्देमातरम् के अनिवार्य गायन पर आपत्ति करने वालों में मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के सदस्य जफरयाब जिलानी प्रमुख थे फिर उनका अनुसरण किया दिल्ली के शाही इमाम अहमद बुखारी ने. आल इण्डिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड मुसलमानों का प्रतिनिधि संगठन है इसलिये उसके प्रतिनिधि द्वारा वन्देमातरम् न गाने की बात करने से यह स्पष्ट होता है कि आम मुसलमान इसी विचार का है. मुसलमानों द्वारा वन्देमातरम् गाने की अनिवार्यता पर आपत्ति उठाये जाते ही मानव संसाधन मन्त्री ने कहा कि इसे गाना अनिवार्य नहीं है. अब सवाल यह है कि क्या देशभक्ति या राष्ट्रीय कर्तव्य से जुड़े प्रश्नों का निर्धारण भी वोट बैंक को ध्यान में रखकर किया जायेगा. आखिर किस स्तर तक इस देश में इस्लामी हठधर्मिता स्वीकार की जायेगी. वैसे वन्देमातरम् को इस्लामी हठधर्मिता के समस्त नतमस्तक कराने का श्रेय भी कांग्रेस और उसके दो महापुरूषों महात्मा गाँधी और जवाहर लाल नेहरू को ही जाता है. 1923 में काग्रेस के काकीनाडा अधिवेशन में जब मुस्लिम प्रतिनिधियों ने इसे इस्लाम विरोधी बताकर इसे न बजाने की माँग की और सम्मेलन से बाहर आकर कान में अंगुली डालकर खड़े हो गये तो भी कांग्रेस ने इस विभाजनकारी विषाक्त मानसिकता के मनोविज्ञान को पहचानने के स्थान पर उसे प्रश्रय ही दिया. आज एक बार पुन: कांग्रेस वही भूल दुहराने जा रही है और राष्ट्र में ही एक और उपराष्ट्र निर्मित करने वाले तत्वों के समस्त नतमस्तक हो रही है. वन्देमातरम् न गाने का हठधर्मितापूर्ण निर्णय भारत के मुसलमानों और उनके जनमत निर्माताओं को कटघरे में खड़ा करता है जो आधे-अधूरे मन से राष्ट्रभक्ति की कसमें खाते हैं. इस घटनाक्रम की पृष्ठभूमि में उस सम्मेलन की चर्चा करना भी समीचीन प्रतीत हो रहा है जो 20 और 21 सितम्बर को संसद भवन में जमायत-उलेमा-हिन्द की पहल पर आतंकवाद के विषय पर आयोजित की गई थी. इस सम्मेलन में देश के अनेक प्रमुख उलेमा आये थे. सम्मेलन में सरकार की ओर से पहले दिन सूचना प्रसारण मन्त्री और दूसरे दिन गृहमन्त्री और स्वयं प्रधानमन्त्री ने भाग लिया. इस सम्मेलन में दर्शक के रूप में उपस्थित रहे लोगों के अनुसार दोनों