बन्द हो कन्या भ्रूण हत्या
Posted by amitabhtri पर अगस्त 10, 2006
आज प्रात:काल जब समाचार पत्र देखा तो एक अत्यन्त ह्रदयविदारक और विचलित कर देने वाली घटना से साक्षात्कार हुआ. पंजाब राज्य के पटियाला शहर में एक नर्सिंग होम के पास एक गड्ढे से 35 कन्या भ्रूण बरामद हुये. सूत्रों के अनुसार इस गोरखधन्धे में सहभागी रही एक मिडवाइफ या दाई को उस नर्सिंग होम से निकाल देने के बाद उसने जिले के चिकित्सा अधिकारियों को इसकी सूचना देकर इस मामले का भण्डाफोड़ किया.इस ह्रदयविदारक घटना ने छद्म आधुनिकता और समाज की ह्रदयहीनता का एक और नग्न सत्य हमारे समक्ष रखा है. पिछली अनेक जनसंख्या गणनाओं में जिन राज्यों में बालक-बालिकाओं की जनसंख्या के अनुपात में सर्वाधिक विषमता दिखी है उनमें पंजाब और हरियाणा अग्रणी हैं. ये दो राज्य सम्पन्नता के सूचकांक में कई अन्य राज्यों से आगे हैं फिर भी कन्या भ्रूण हत्या के सम्बन्ध में इनका रिकार्ड सिद्ध करता है कि इस समस्या का कारण आर्थिक स्थिति नहीं है. वैसे इस कुरीति का पालन करने वाले पंजाब और हरियाणा अकेले राज्य नहीं हैं. इस समस्या ने अनेक राज्यों को अपनी चपेट में ले लिया है. आज समय की आवश्यकता है कि इस समस्या के कारणों की गहराई से जाँच कर उनके समाधान का गम्भीर प्रयास किया जाये. इस समस्या के मूल में सामाजिक और धार्मिक कारण हैं.सामाजिक कारण- हिन्दुओं में आम धारणा होती है कि पुत्री पराया धन है और उसे एक दिन दूसरे के घर जाना है. इस धारणा के परिणामस्वरूप जन्म से लेकर उसके विवाह तक उसे आम तौर पर एक जिम्मेदारी के तौर पर देखा जाता है जिसके लिये दहेज एकत्र करना ही माँ-बाप का दायित्व समझा जाता है. इस पराया धन की मानसिकता के कारण ही पुत्री को एक बोझ माना जाता है और उस पर पुत्र को वरीयता दी जाती है.इसके अतिरिक्त स्त्रियों के प्रति समाज की दृष्टि में आया परिवर्तन भी माँ-बाप में बड़ी होती लड़की के प्रति असुरक्षा की भावना का संचार करता है. धार्मिक कारण – हिन्दुओं की धार्मिक मान्यता के अनुसार मृत्यु के उपरान्त व्यक्ति की मुक्ति तभी सम्भव है जब पुत्र उसे मुखाग्नि दे. इस कारण भी पुत्र को कुलदीपक या खानदान चलाने वाला माना जाता है. इन दोनों ही कारणों की पृष्ठभूमि में कन्या भ्रूण हत्या की कुरीति रोकने के लिये सरकारी प्रयास या कानून पर्याप्त नहीं हो सकते. इसके लिये समाज को अपनी मानसिकता में परिवर्तन करना होगा जो किसी कानून के बल पर एक दिन में सम्भव नहीं है. समाज की मानसिकता में इस परिवर्तन के लिये उस सन्त शक्ति को आगे आना होगा जिसके प्रति अब भी हिन्दू समाज की श्रद्धा है. इसके साथ ही एक ऐसे नारी सशक्तीकरण आन्दोलन की आवश्यकता है जो प्रतिक्रयात्मक न होकर अपनी ऐतिहासिक चेतना से संपुष्ट हो और हिन्दू संस्कृति में स्त्रियों के गौरवशाली और गरिमामयी स्थान के प्रति समाज को जागरूक और शिक्षित कर सके. अन्यथा हिन्दू समाज एक ऐसे ढोंगियों और आडम्बरियों का समाज बनकर रह जायेगा जिसमें स्त्रियों का सम्मान शास्त्रों तक ही सीमित रह जायेगा.
Abha Bansal said
Very well written. I fully agree with you. It is a irony that nowadays the so-called educated are trying to “balance” their family with one boy and one girl. For this they are resorting to immoral means and medical science has never been so misused.