हिंदू जागरण

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Archive for सितम्बर, 2006

इस्लाम का नस्लवादी चेहरा

Posted by amitabhtri on सितम्बर 30, 2006

इस्लामी उम्मा की अवधारणा के अंतर्गत समस्त विश्व के मुसलमानों को एक समान भाव से देखने का दावा करने वाले मुसलमानों के समक्ष सूडान का डाफूर प्रान्त एक चुनौती बनकर इनके दावों का मखौल उड़ा रहा है . सूडान में पिछले तीन वर्षों से राज्य प्रायोजित नरसंहार में  जन्जावीद नामक  अरबी मुसलमान उग्रवादियों ने अब तक गैर- अरब नस्ल के दो लाख मुसलमानों को मौत के घाट उतारा है तथा दस लाख मुसलमान बेघर बार होकर भटक रहे हैं .                        

            क्यूबा में ग्वांटेनामो बे , ईराक और फिलीस्तीन में मुसलमानों के उत्पीड़न पर समस्त विश्व में शोर मचाने वाले तथाकथित मुस्लिम परस्तों की सूडान के मामले में अपनाई गई चुप्पी एक रहस्य बन गई है . आखिर अमेरिका और इजरायल द्वारा मुस्लिम उत्पीड़न की घटनाओं को ही आधार बना कर पूरे विश्व के मुस्लिम समुदाय को ध्रुवीकृत करने का प्रयास क्यों किया जाता है जबकि मुस्लिम देश में मुसलमानों द्वारा ही अपने बंधु बांधवों के नरसंहार पर चुप्पी साध ली जाती है .                         विभिन्न अरब प्रेस और इंटरनेट पर मुसलमानों द्वारा सूडान के विषय को उस देश के आंतरिक कानून व्यवस्था के रुप में प्रस्तुत किया जाता है साथ ही सूडान में मरने वाले निर्दोष मुसलमानों की संख्या को भी कम करके प्रस्तुत किया जाता है . इसके साथ ही सूडान के विषय को अंतर्राष्ट्रीय स्वरुप देने के लिए यहूदियों को दोषी ठहराकर सिद्ध किया जाता है कि यह  इस्लाम की छवि को खराब करने का यहूदी षड्यंत्र है तथा इस विषय पर किसी भी प्रकार की चर्चा यहूदी दुष्प्रचार को सशक्त बनाएगी . इस आश्चर्यजनक तर्क से निश्चय ही विश्व भर के मुस्लिम नेतृत्व की ईमानदारी पर संदेह होता है जो भारत मे अमेरिकी राष्ट्रपति की यात्रा पर या इजरायल के लेबनान पर आक्रमण के बाद सड़कों पर उतरकर इन देशों की आलोचना करते हुए प्रदर्शन करते हैं और डाफूर में उन्हीं मुसलमानों पर हो रहे अत्याचार से आंखें मूंद लेते हैं.                 

              सूडान में डाफूर में इस संकट के लिए कुछ हद तक प्राकृतिक संसाधनों के लिए हो रहे संघर्ष को उत्तरादायी माना जा सकता है .सूडान के अरब नस्ल के जन्जावीद जनजातीय डाफूर के मुसलमानों की भूल पर नियंत्रण स्थापित करना चाहते हैं .2004 में अश्वेत मुस्लिम डाफूर वासियों ने सूडान लिबरेशन आर्मी के बैनर तले जन्जावीदों के विरुद्ध हथियार उठाया तो सूडान की सरकार ने नियमित सेना के माध्यम से जन्जावीदों को शस्त्र उपलब्ध कराए और जनजातीय डाफूर वासियों की जायज मांगों को बलपूर्वक दबाया.                        

                लेकिन इस विवाद को आर्थिक विवाद मानना एक भूल होगी .इस विवाद के मूल में नस्लवाद की विचारधारा भी  है .सूडान की सरकार विभिन्न इस्लामी संगठनों के माध्यम से सूडान के जनजातीय मुसलमानों का अरबीकरण करना चाहती है . इस क्रम में अरब नस्ल के जन्जावीदों को सूडान की सरकार का पूरा सहयोग मिल रहा है जिसकी सहायता से निर्दोष डाफूर के मुसलमानों का नरसंहार हो रहा है .दूसरी ओर सूडान की सरकार इस हत्या से लोगों का ध्यान हटाने के लिए शोर मचाती है कि खारतोम में इस्लाम संकट में है .                  

           यह विडंबना ही है कि इराक में अमेरिकी आक्रमण के विरोध में पूरी दुनिया को सिर पर उठा लेने वाले अरब के देशों ने सूडान में अपने ही मुसलमानों के मरने पर न केवल चुप्पी साधी वरन् इसे भी यहूदी षड्यंत्र बता दिया. आज सूडान का अश्वेत मुसलमान सोचने पर विवश है कि क्या इराक , फिलीस्तीन या बोस्नीया के मुसलमानों के जीवन की कीमत डाफूर के मुसलमानों से अधिक है .               