ही दिन मुस्लिम प्रतिनिधियों की बात से ऐसा नहीं लगा कि वे इस्लामी आतंकवाद का प्रतिरोध करने के प्रति गम्भीर हैं. पहले दिन उनका सारा जोर मीडिया को कोसने में लगा और कुछ प्रतिनिधियों ने तो मीडिया को अमेरिका और इजरायल का जासूस और दलाल की संज्ञा दे डाली. इन प्रतिनिधियों के अनुसार मीडिया मुसलमानों को बदनाम कर रहा है. प्रतिनिधियों ने सूचना प्रसारण मन्त्री से आग्रह किया कि मीडिया पर अंकुश लगाया जाये क्योंकि वे मदरसों और मस्जिदों को आतंकवाद का केन्द्र बता रहे हैं. इस पूरी बहस में आतंकवाद की धार्मिक प्रेरणा, उसके समाधान को लेकर कोई पहल मुस्लिम उलेमाओं की ओर से नहीं हुई. केवल प्रलाप हुआ कि मुसलमानों का उत्पीड़न हो रहा है , उनकी छवि खराब की जा रही है. सम्मेलन के दूसरे दिन वही घिसा-पिटा प्रस्ताव कि इस्लाम में हिंसा के लिये कोई स्थान नहीं है और सभी उपस्थित प्रतिनिधि आतंकवादी कृत्य की निन्दा करते हैं. अच्छा होता इन कर्मकाण्डी प्रस्तावों से परे कुछ ऐसा ठोस और दीर्घगामी कदम ये लोग उठाते जो इनकी ईमानदारी को पुष्ट करता. आखिर आज तक दुनिया के किसी भी कोने में आतंकवाद के विरूद्ध मुसलमानों की वैसी रैली क्यों नहीं आयोजित हो सकी जैसी पैगम्बर के कार्टून के प्रकाशित होने पर या अमेरिकी राष्ट्रपति के भारत आगमन पर हुई थी. आखिर यही उलेमा मुस्लिम जनमानस को आतंकवाद के विरूद्ध आन्दोलित करने मे क्यों असफल हैं या तो मुसलमान इस सम्बन्ध में उनसे सहमत नहीं है या फिर उलेमा स्वयं आतंकवादियों से असहमत नहीं हैं. आखिर जिस देश में मुसलमान विशेषाधिकारों से पुरस्कृत है. जिसे देश का कानून या राष्ट्रीय कर्तव्य पालन न करने की स्वतन्त्रता है उसका उत्पीड़न कहाँ हो रहा है , हाँ इतना अवश्य है कि समाज के सभी क्षेत्रों पर दबाव बनाकर वह अपने इस्लामी एजेण्डे को गतिशील और प्रभावी बनाता जा रहा है. इसका नवीनतम उदाहरण तसलीमा नसरीन का वह वक्तव्य है जो उन्होंने केरल में एक पुस्तक विमोचन के अवसर पर दिया है और इस्लाम की वास्तविकता से समाज को परिचित कराया है.आज आवश्यकता इसी बात की है कि तुलनात्मक धर्मों के अध्ययन की परम्परा विकसित होनी चाहिये इस्लाम के उद्देश्य और उसकी कलाबाजियों से हम परिचित हो सकें.

