हिंदू जागरण

हिंदू चेतना का स्वर

मन्थन

Posted by amitabhtri पर अगस्त 16, 2006

देश के एक प्रमुख निजी अंग्रेजी चैनल ने स्वतन्त्रता दिवस के आस-पास देश के जन मानस की दशा और दिशा भाँपने के लिये अनेक बिषयों पर एक व्यापक सर्वेक्षण किया. सर्वेक्षण में अनेक राजनीतिक और सामाजिक बिषयों को स्पर्श किया गया परन्तु हमारी चर्चा का आधार वह सर्वेक्षण परिणाम है जिसमें देश के 35 प्रतिशत लोग आतंकवाद के लिये सीधे-सीधे मुसलमानों को उत्तरदायी मानते हैं और इनमें भी ऐसा मानने वाले हिन्दुओं का प्रतिशत 47 प्रतिशत है.    इस सर्वेक्षण के साथ ही साथ मुम्बई धमाकों के बाद अनेक टेलीविजन चैनलों पर हुई बहस तथा विभिन्न समाचार पत्रों में छपे गम्भीर लेखों के आधार पर मैं यही निष्कर्ष निकालने पर विवश हुआ हूँ कि अब भी इस्लामी आतंकवाद के स्वरूप और उसके स्वभाव को लेकर राजनीतिक नेतृत्व और सामान्य जनता की सोच में व्यापक अन्तर है.            भारत सहित विश्व के अनेक हिस्सों में होने वाली आतंकवादी घटनाओं में मुस्लिम समुदाय की सक्रिय भागीदारी के बाद अब यह रहस्य किसी से छुप नहीं सा है कि यह धार्मिक आतंकवाद है. इस नग्न सत्य के अनावृत होने के बाद आतंकवाद को धर्म से पूरी तरह पृथक कर मात्र कानून व्यवस्था की समस्या के तौर पर आंकना वास्तव में वास्तविकता से भागने जैसा है. इस शुतुरमुर्गी रवैये के घातक परिणाम हो सकते हैं.          पहला हिन्दू और मुसलमानों के मध्य अविश्वास की खाईं और भी बढ़ती जायेगी और मुसलमानों के मध्य वह छोटा सा वर्ग जो इस आतंकवाद को लेकर विचलित है वह भी सन्देह के दायरे में आ जायेगा और इस्लाम में सुधार की किसी भी प्रक्रिया का आरम्भ असम्भव हो जायेगा. दूसरा जिस प्रकार बार-बार विभिन्न दलों के नेता कुछ घटनाओं को भारत में  इस्लाम और मुसलमानों पर अत्याचार के रूप में चित्रित कर आतंकवाद को न्यायसंगत ठहराने की चेष्टा कर रहे हैं उससे मुस्लिम कट्टरपंथ को बढ़ावा मिलेगा और हिन्दुओं में हताशा और कुण्ठा का भाव व्याप्त होगा.          अमेरिका में 2001 की घटना के बाद उस देश पर एक भी आतंकवादी आक्रमण नहीं हुआ ऐसा ही स्पेन और लन्दन के साथ भी हुआ. इन देशों ने आतंकवादी घटनाओं के पश्चात उसमें निहित धार्मिक भाव को पहचान कर उस पर बहस आरम्भ की और आतंकवाद प्रतिरोधी योजनायें बनाते समय इसके पीछे छुपी मानसिकता और प्रेरणा को समझकर उस पर प्रहार करने की आवश्यकता भी अनुभव की , परन्तु इसके विपरीत भारत में अब भी आतंकवाद की विचारधारा और प्रेरणा पर व्यापक बहस करने के स्थान पर काल्पनिक अत्याचार की धारणा का पोषण किया जा रहा है.          