           अरब देशों के सबसे बड़े संगठन अरब लीग ने सदैव खारतोम सरकार की आर्थिक सहायता की तथा 2004 में सूडान पर लगाए गए आर्थिक प्रतिबंधों का विरोध भी किया .इस सहायता से उत्साहित सूडान की सरकार ने डाफूर के अश्वेत मुसलमानों को चोर और डाकू कहकर उनपर असाधारण अत्याचार किए .            

            सूडान में अरब नस्ल के मुसलमानों की प्राथमिकता स्थापित करने के क्रम में मुसलमानों पर ही किए जा रहे इस घोर जुल्म के बाद इस्लाम में नस्लवाद की अवधारणा का विरोध तो खोखला हो ही गया है अमेरिका और इजरायल के विरुद्ध मुस्लिम उत्पीड़न के नाम पर होने वाले विश्व व्यापी विरोध में राजनीतिक स्वर भी स्पष्ट सुनाई पड़ रहा है .

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बुश पर बढ़ता दबाव

Posted by amitabhtri on सितम्बर 24, 2006

अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति बिल क्लिंटन द्वारा जार्ज बुश प्रशासन पर कुख्यात आतंकवादी सरगना ओसामा बिन लादेन को पकड़ने के लिये पर्याप्त प्रयास न करने के आरोप के साथ ही अमेरिका में आतंकवाद के मुद्दे पर बुश की कठिनाइयाँ बढ़ती ही जा रही हैं. अमेरिकी काँग्रेस के समक्ष खुफिया एजेन्सी द्वारा  आतंकवादियों की पूछताछ के लिये कुछ गोपनीय जेलों की बात स्वीकार करने के बाद बुश को अपने ही दल में पहली बार स्पष्ट ध्रुवीकरण देखने को मिल रहा है. पूर्व विदेश मन्त्री कोलिन पावेल के नेतृत्व में तीन प्रमुख सीनेटरों ने जार्ज बुश द्वारा प्रस्तावित उस कानून का स्पष्ट विरोध किया है जिसमें युद्धबन्दियों के साथ होने वाले व्यवहार को निर्धारित करने वाले मानक जिनेवा अन्तरराष्ट्रीय सन्धि की धारा 3 में संशोधन कर आतंकवादियों के साथ पूछताछ के विशेष प्रावधान बनाने का सुझाव दिया गया है. इस संशोधन पर रिपब्लिकन सीनेटरों की आपत्ति यह है कि इस संशोधन से अमेरिका के संविधान की मूलभूत आत्मा पर चोट पहुँचेगी और मानवाधिकार तथा व्यक्ति की स्वतन्त्रता के उसके नैतिक सिद्धान्त पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा.

               वहीं इस संशोधन के पैरोकारों का अपना तर्क है उनके अनुसार जिनेवा सन्धि में युद्ध की स्थिति के अनुसार नियम बनाये गये हैं जब शत्रु युद्ध सम्बन्धी अन्तरराष्ट्रीय नियमों का पालन करता है  अब बदली परिस्थितियों में  जब आतंकवादी ऐसे किसी अन्तरराष्ट्रीय नियम का अनुपालन नहीं करते तो उन्हें जिनेवा सन्धि की छूट नहीं मिलनी चाहिये और  उनके साथ विशेष असाधारण व्यवहार होना चाहिये.        

                       यह कोई पहला अवसर नहीं है जब बुश की आतंकवाद सम्बन्धी नीति पर  परस्पर विरोधी  विचार सामने आये है. इससे पूर्व कुछ माह पहले अमेरिका के सर्वोच्च न्यायालय ने क्यूबा में ग्वान्टेनामो बे में आतंकवादियों की पूछताछ के लिये स्थापित की गई विशेष जेलों को समाप्त करने का आदेश दिया था. अमेरिका के संविधान में सर्वोच्च न्यायालय की नैतिक सर्वोच्चता के चलते इस निर्णय को भी बुश की नीतियों के लिये एक बड़ा झटका माना गया था. हालांकि अमेरिका के राष्ट्रपति को वीटो अधिकार से कोई भी कानून अन्तिम रूप में पारित कराने के विशेषाधिकार के चलते सर्वोच्च न्यायालय का निर्णय बुश के लिये कानूनी रूप से भले ही विवशता न बना हो परन्तु उनकी स्थिति को कमजोर करने के लिये पर्याप्त था.     इन घटनाक्रमों के बीच यह समझना अत्यन्त आवश्यक है कि आखिर बुश पर बढ़ते दबाव के पीछे उनकी कौन सी नीतियाँ दोषी हैं.    