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आम मुसलमान

Posted by amitabhtri on अगस्त 20, 2006

 इस्लामी आतंकवाद के इस युग में आम मुसलमानों की स्थिति का अध्ययन अपने आप में एक रोचक विषय है. काफी दिनों से मेरी यह इच्छा थी कि भारत के सामान्य मुसलमानों की इस समस्या पर राय जानने का अवसर मिले. कल मेरी यह इच्छा स्वत: पूर्ण हो गई जब मेरे घर में इन दिनों लकड़ी का काम रहे एक बढ़ई ने स्वयं इस बिषय पर चर्चा आरम्भ कर दी.  प्यारे मियाँ नाम का यह बढ़ई मुसलमान है और मेरे बारे में इतना जानता है कि मैं कुछ लिखने-पढ़ने का काम करता हूँ. कल काम करते-करते उसने टेलीविजन पर समाचार सुना कि भारत में आने वाले दिनों में कुछ आतंकवादी हमले हो सकते हैं. इस समाचार के बाद उसने बातचीत आरम्भ की.  उसकी बातचीत में दो-तीन बातें मोटे तौर पर निकल कर सामने आईं. उसका कहना था कि ये उग्रवादी अत्यन्त सुविधा सम्पन्न और शातिर हैं और पुलिस इन तक तो पहुँच नहीं पाती बेगुनाह मुसलमानों को अपना निशाना बनाती है. इस सम्बन्ध में उसने लाल किले पर हुये आतंकवादी हमले का उदाहरण देते हुये कहा कि इसके असली आरोपियों को तो काफी बाद में पकड़ा गया उससे पहले पुलिस ने रमजान महीने में एक निर्दोष मुसलमान को इन काउन्टर में आतंकवादी बताकर मार गिराया.    इसके बाद प्यारे मियाँ ने मुसलमानों को सन्देह की दृष्टि से देखे जाने का मुद्दा उठाया. उनका कहना था कि आज हर दाढ़ी वाले पर शक किया जा रहा है.   अन्त में प्यारे मियाँ ने मुझसे ही पूछा आखिर आतंकवादी ये हमले क्यों कर रहे हैं. मेरा उत्तर था कि इन आतंकवादियों की भाषा में वे इस्लाम की लड़ाई लड़ रहे हैं और मुसलमानों पर दुनिया भर में हो रहे अत्याचार का बदला ले रहे हैं. इस पर उस एक सामान्य मुसलमान का जिसने अपने धर्म के पालन में लड़कियों को पढ़ाया नहीं और जो दिन भर मजदूरी कर अपना पेट पालता है जो उत्तर था वह चौंकाने वाला था. इस उत्तर पर उन लोंगो को विशेष ध्यान देना चाहिये जो मानते हैं कि आम मुसलमान इस अन्तरराष्ट्रीय मुस्लिम राजनीति से नहीं जुड़ा है. प्यारे मियाँ ने कहा कि जिस तरह ईराक और लेबनान में इजरायल और अमेरिका निर्दोष मुसलमानों को रोज मार रहे हैं उससे तो आतंकवादी ही पैदा होंगे. आखिर दुनिया ऐसे काम क्यों नहीं रूकवाती जिस दिन ये रूक गया आतंकवाद भी रूक जायेगा.     प्यारे मियाँ की इस पूरी बातचीत से मैं इस निष्कर्ष पर पहुँचा कि दुनिया भर के मुसलमानों की सोच एक है और उनके जनमत निर्माता और उनकी जागरूकता के केन्द्र मौलवी और जुमा की सामूहिक नमाज उन्हें ऐसे तर्क सिखा रहे हैं कि वे इस्लामी आतंकवाद को न्यायसंगत ठहरा सकें. इसके अतिरिक्त समस्त दुनिया के मुसलमानों के मध्य उन पर अत्याचार का झूठा और मनगढ़न्त प्रचार किया जा रहा है.   अब भी समय है यदि सामान्य मुसलमानों को इस इस्लामी आतंकवाद के वैश्विक आन्दोलन से परे रखना है तो इनके मस्तिष्क को अपने अनुसार दिशा देने वाली मुस्लिम प्रचार मशीन पर कड़ी निगाह रखनी होगी और मस्जिदों और उसमें होने वाली तकरीरों पर भी ध्यान देना होगा. अन्यथा भारत की मुस्लिम जनसंख्या को आतंकवाद के विरूद्ध युद्ध में हम साथ नहीं ला पायेंगे और न चाहते हुये भी यह धर्म युद्ध का स्वरूप ग्रहण कर लेगा.

