ह्रषीकेश दा
Posted by amitabhtri पर अगस्त 29, 2006
किसी भी व्यक्ति के सामाजिक योगदान की समीक्षा इस आधार पर होती है कि उसके जीवनकाल से अधिक उसकी मृत्यु के बाद उसे समाज किस रूप में याद रखता है. इस कसौटी पर यदि प्रसिद्ध फिल्म निर्देशक ह्रषीकेश दा को परखें तो हम पाते हैं कि उनकी मृत्यु के साथ ही हिन्दी सिनेमा के एक ऐसे युग का अन्त हो गया है जिसमें फिल्में समाज के साथ जुड़कर आम दर्शक को उसके पात्रों के साथ आत्मसात् होने का अवसर प्रदान करती थीं. ह्रषीकेश दा की फिल्में गम्भीर मनोवैज्ञानिक चित्रण से लेकर गुदगुदाने वाले सजीव चित्रण तक विस्तृत थीं. जिन भी दर्शकों ने अनुपमा फिल्म देखी होगी उन्हें अनुपमा और उसके पिता के मानसिक द्वन्द्व की यादें सदैव मस्तिष्क में ताजा रहेगी. इसी प्रकार अभिमान फिल्म के नायक के माध्यम से उन्होंने जिस प्रकार पुरूष प्रधान मानसिकता वाले कुण्ठित पति का जो स्वरूप लोगों के समक्ष प्रस्तुत किया था वह आज भी उतना ही प्रासंगिक है . इसी प्रकार आनन्द के बाबू मोशाय को भुला पाना किसी के लिये सम्भव हो पायेगा क्या. इसके साथ ही चुपके-चुपके फिल्म में ह्रषीकेश दा ने जिस सुन्दरता से हास्य व्यंग्य को प्रस्तुत किया वह उनकी बहुआयामी प्रतिभा और निर्देशन की कुशलता को प्रस्तुत करता है जब उन्होंने अपने समय के एक्शन हीरो को विनोदपूर्ण ढंग से प्रस्तुत किया. बावर्ची के राजेश खन्ना के माध्यम से दिया गया उनका सन्देश आज कहीं अधिक प्रासंगिक है जब व्यक्ति व्यावसायिक स्पर्धा में इस कदर लिप्त हो चुका है कि उसे खुलकर हंसना भी नहीं भाता. लम्बे अन्तराल के उपरान्त जब ह्रषीकेश दा ने झूठ बोले कौवा काटे फिल्म बनाई तो उन्होंने दिखा दिया कि समय के साथ मनोरंजन के सिद्धान्तों में अन्तर नहीं आता और उनकी इस कला से उन निर्देशकों को शिक्षा लेनी चाहिये जो आज मनोरंजन के नाम पर अश्लीलता, नग्नता और द्विअर्थी संवादों का सहारा लेते हैं. ह्रषीकेश दा के निधन के बाद अब ऐसी फिल्में दुर्लभ हो जायेंगी जहाँ दर्शक फिल्म को स्वयं के साथ जोड़कर ओर स्वयं को फिल्म के साथ जोड़कर देख सकेगा. ह्रषीकेश की आनन्द का नायक सामान्य व्यक्ति लगता था जो समुद्र के किनारे हाथ में गुब्बारों के साथ जब गाता था कहीं दूर पर जब दिन ढल जाये तो फिल्म देखने वाला सामान्य व्यक्ति नायक को अपनी पहुँच में पाता था, परन्तु आज जब कल हो न हो का नायक न्यूयार्क की सड़कों पर या डिस्को थेक में इट्स टाइम टू डिस्को गाता है तो यहीं फिल्मों के साथ जनता से जुड़ने की और जनता पर फिल्म थोपने की मानसिकता का अन्तर स्पष्ट हो जाता है. ह्रषीकेश दा का यही योगदान समाज को है कि फिल्म निर्माण व्यवसाय नहीं सामाजिक दायित्व है परन्तु आज के निर्देशकों में इसी भावना का अभाव है. वे कहानी से लेकर जीवन शैली और पात्र से लेकर संवाद तक सब कुछ दर्शकों के मस्तिष्क में जबरन ठूँसना चाहते हैं.
सागर चन्द नाहर said
बहुत सही कहा आपने, इसी तरह की एक फ़िल्म ऋषिदा ने बनाई थी “अनुराधा”। इस फ़िल्म में एक डॉक्टर पति और सर्वगुण सम्पन्न भारतीय नारी के बीच की कशमकश को बहुत ही सुन्दर ढंग से फ़िल्माया ऋषिदा ने, लीला नयडु और बलराज साहनी के अभिनय के बारे में कुछ कहना सूरज को तारे दिखाने के समान है।
पं. रविशंकर के संगीत बद्ध गाने भी बहुत ही सुन्दर थे।
अगर कोई पाठक इन गानों को सुनना चाहे तो सम्पर्क करे, कुछ गाने उपलब्ध है।
सागर चन्द नाहर said
माफ़ कीजिये सूरज को रोशनी दिखाने के समान पढें।
दीपक said
ऋषिदा की एक फिल्म “सत्यकाम” जो उनके हास्य की फिल्मों से अलग थी, मुझे बेहद पसन्द है| खुद ऋषिदा ने भी इस फिल्म को अपनी श्रेष्ठ फिल्म कहा था|
मानवीय संवेदनाओं का इतना बढिया चित्रण और इस तरह के विषय पर फिल्में बनाना, केवल ऋषिदा के लिए ही सम्भव था|
सचमुच ऋषिदा जैसे शिल्पकार का देहावसान एक युग का समापन है| मेरी ओर से भी श्रद्धांजली|
आशीष said
अमिताभ जी,
आप अपने लेखो मे पैराग्राफ क्यो नही बनाते है ?
आशीष