                          11 सितम्बर 2001 को न्यूयार्क पर हुये आतंकवादी हमले के बाद समस्त विश्व ने एकजुट होकर न केवल इस घटना की निन्दा की वरन् अमेरिका के राष्ट्रपति के आतंकवाद के विरूद्ध युद्ध के आह्वान को सहर्ष स्वीकार भी किया. इस घटना के दोषियों को खोज निकालने के लिये अमेरिका ने अफगानिस्तान की तालिबान सरकार पर हमला किया और तालिबान का प्रभाव इस क्षेत्र में समाप्त कर दिया. परन्तु आज पाँच वर्षों के उपरान्त अफगानिस्तान में तालिबान फिर जोर मारने लगा है. इसी बीच 2003 में ईराक पर हुये आक्रमण को न्यायसंगत ठहराने में बुश की असफलता और अमेरिकी सैनिकों की मृत्यु सहित दिनोंदिन वहाँ की बिगड़ती स्थिति ने आतंकवाद के विरूद्ध युद्ध की धारणा पर प्रश्न खड़े कर दिये हैं.       

                  वास्तव में इन दोनों युद्धों के पश्चात इन क्षेत्रों में उपजी अराजकता को समझने के लिये हमें अमेरिका की पूरी नीति को समझना होगा. इन दोनों ही युद्धों की पूरी रणनीति अमेरिकी रक्षामन्त्री डोनाल्ड रम्सफेल्ड ने बनाई जिन्होंने अमेरिका की हवाई क्षमता पर पूरा भरोसा रखते हुये जमीन पर लड़ाई को अधिक प्राथमिकता नहीं दी जिसका परिणाम कई बार गलत लोगों को निशाना बनाने के रूप में सामने आया . जैसे 2003 में ईराक के फालुजा शहर में हुई बमबारी में मारे गये निर्दोष ईराकियों ने पूरी दुनिया में आतंकवादियों और उनके समर्थकों को मुस्लिमों पर अत्याचार के सिद्धान्त को विश्वव्यापी रूप से मनमाना और मनगढ़न्त स्वरूप देने का अवसर मिल गया. ऐसे आक्रमणों के कारण देश के असन्तुष्ट गुट भी खुलकर अमेरिका का साथ देने की स्थिति में नहीं रहे. इसके साथ ही रम्सफेल्ड की रणनीति में आक्रमण किये गये देश के असन्तुष्ट वर्ग को देश पर विजय प्राप्त करने के बाद साथ लिया गया. इससे इन देशों में आशंका व्याप्त हुई कि अमेरिका लोकतन्त्र की स्थापना के स्थान पर इन क्षेत्रों में अपना कठपुतली शासन स्थापित करना चाहता है.     

                      बुश की रिपब्लिकन पार्टी मूल रूप से नव परम्परावादियों या निवो कन्जर्वेटिव विचारधारा पर अवलम्बित है जिसका मूल उद्देश्य मध्य पूर्व में इजरायल विरोधी शक्तियों को कमजोर करते हुये वहाँ के तेल संसाधनों पर नियन्त्रण स्थापित रखना ताकि ये देश तेल कूटनीति को अमेरिका के विरूद्ध प्रयोग न कर सकें. इसके साथ ही आतंकवाद पर कड़े कदम उठाते हुये इस्लामी देशों को लोकतान्त्रिक बनाने की प्रक्रिया तीव्र करते हुये  पूरी दुनिया में परमाणु अप्रसार और जनसंहारक हथियारों के अप्रसार से अमेरिका को भय रखना भी इस विचारधारा का मुख्य ध्येय है. यही कारण है कि मध्य पूर्व में इजरायल के अस्तित्व के लिये खतरा बनने वाला देश सीधे अमेरिका के निशाने पर आता है. परन्तु इस विचारधारा के क्रियान्वयन को लेकर नव-परम्परावादी एकमत नहीं हैं.       

                            अफगानिस्तान और ईराक दोनों ही देशों में तालिबान और सद्दाम के शासन के पतन के पश्चात जिस प्रकार इन देशों की व्यवस्था को सम्भालने का कार्य यहाँ की स्थानीय शक्तियों को न देकर अमेरिका की सेना के अधीन ही रखा गया उसमें लोगों को अमेरिका अमेरिका की नीयत में खोट दिखने लगा.     