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नाकाम साजिश

Posted by amitabhtri on अगस्त 20, 2006

इस दुनिया में रहने वाले हर सभ्य व्यक्ति ने अप्रत्याशित आतंकवादी घटनाओं से साक्षात्कार को अपनी नियति बना लिया है. अमेरिका, यूरोप, एशिया, अफ्रीका और अरब देशों तक कोई भी देश आतंकवाद की बिभीषिका से परे नहीं है. आज दुनिया के समस्त देशों की नीतियों का निर्धारण आतंकवाद के बढ़ते खतरों की पृष्ठभूमि में हो रहा है.लन्दन में सम्भवत: इस शताब्दी की शान्तिकाल की सबसे बड़ी तबाही का षड़यन्त्र विफल होने से निर्दोष लोगों की जान भले ही बच गई हो, परन्तु आतंकवाद का खतरा या ऐसी अन्य घटनाओं की पुनरावृत्ति का खतरा कहीं से कम नहीं हुआ है.11 सितम्बर 2001 को आतंकवादियों ने न्यूयार्क को निशाना बनाकर समस्त विश्व को अपनी शक्ति और उद्देश्यों का परिचय दे दिया था. इस घटना के पश्चात प्राय: हर वर्ष एक नया देश इन आतंकवादियों की सूची में जुड़ जाता है. 2002 में बाली में धमाके कर आतंकवादियों ने  दक्षिण पूर्व एशिया सहित आस्ट्रेलिया तक लोगों को आतंक से परिचित कराया, फिर 2004 में स्पेन के शहर मैड्रिड में रेलसेवा में विस्फोट किया. अगले वर्ष 2005 में लन्दन की परिवहन सेवा इनका निशाना बनी और 2006 में विनाश लीला से भारत की आर्थिक राजधानी मुम्बई  का सक्षात्कार हुआ. अभी मुम्बई की घटना को एक माह भी व्यतीत नहीं हुये हैं कि लन्दन में एक व्यापक आतंकवादी षड़यन्त्र के विफल होने से समस्त विश्व स्तब्ध है.लन्दन में जिस विस्फोट की योजना रची गई थी यदि वह सफल होती तो क्या होता कहने की आवश्यकता नहीं है. इन विस्फोटों में जिस तकनीक के प्रयोग की बात की जा रही है वह तरल विस्फोटक अत्यन्त आधुनिक रॉकेट तकनीक में प्रयोग की जाती है अर्थात आतंकवाद का यह खेल कुछ गुमराह और बेरोजगार नौजवानों का खेल नहीं रह गया है जैसा कि आम तौर पर कहा जाता है, यह एक सुनियोजित आन्दोलन है जिसमें बड़े स्तर पर वैज्ञानिक और इन्जीनियर भी संलग्न हैं.2001 में न्यूयार्क में हुये आतंकवादी आक्रमण से लेकर आज तक जितने भी बड़े आतंकवादी हमले हुये हैं उनमें उच्च श्रेणी के शिक्षित और अच्छी पृष्ठभूमि के लोगों की संख्या अधिक रही है. मुझे यह लिखते हुये जितना कष्ट हो रहा है उतना ही आपको पढ़ने में भी अरूचिकर होगा कि इन आतंकवादी आक्रमणों में मुसलमानों की संख्या शत प्रतिशत रही है.