भारत एक लोकतान्त्रिक देश है जिसने समाज के प्रत्येक वर्ग को समान अवसर और विकास की संवैधानिक गारण्टी है और इस सिद्धान्त को व्यावहारिक स्वरूप देने के लिये इन छह दशकों में पूरे प्रयास भी किये गये हैं. इन छह दशकों के बाद अचानक मुसलमानों के पिछड़ेपन को आधार बनाकर आतंकवाद को न्यायसंगत ठहराना कहाँ तक उचित है. इसी प्रकार देश की विदेश नीति के सम्बन्ध में लिये गये निर्णयों को मुसलमानों की भावना से जोड़कर उन्हें आतंकवाद के बढ़ने का कारण बताना आतंकवाद के वैश्विक और विचारधारागत स्वरूप को स्वीकार करने जैसा है.        निजी टेलीविजन चैनल द्वारा किये गये इस सर्वेक्षण से पूर्व लेबनान-इजरायल संघर्ष में भी देश के बहुसंख्य जनमानस की सोच और राजनीतिक नेतृत्व के मध्य सोच का अन्तर स्पष्ट तौर पर देखने को मिला था जब एक ओर सरकार ने संसद से लेकर अन्तरराष्ट्रीय मंचों तक पर लेबनान पर हमले के लिये इजरायल की निन्दा की जबकि मुम्बई विस्फोटों की पृष्ठभूमि में देश का बहुसंख्यक समाज इजरायल के प्रति सहानुभूति प्रदर्शित कर रहा था. देश के बहुसंख्यक समाज के मानस को पढ़ न पाने या पढ़ न पाने का यह ढोंग काफी मंहगा साबित हो सकता है क्योंकि इससे पूर्व हम देख चुके हैं कि गुजरात में गोधरा में कारसेवकों पर हुये आक्रमण की विभीषिका और हिन्दुओं के मानस पर होने वाले उसके प्रभाव क अध्ययन करने में भी तत्कालीन राजनीतिक नेतृत्व पूरी तरह असफल रहा था और उसी असफलता का परिणाम हिन्दुओं की प्रतिक्रया के रूप में सामने आया. एक बार फिर राजनीतिक नेतृत्व पलायनवादी दृष्टिकोण अपनाकर  वास्तविकता से भागकर इस्लामी आतंकवाद का समाधान गहराई में जाकर खोजने के स्थान पर लोगों को दिग्भ्रमित कर उनके आक्रोश को हवा दे रहा है.           इस्लामी आतंकवाद पर रोक लगाने के लिये आवश्यक है कि मुस्लिमों पर  अत्याचार की काल्पनिक धारणा के झूठे प्रचार पर अंकुश लगाया जाये क्योंकि इस अनर्गल प्रचार ने ही पढ़े-लिखे  और समृद्ध मुसलमानों को इस्लाम की रक्षा के लिये जिहाद की ओर प्रवृत्त होने को प्रेरित  किया है.  

3 Responses to “मन्थन”

  1. Anunad said

    इस तरह सच्चाई से मुह फेरना बहुत खतरनाक हो सकता है। भारत में हिन्दुओं के साथ सबसे अधिक अन्याय हुआ है और हो रहा है। इस्लामी आतंक को समझने के लिये इस्लाम का इतिहास समझना बहुत जरूरी है। इस्लाम को सामूहिक आत्ंक्वाद का जनक कहना गलत नहीं होगा।

  2. बधाई आप अच्छा लिखते हैं. यहाँ टिप्पणीयों की आशा किये बिना ही लिखते रहना होगा आपको. क्योंकि बहुत से लोग आपके सहमत होते हुए भी झुठी धर्मनिरपेक्षता के चक्कर में यहाँ टिप्पणी नहीं लिखेंगे.
    गुणवत्ता बनाए रखे.

  3. vivek gupta said

    sanjay ji ki baat se sahmat hoon..aapko keval apna kaam karna hai…chahe koi tarif kare ya nahi…yakin maniye ki aapke lekh ko parhne vale bahut se log hain.

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