               कुछ वर्ष पूर्व प्रसिद्ध अमेरिकी लेखक सैमुअल हटिंगटन ने “Who are we: The challenges to America’s national identity “पुस्तक के माध्यम से अमेरिका को अपनी पहचान बनाये रखने के लिये साम्राज्यवादी रास्ता अपनाते हुये अपनी सेना और आर्थिक सत्ता के सहारे समस्त विश्व को अमेरिका बनाने का सुझाव दिया था तो नवपरम्परावादी लेखक डैनियल पाइप्स ने इसे अव्यावहारिक बताते हुये कहा था कि अमेरिकी जनता साम्राज्यवादी विस्तार के लिये अपना धन और अर्थ बहाने को कतई तैयार नहीं है.   वास्तव में ईराक की विजय के बाद ईराक को अमेरिका की महत्वाकांक्षाओं और भावी योजनाओं की प्रयोगशाला के रूप में प्रयोग किया, जहाँ आधुनिक सन्दर्भों में वैचारिक ईमानदारी के अभाव में बुश को मुँह की खानी पड़ी .    आज आतंकवाद पर बुश की रणनीति हो या अफगानिस्तान और ईराक में विजय के पश्चात आतंकवादियों की फिर से बढ़ती सक्रियता हो सभी मामलों में वे अपने देश सहित समस्त विश्व समुदाय को अपनी रणनीति की सार्थकता  समझा पाने में काफी हद तक असफल रहे हैं, फिर भी इससे यह अर्थ लगाना काफी जल्दबाजी होगी कि इससे बुश कमजोर पड़ जायेंगे या अमेरिका की नीति में कोई विशेष अन्तर आ जायेगा.      

                          अमेरिका में प्रस्तावित नवम्बर माह के मध्यावधि आम चुनावों से पूर्व डेमोक्रेट और रिपब्लिकन के मध्य इसी प्रकार आरोप-प्रत्यारोप का दौर चलेगा और बुश पर दबाव और बढ़ेगा.

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भारत-पाक शान्ति वार्ता

Posted by amitabhtri on सितम्बर 19, 2006

हवाना में सम्पन्न हुये निर्गुट सम्मेलन में भारत के प्रधानमन्त्री मनमोहन सिंह और पाकिस्तानी राष्ट्रपति ने एक बार फिर बातचीत का दौर आरम्भ किया है जो  जुलाई  माह में मुम्बई मे हुये बम धमाकों के बाद स्थगित हो गई थी. इस बातचीत को  भारत और पाकिस्तान दोनों ही सरकारें अपने जनसम्पर्क अभियान के माध्यम से एक उपलब्धि  रूप में चित्रित कर रही हैं.     

                     एक ओर जहाँ बलूचिस्तान में नवाब बुग्ती की पाकिस्तानी सेना द्वारा हुई हत्या और वजीरिस्तान में तालिबानी आतंकवादियों से समझौते के बाद संयुक्त विपक्ष का सामना कर रहे पाकिस्तानी राष्ट्रपति अपनी स्थिति मजबूत करने के लिये कश्मीर का कार्ड खेल रहे हैं तो वहीं भारत के प्रधानमन्त्री पाकिस्तान से बातचीत का क्रम आरम्भ कर देश के समक्ष आतंकवाद का विकल्प प्रस्तुत करने का प्रयास कर रहे हैं. ऐसे में यह वार्ता दोनों शासनाध्यक्षों की मजबूरी को अधिक बयान करती है.      

                 पाकिस्तान के राष्ट्रपति से मुलाकात के बाद भारत के प्रधानमन्त्री ने जिस प्रकार पाकिस्तान को भी आतंकवाद से पीड़ित बताकर आतंकवाद से लड़ने में दोनों देशों की साझा कोशिशों के लिये कार्य पद्धति विकसित करने की बात की तो उनकी बात में स्वतन्त्र सम्प्रभु राष्ट्र के प्रतिनिधि से अधिक कुछ अदृश्य महाशक्तियों के स्वर ध्वनित हुये.   प्रधानमन्त्री मनमोहन सिंह के बयान के बाद पाकिस्तान स्थित भारतीय उच्चायुक्त शंकर मेनन ने मुम्बई ब्लास्ट में पाकिस्तान को क्लीन चिट देते हुये कहा कि भारत ने इन विस्फोटों के लिये पाकिस्तान को कभी दोषी नहीं ठहराया. यह बयान उन दावों के विपरीत है जिनमें महाराष्ट्र के मुख्यमन्त्री सहित देश के अनेक जिम्मेदार पदों पर बैठे लोगों ने न केवल पाकिस्तान पर अँगुली उठाई थी वरन इस सम्बन्ध में ठोस सबूत होने की बात की थी. अब नवीनतम बयान से साफ है कि भारत की नीति में आये इस परिवर्तन के पीछे कुल और खिलाड़ी भी हैं.        मजबूरी की इस वार्ता को आरम्भ करने से एक बड़ा प्रश्न फिर खड़ा हुआ है कि भारत ने बातचीत में आज तक क्या प्राप्त किया है और पिछले असफल प्रयोगों के बाद भी बातचीत केवल बातचीत के लिये क्यों की जाती है. इस सम्बन्ध में एक अनुमान यह होता है कि भारत-पाकिस्तान विषय में वार्ता की मेज पर जाने से पहले भारत का कोई गृहकार्य नहीं होता. अभी तक भारत-पाकिस्तान विवाद की मूल भावना को समझने और उसके समाधान का कोई गम्भीर प्रयास कभी हुआ ही नहीं. पिछले कुछ वर्षों में आगरा शिखर वार्ता से हवाना में हुई भेंट तक वार्ता एक राजनीतिक पड़ाव से अधिक कुछ सिद्ध नहीं हो पाता.           