आखिर ऐसा क्या कारण है कि अच्छी पृष्ठभूमि का मुस्लिम नवयुवक जो हमारे आपके बीच में रहता है हमारी आपकी तरह बात करता है अचानक अपने ही देशवासियों का दुश्मन बन जाता है. कुछ लोग इसके पीछे मुस्लिम असन्तोष और पूरी दुनिया में उन पर हो रहे अत्याचार को कारण मानते हैं. लेकिन क्या कोई कारण इतना बड़ा हो सकता है कि वह हजारों निर्दोष लोगों के प्राण लेने को न्यायसंगत ठहरा सके.अभी पिछले दिनों जब कनाडा में बहुत बड़े आतंकवादी आतंकवादी षड़यन्त्र का पर्दाफाश हुआ तो कनाडा से मेरे मित्र ने ई-मेल के माध्यम से आश्चर्यमिश्रित आवेश में पूछा कि आखिर हमारे लोकतन्त्र ने आप्रवासी मुसलमानों को क्या नहीं दिया यहाँ तक कि सरकारी खर्चे पर उन्हें अंग्रेजी सिखाने का प्रबन्ध भी किया इसके बाद भी हमारे बीच के मुसलमानों ने ही संसद और प्रधानमन्त्री के विरूद्ध योजना रची. आज ऐसे कितने ही प्रश्न वातावरण में गूँज रहे हैं. भारत और ब्रिटेन जैसे देश जिन्होंने मुसलमानों को देश के कानून से अंशकालिक स्वतन्त्रता दे दी. भारत में परिवार नियोजन, विवाह, तलाक जैसे सभी मुद्दों पर मुस्लिम समुदाय देश के कानून का पालन नहीं करता और पर्सनल लॉ से शासित होता है . देश में न्यायालय होते हुये भी शरियत अदालतों को महत्व देता है, विद्यालयों में वन्देमातरम् न गाने की स्वतन्त्रता का पालन करता है. सुदूर देश में बनने वाले पैगम्बर के कार्टून के विरोध में सार्वजनिक सम्पत्ति को नुकसान पहुँचाता है . इसके बाद भी भारत में मुसलमानों के उत्पीड़न की काल्पनिक धारणा बनाकर उन्हें न्याय दिलाने के नाम पर देश में धर्म के नाम पर आतंकवाद को प्रश्रय दिया जा रहा है.विश्व में चल रहा इस्लामी आतंकवाद ऐस दौर में पहुँच चुका है जहाँ उसकी धार्मिक भूमिका की अवहेलना नहीं की जा सकती. जो संगठन समस्त विश्व में निर्दोष लोगों को निशाना बना रहे हैं उन्होंने अपना  आशय स्पष्ट कर दिया है कि वे विश्व में खिलाफत का राज्य स्थापित करना चाहते हैं जो पूरी तरह कुरान और शरियत पर आधारित हो. उनके लिये आतंकवाद उनका धार्मिक दायित्व है जो वे मुजाहिदीन बन कर पूरा कर रहे हैं.आतंकवाद के इस दौर में यह जिम्मेदारी मुसलमानों की है कि वे आगे आकर या तो इस्लाम के इस स्वरूप को स्वीकार करें या फिर इसका खण्डन करें अन्यथा गैर मुस्लिमों के लिये यह पूर्वानुमान लगा पाना असम्भव होगा कि उनके आस पास रहने वाला मुसलमान कब अपने धार्मिक दायित्व को पूरा करते हुये उसका दुश्मन बन जायेगा.यह आतंकवाद महज कानून की समस्या नहीं है इसके पीछे धार्मिक जुनून है. लन्दन के षड़यन्त्र के सामने आने से स्पष्ट है कि वह दिन दूर नहीं जब इस्लामी आतंकवादियों के पास परमाणु बम भी होगा और उसका प्रयोग करने में उन्हें हिचक नहीं होगी.