                   इसका एक बड़ा कारण समस्या को रिजाल्व करने के स्थान पर उसे डिजाल्व करने में बढ़ती रूचि है. भारत के साथ पाकिस्तान के विवाद की तुलना यदि इजरायल-फिलीस्तीन विवाद से करें तो इस सम्बन्ध में स्थिति कुछ  हद तक स्पष्ट हो सकती है. हालांकि इजरायल-फिलीस्तीन के विवाद का स्वरूप कुछ भिन्न भले हो परन्तु इजरायल की भी सबसे बड़ी समस्या पड़ोसी अरब देशों द्वारा  इजरायल  के अस्तित्व को अस्वीकार करते हुये उसे अपने ऊपर थोपा गया मानने की है, यद्यपि भारत के साथ ऐसी समस्या तो नहीं है परन्तु पाकिस्तान के अस्तित्व का आधार भारत विरोध है जहाँ का शासन और धार्मिक तन्त्र कुछ  काल्पनिक मिथकों के जरिये पाकिस्तान का इतिहास निर्मित कर उसे इस्लामी पहचान देकर भारत को एक हिन्दू खलनायक के रूप में अपने देशवासियों के समक्ष खड़ा करता है.                       

                  1948 में इजरायल की निर्मिति के पश्चात 1967 में छह दिन के युद्ध में ही अरब देशों को पराजित करने के बाद अमेरिका में इजरायल को अपना रणनीतिक साथी माना जाने लगा और बिडम्बना है कि अमेरिका का मित्र बनने के बाद इजरायल को 1992 के बाद से स्वयं को अनेक क्षेत्रों से स्वेच्छया हटना पड़ा है, पहले लेबनान में गोलन पहाड़ियों से वापसी, फिर गाजा क्षेत्र से वापसी और अब येहुद ओलमर्ट द्वारा जेरूसलम के विभाजन का प्रस्ताव. फिलीस्तीन के साथ शान्ति प्रयासों के क्रम में अमेरिका के प्रस्तावों पर कभी ओस्लो फार्मूला और कभी कैम्प डेविड शिखर वार्ता में इजरायल ने फिलीस्तीन को एक पर एक छूट दी जिसका परिणाम फिलीस्तीन में इन्तिफादा और इजरायल की सीमाओं तक लेबनान के आतंकवादी संगठन हिजबुल्लाह की पहँच के रूप में सामने आया. इजरायल के विश्लेषक मानते हैं कि फिलीस्तीन को छूट देने की प्रवृत्ति के चलते अरब देशों के अनेक कट्टरपंथी संगठनों को भरोसा हो चला है कि  अब इजरायल में वह धार नहीं रही और उससे मुकाबला आसान है और इसी का परिणाम है कि इजरायल को नष्ट करने की बातें अधिक खुलकर होने लगी हैं.       

                          भारत-पाकिस्तान समस्या के मूल में भी कश्मीर मुद्दा नहीं है मुद्दा है पाकिस्तान का अलोकतान्त्रीकरण . पाकिस्तान के शासन तन्त्र और सामाजिक तन्त्र पर मुल्ला मिलिट्री गठबन्धन का नियन्त्रण. इसी गठबन्धन के कारण पाकिस्तान में लोकतान्त्रिक संस्थाओं का विकास नहीं हो सका है. भारत को पाकिस्तान में लोकतान्त्रिक सिद्धान्तों जैसे नागरिकों के मूल अधिकार, स्त्री अधिकार, व्यक्तिगत अधिकार, स्थानीय निकायों को अधिक प्रतिनिधित्व , अल्पसंख्यकों के अधिकारों की रक्षा, अभिव्यक्ति की स्वन्त्रता और सूचना के अधिकार को सशक्त करने के लिये विशेष प्रयास करने चाहिये ताकि जनता लोकतन्त्र की ओर प्रवृत्त हो सके. इसके लिये भारत को अहस्तक्षेप की अपनी पुरानी नीति का परित्याग कर अपने हितों की रक्षा के लिये दूसरे देशों की नीतियों को प्रभावित करने कीनई नीति का विकास करना चाहिये.     

                            यदि अमेरिका अपने हितों की रक्षा के लिये मध्य पूर्व की नीतियों और सरकारों को अपने अनुकूल चलाने की नीति को राष्ट्रीय हित में उचित ठहराता है और चीन अपनी रणनीतिक स्थिति मजबूत करने के लिये तिब्बत को हजम कर सकता है तो भारत को अपने पड़ोसी देशों की नीतियों प्रभावित करने का अधिकार क्यों कर नहीं मिलना चाहिये.

                       भारत को पाकिस्तान के सम्बन्ध में अल्पकालिक नीतियों का परित्याग कर दीर्घगामी नीति का अनुपालन करते हुये पाकिस्तान के लोकतान्त्रीकरण का प्रयास करना चाहिये और इसके लिये पाकिस्तान की लोकतन्त्र समर्थक शक्तियों को नैतिक, सामरिक और आर्थिक हर प्रकार की सहायता देने का प्रयास करना चाहिये, अन्यथा महाशक्तियों के दबाव में पाकिस्तान को छूट देते हुये हम पाकिस्तान के इस्लामी साम्राज्यवादी एजेण्डे से घिर जायेंगे.

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पोप के बयान

Posted by amitabhtri on सितम्बर 16, 2006

पोप बेनेडिक्ट 16 द्वारा पिछले दिनों जर्मनी के रेजेनबर्ग विश्विद्यालय के एक कार्यक्रम में इस्लाम पर दिये गये उनके बयान ने एक विवाद का स्वरूप ग्रहण कर लिया है. एक समारोह में इस्लाम की जिहाद की अवधारणा  और उसमें अन्तर्निहित हिंसा को पोप ने ईश्वर की इच्छा के विपरीत घोषित करते हुये इस सम्बन्ध में पूर्वी रोमन साम्राज्य के ईसाई शासक मैनुअल द्वितीय को उद्धृत करते हुये कहा कि मोहम्मद ने कुछ भी नया नहीं किया. इस्लाम में जो भी है अमानवीय और हिंसक है तथा इस धर्म का प्रचार तलवार के बल पर हुआ है.      पोप के इस बयान के बाद अनेक मुस्लिम देशों और गैर-मुस्लिम देशों के  मुसलमानों के मध्य तीव्र प्रतिक्रिया हुई है , इस घटनाक्रम की पृष्ठभूमि में यह समझना अत्यन्त आवश्यक है कि इस बयान के माध्यम से कैथोलिक ईसाइयों के सर्वश्रेष्ठ धर्मगुरू आखिर क्या सन्देश देना चाहते हैं.           

                            पोप बेनेडिक्ट के पूर्ववर्ती पोप जॉन पॉल ने इस्लाम के साथ संवाद आरम्भ कर दोनों धर्मों के मध्य आपसी समझ स्थापित करने का प्रयास किया था और इस क्रम में वर्ष 2001 में उन्होंने सीरिया की मस्जिद में प्रवेश किया था और वे ऐसा करने वाले पहले ईसाई धर्म गुरू थे. परन्तु वर्ष 2003 तक विश्व के निचले श्रेणी के पादरी या कार्डिनल अनेक बैठकों में दारूल इस्लाम में रहने वाले 4 करोड़ ईसाई अल्पसंख्यकों के साथ होने वाले द्वितीय श्रेणी के व्यवहार का प्रश्न उठाने लगे थे और इसी दबाव के चलते पोप जॉन पॉल ने 2003 में समान व्यवहार का विषय उठाना आरम्भ कर दिया था.        

                     पोप जॉन पॉल के उत्तराधिकारी बेनेडिक्ट 16 कार्डिनल राटजिंगर की भूमिका में भी इस्लाम के सम्बन्ध में अपने कठोर विचारों के लिये जाने जाते थे. पोप बनने के बाद इस्लाम के साथ ईसाइयों का सम्बन्ध उनके एजेण्डे में सर्वोपरि था. इस क्रम में उन्होंने वेटिकन में कुछ बड़ी बैठकें आयोजित कर इस विषय में पूरी दुनिया के विभिन्न क्षेत्रों के कैथोलिक पादरियों की राय जानने का प्रयास भी किया.    

                          पोप का इस्लाम के सम्बन्ध में पहला सार्वजनिक दृष्टिकोण जनवरी 2006 में सामने आया जब पोप के साथ ह्यूज हेविट शो सेमिनार में भाग लेने वाले फादर जोसेफ डी फेसियो ने रहस्योद्घाटन किया कि इस सेमिनार में पोप ने कुछ नरमपंथी मुस्लिम विद्वानों की इस बात का जोरदार खण्डन किया था कि कुरान में किसी भी प्रकार सुधार सम्भव है. पोप ने इस सम्मेलन में कहा कि कुरान में जो कुछ कहा गया है वह पैगम्बर द्वारा भले कहा गया हो परन्तु वे अल्लाह के सीधे आदेश हैं इसलिये उनमें कोई सुधार सम्भव नहीं है.        

                        अप्रैल 2005 में पोप बनने के बाद यह पहला अवसर था जब बेनेडिक्ट ने इस्लाम पर अपनी सीधी राय व्यक्त की थी. इसी प्रकार अनेक गोपनीय बैठकों में भी पोप ने इस्लाम के संवाद जारी रखने का समर्थन करते हुये भी इसे बेमानी बताया जब तक इस्लाम में जिहाद की अवधारणा और उसमें अन्तर्निहित हिंसा की धारणा खण्डित नहीं होती.    