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आतंक के शिक्षा केन्द्र

Posted by amitabhtri on अगस्त 19, 2006

अभी इस वर्ष के आरम्भ तक भारत में चल रहे इस्लामी आतंकवाद को उसके वैश्विक और विचारधारागत स्वभाव से जोड़कर देखने पर देश के नेताओं, लेखकों, समीक्षकों और रणनीतिकारों को गहरी आपत्ति थी. यहाँ तक कि भारत के मुसलमानों को इस आतंकी नेटवर्क या विचार से परे सिद्ध करने के लिये तर्क दिये जाते थे कि भारत का कोई भी मुसलमान अफगानिस्तान और ईराक में तालिबान या अल-कायदा की ओर से लड़ने नहीं गया. परन्तु सम्भवत: ये समीक्षक भारत में स्थित उन इस्लामी संस्थानों को लेकर चिन्तित नहीं थे जो इस धरती से पूरे विश्व के मुसलमानों को कट्टरता और आतंक की शिक्षा दे रहे हैं.     जी हाँ ये चौंकने का विषय नहीं है भारत की धरती पर स्थित दो इस्लामी संस्थान समस्त विश्व में विध्वंस की मानसिकता रखने वाले आतंकियों के प्रेरणास्रोत हैं. लन्दन में अनेक विमानों को उड़ाने के षड़यन्त्र की पूछताछ में ब्रिटेन की पुलिस को पता चला है कि इस षड़यन्त्र में सम्मिलित कुल 23 लोगों में अनेक तबलीगी जमात के कट्टर समर्थक हैं. इस संगठन का ब्रिटेन की अधिकांश मस्जिदों पर नियन्त्रण है.        तबलीगी जमात की स्थापना 1927 में भारत में मोहम्मद इलयास नामक मुस्लिम द्वारा की गयी थी जिसका मुख्यालय दिल्ली के निजामुद्दीन क्षेत्र में है. इस संगठन की स्थापना इस्लाम में धर्मान्तरित हिन्दुओं को कट्टर मुसलमान बनाने के लिये गयी थी. इस संगठन के अनुयायियों को दाढ़ी बढ़ानी पड़ती है, पाँचो वक्त नमाज पढ़नी होती है तथा ये बड़ा कुर्ता और छोटा पायजामा पहनते हैं.     लन्दन षड़यन्त्र के एक संदिग्ध असाद सरवर के भाई अमजद ने ब्रिटेन के एक टी.वी चैनल को बताया कि उसके भाई ने विश्वविद्यालय की पढ़ाई छोड़ दी और तबलीगी जमात की साप्ताहिक बैठकों में जाने लगा. केवल असद ही नहीं अनेक संदिग्धों के रिश्तेदारों ने इनके तबलीगी जमात से जुड़ाव की पुष्टि की है. यह पहला अवसर नहीं है जब आतंकवादी घटनाओं को अंजाम देने वालों का जमात से लगाव और सम्पर्क रहा है. इससे पूर्व  जुलाई 2005 में हुये लन्दन विस्फोटों के दो फिदाईन सिद्दीक अहमद खान और शहजाद तनवीर ने तबलीग के नियन्त्रण वाली मस्जिद का दौरा किया था. इसके साथ ही अल-कायदा के अनेक सदस्यों ने अमेरिका के समक्ष स्वीकार किया कि उन्होंने पाकिस्तान में तबलीग के शिविरों में भाग लिया था. इसके अतिरिक्त गोधरा में अयोध्या से वापस लौट रहे कारसेवकों को साबरमती में जीवित जलाने की घटना में भी जाँच में तबलीगी जमात का नाम आया था.            इसके अतिरिक्त भारत का दूसरा इस्लामी संस्थान जो आतंक का शिक्षा केन्द्र है वह है दारूल उलूम देवबन्द. राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र से 70 कि.मी की दूरी पर पश्चिमी उत्तर प्रदेश के सहारनपुर में देवबन्द नामक स्थान पर स्थित यह मदरसा विश्व के बड़े इस्लामी आतंकवादियों की विचारधारा का पोषक रहा है. तालिबान अमीर मुल्ला उमर, जैश-ए-मोहम्मद का संस्थापक मसूद अजहर, पाकिस्तानी राष्ट्रपति परवेज मुशर्रफ इसी देवबन्दी विचारधारा के अनुयायी हैं. जिहाद का अनुपालन करने वाली दो शाखाओं बरेलवी और देवबन्दी में मूलभूत अन्तर जिहाद के प्रकार को लेकर है. बरेलवी शाखा धीरे चलने में विश्वास करते हैं जबकि देवबन्दी ओसामा के जिहाद में भरोसा रखते हैं. समस्त विश्व में आज  जिहाद के नाम पर आतंकवाद फैलाने वाले सभी संगठनों में अधिकांश की प्रेरणास्रोत देवबन्दी विचारधारा है.     इस स्थिति को देखकर ऐसा प्रतीत होता है कि 21वीं शताब्दी में इस्लामी आतंकवाद का प्रेरणा स्थल भारत हो जायेगा जैसा कभी 20वीं शताब्दी में सउदी अरब और उसका वहाबी चिन्तन था.     अच्छा होता हमारे देश के रणनीतिकार इस वास्तविकता को समझकर भारत को आतंकी शिक्षाकेन्द्र बनने से रोकते न कि इस मुगालते में जीते कि भारत किसी भी प्रकार से वैश्विक जिहाद का अंग नहीं है.

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निष्पक्ष प्रश्न

Posted by amitabhtri on अगस्त 18, 2006

केरल के प्रसिद्ध शबरीमला मन्दिर में एक आयु वर्ग की महिलाओं के प्रवेश पर प्रतिबन्ध की लम्बी परम्परा के विरूद्ध दिल्ली स्थित कुछ महिला अधिवक्ताओं द्वारा दायर की गई याचिका पर कार्रवाई करते हुये सर्वोच्च न्यायालय ने केरल सरकार को नोटिस जारी कर उससे जवाब माँगा है कि इस मन्दिर में स्त्रियों को प्रवेश क्यों न दिया जाये. इस नोटिस पर प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुये राज्य के देवासम विभाग के मन्त्री ने स्पष्ट किया कि उनकी सरकार सुनिश्चित करेगी कि राज्य में कोई लैंगिक भेदभाव न हो.                                                     कुछ लोगों की दृष्टि में यह प्रगतिशील कदम है परन्तु इसकी निष्पक्षता को लेकर कुछ प्रश्न मस्तिष्क में उमड़ रहे हैं. आखिर जो वामपंथी महिला संगठन लोकतन्त्र के नाम पर एकमात्र हिन्दू मन्दिर में परम्परा के परिपालन में  महिलाओं के एक विशेष आयु वर्ग के प्रवेश पर प्रतिबन्ध को लेकर इतने व्यथित हैं उन्होंने मस्जिद में महिलाओं के प्रवेश या इस्लाम की अन्य मान्यताओं में स्त्रियों के साथ भेदभाव को कभी मुद्दा क्यों नहीं बनाया. आज भी इस्लाम धर्म स्त्रियों को सामाजिक अशान्ति के प्रतीक के रूप में देखता है तभी अरबी में सामाजिक अशान्ति और स्त्री दोनों के लिये एक ही शब्द फितना प्रयोग में आता है.                      शाहबानो से लेकर आज तक सर्वोच्च न्यायालय या विभिन्न   न्यायालयों ने जितने भी प्रगतिशील निर्णय मुस्लिम स्त्रियों के सम्बन्ध में दिये उसका पालन कराने का दायित्व निभाने के स्थान पर राज्य ने उन्हें रद्दी की टोकरी में डाल दिया. हमारे समक्ष इमराना का उदाहरण है कि उसके साथ बलात्कार करने वाले श्वसुर को दण्ड देने के स्थान पर  इमराना से उलेमाओं ने कहा कि वह अपने पति को अपना पुत्र माने और अपने पति से उत्पन्न सन्तानों पर उसके पति का अधिकार नहीं है. ऐसा इस्लाम के कानून के आधार पर हुआ जिसमें स्त्री को इस कदर कामुक माना गया है कि उसके साथ स्वेच्छा या जबरन बनाये गये यौन सम्बन्ध में सदैव स्त्री की पहल ही मानी जाती है.                        अभी इसी वर्ष के आरम्भिक महीनों में उड़ीसा के एक मुस्लिम युगल को साथ रहने के लिये सर्वोच्च न्यायालय तक का दरवाजा खटखटाना पड़ा क्योंकि शेरू नामक इस मुस्लिम ने अपनी पत्नी नजमा बीबी को नशे की हालत में तलाक दे दिया प्रात: काल उसे पश्चाताप हुआ तो उन्होंने साथ रहने का निश्चय किया. स्थानीय उलेमाओं ने इसका विरोध किया क्योंकि शरियत या इस्लामी कानून के अनुसार तलाक के बाद फिर उसी व्यक्ति से विवाह के लिये स्त्री को हलाला से गुजरना होगा     अर्थात् दूसरे व्यक्ति से विवाह कर उससे सम्बन्ध स्थापित कर फिर उससे तलाक लेना होगा. उलेमाओं के इस निर्णय के कारण दोनों मुस्लिम युगल सर्वोच्च न्यायालय तक गये कि उन्हें साथ रहने दिया जाये. सर्वोच्च न्यायालय ने राज्य को निर्देश दिया कि युगल की पूरी सुरक्षा की जाये. सर्वोच्च न्यायालय के इस निर्णय पर उड़ीसा के मुस्लिम उलेमा संगठनों ने सर्वोच्च न्यायालय को चेतावनी दी कि तलाक जैसे मामलों में हस्तक्षेप का सर्वोच्च न्यायालय को अधिकार नहीं है. दुर्भाग्यवश लैंगिक भेदभाव का विरोध करने वाले प्रगतिशील संगठन  उस अवसर पर क्यों मौन रहे यह समझ से परे है.                   इन तथ्यों के प्रकाश में शबरीमला के विषय में दिखाई जा रही सक्रियता निष्पक्ष स्त्री अधिकार से अधिक हिन्दू संस्कृति को कटघरे में खड़ा करने की कवायद का हिस्सा अधिक दिखती है. मजदूरों के अधिकारों के नाम पर बाबा रामदेव के बहाने योग परम्परा पर प्रहार के षड़यन्त्र के असफल होने के बाद उन्हीं शक्तियों ने हिन्दू संस्कृति में स्त्री उपेक्षा के काल्पनिक विषय को फिर से चर्चा में लाने का बीड़ा उठाया है ताकि धर्मान्तरण में प्रवृत्त शक्तियों के खेल को आसान किया जा सके. आखिर तिरूमला पहाड़ियों में धर्मान्तरण के ऐसे घिनौने प्रास आरम्भ ही कर दिये गये हैं अब दक्षिण भारत के दूसरे सबसे बड़े श्रद्धा स्थल पर आक्रमण की तैयारी है.

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