                         पोप का नवीनतम बयान इस्लाम और ईसाइयों के मध्य सम्बन्धों के सन्तुलन में आये अन्तर का प्रकटीकरण है. दशकों पुरानी नीति में नाटकीय परिवर्तन करते हुये वेटिकन ने  दारूल इस्लाम में रह रहे ईसाइयों की दुर्दशा का कारण फिलीस्तीन में  इजरायल की नीतियों को  मानने के स्थान पर इसे कूटनीतिक और सांस्कृतिक सम्बन्धों के पारस्परिक सम्बन्ध से  जोड़ा है.      

                        डेनमार्क के प्रसिद्ध समाचार पत्र जायलैण्ड्स पोस्टेन में छपे मोहम्मद के तथाकथित कार्टून के बाद वेटिकन की नीति में आया यह परिवर्तन स्पष्ट रूप से परिलक्षित हुआ था जब आरम्भ में वेटिकन ने इन कार्टूनों के प्रकाशन का विरोध किया था परन्तु नाईजीरिया और तुर्की में हुई हिंसा में पादरियों के मरने के बाद वेटिकन प्रवक्ता ने आक्रामक लहजे में कहा कि, यदि आप हमारे लोगों से कहेंगे कि उन्हें आक्रमण का अधिकार नहीं है तो हमें अन्य लोगों से भी कहना पड़ेगा कि उन्हें हमें नष्ट करने का अधिकार नहीं है . वेटिकन के विदेश मन्त्री आर्कविशप गिवोवानी लाजोलो ने इसमें जोड़ा कि हमें मुस्लिम देशों में कूटनीतिक सम्पर्कों और सांस्कृतिक सम्पर्कों में सम्बन्धों में उचित प्रतिफल की माँग पर जोर देते रहना चाहिये.              

                        इसी प्रकार मार्च महीने में अफगानिस्तान में अब्दुल रहमान नामक व्यक्ति के ईसाई बनने पर अफगानिस्तान सरकार द्वारा उसे मृत्युदण्ड दिये जाने का जैसा विरोध वेटिकन सहित प्रमुख पश्चिमी ईसाई देशों ने किया था उससे वेटिकन की नई आक्रामक नीति का संकेत मिलता है.       

                      पोप बेनेडिक्ट ने यूरोपियन संघ में तुर्की के शामिल होने का विरोध करते हुये यूरोप में बढ़ रही सेकुलर प्रवृत्ति की भी खुली आलोचना करते हुये यूरोप से अनेक अवसरों पर कहा है कि वह अपनी ईसाई पहचान को न भूले.       

                       वैसे पोप का इस्लाम सम्बन्धी रूख यूरोप के इस्लामीकरण के भय को स्वर देता है. ईसाई जन्म स्थान बेथलहम में पिछली दो सहस्राब्दी में ईसाइयों के अल्पसंख्या में आ जाने के बाद यूरोप में आप्रवास के बहाने बढ़ती मुस्लिम जनसंख्या और उनका मुखर और आक्रामक स्वभाव यूरोप को अपनी पहचान सहेजने को विवश कर रहा है.    

                        बेथलेहम में 1922 में ईसाइयों की जनसंख्या मुसलमानों से अधिक थी परन्तु आज यह घटकर 2 प्रतिशत रह गयी है, इसी प्रकार अपनी परम्परा और मूल्यों के साथ सम्बन्ध क्षीण करता हुआ यूरोप उत्तर ईसाई समाज बनता जा रहा है. पिछली दो पीढ़ियों में आस्थावान और धर्मपालक ईसाइयों की संख्या इतनी कम हुई है कि पर्यवेक्षकों ने इसे नया अन्ध महाद्वीप कहना आरम्भ कर दिया है. विश्लेषकों का पहले ही अनुमान है कि मस्जिदों में उपासना करने वालों की संख्या प्रत्येक सप्ताह चर्च आफ इंगलैण्ड से अधिक होती है.     

                         किसी जनसंख्या को कायम रखने के लिये आवश्यक है कि महिलाओं का सन्तान धारण करने का औसत 2.1 हो परन्तु पूरे यूरोपीय संघ में दर एक तिहाई 1.5 प्रति महिला है और वह भी गिर रही है . एक अध्ययन के अनुसार यदि जनसंख्या का यही रूझान कायम रहे और आप्रवास पर रोक लगा दी जाये तो 2075 तक आज की 375 मिलियन की जनसंख्या घटकर 275 मिलियन हो हो जायेगी. यहाँ तक कि अपने कारोबार के लिये यूरोप को प्रतिवर्ष 1.6 करोड़ आप्रवासियों की आवश्यकता है. इसी प्रकार वर्तमान कर्मचारी और सेवानिवृत्त लोगों के औसत को कायम रखने के लिये आश्चर्यजनक 13.5 करोड़ आप्रवासियों की प्रतिवर्ष आवश्यकता है.इसी रिक्त स्थान में इस्लाम और मुसलमान को प्रवेश मिल रहा है. जहाँ ईसाइयत अपनी गति खो रही है वहीं इस्लाम सशक्त, दृढ़ और महत्वाकांक्षी है. जहाँ यूरोपवासी बड़ी आयु मे भी कम बच्चे पैदा करते हैं वहीं मुसलमान युवावस्था में ही बड़ी मात्रा में सन्तानों को जन्म देते हैं.यूरोपियन संघ का 5% या लगभग 2 करोड़ लोग मुसलमान हैं. यदि यही रूझान जारी रहा तो 2020 तक यह संख्या 10% पहुँच जायेगी.जैसा कि दिखाई पड़ रहा है कि गैर मुसलमान नयी इस्लामी व्यवस्था की ओर प्रवृत्त हुये तो यह महाद्वीप मुस्लिम बहुसंख्यक क्षेत्र बन जायेगा.       

                        इन तथ्यों की पृष्ठभूमि में यह स्पष्ट हो जाता है कि इस्लाम के सम्बन्ध में पोप का बयान कोई भावात्मक या आवेशपूर्ण उक्ति नहीं है वरन् यूरोप और ईसाई समाज की असुरक्षा की भावना की अभिव्यक्ति है. पोप बेनेडिक्ट के दृष्टिकोण से स्पष्ट है कि आने वाले दिनों में इस्लाम और ईसाइयत के मध्य आरोप-प्रत्यारोपों का दौर चलेगा और उसका परिणाम आने वाले वर्षों में  विश्व स्तर पर नये  राजनीतिक और सांस्कृतिक ध्रुवीकरण के तौर पर देखने को मिल सकता है.

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पाकिस्तान में महिला कानून

Posted by amitabhtri on सितम्बर 15, 2006

पाकिस्तान में महिलाओं की स्थिति में सुधार के निमित्त प्रस्तावित महिला अधिकार बिल 2006 पर गतिरोध अभी बरकरार है प्रमुख विपक्षी दलों के बीच इस कानून को लेकर सहमति बनाने के प्रयास विफल रहे और वर्तमान स्वरूप में प्रमुख विपक्षी दल ने  ने इसे अस्वीकार कर दिया.    प्रस्तावित बिल की प्रति प्राप्त करने के बाद मजलिसे मुत्तेहदा अमल के महासचिव मौलाना फजुर्ररहमान ने पाकिस्तान मुस्लिम लीग के अध्यक्ष चौधरी सजात सहित उलेमाओं और सरकार के प्रतिनिधियों से इस बावत विचार विमर्श किया और उसके बाद विपक्षी दलों के इस गठबन्धन ने इसे अस्वीकार कर दिया. कट्टरपंथी इस्लामी गठबन्धन मजलिसे अमल के अनुसार प्रस्तावित कानून पूरी तरह कुरान और सुन्ना के विपरीत है. इस संगठन का कहना है कि पिछले दो दिनों में सरकार ने दो ड्राफ्ट भेजे हैं और वे दोनों ही कुरान और सुन्ना के विपरीत हैं       उधर पाकिस्तान मुस्लिम लीग के नेता चौधरी सुजात ने इसे पूरी तरह कुरान सम्मत बताते हुये इस सम्बन्ध में  उलेमाओं की सहमति का भी दावा किया है.   ज्ञातव्य हो कि प्रस्तावित महिला अधिकार कानून के अन्तर्गत प्रसिद्ध इस्लामी हदूद कानून को संशोधित किया जाना है जिसमें बलात्कार पीड़ित महिला को अपराध सिद्ध करने के लिये चार पुरूष साक्षियों को लाना पड़ता है अन्यथा महिला को ही दण्डित किया जाता है.

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भारत में मिली एक नई पक्षी की प्रजाति

Posted by amitabhtri on सितम्बर 15, 2006

 नई दिल्ली,14 सितम्बर. पक्षियों के विषय के अन्तरराष्ट्रीय जानकार रामना अथरेया ने इस बात की पुष्टि कर दी है कि भारत में एक पक्षी की नयी प्रजाति खोजी गई है. श्री रामना ने ही मई महीने में अरूणाचल प्रदेश के ईगलनेट अभयारण्य में पहली बार इस पक्षी को देखा था. इस क्षेत्र में रहने वाली आदिवासी जाति बुगुन के नाम पर इस चिड़िया का नामकरण लियोचिचला बुगुनोरम किया गया है. यह रंगीन आकर्षक पक्षी एक चिड़िया है जिसका सिर काला है और उसकी आँखों के आसपास पीले रंग का निशान है जबकि इसके पंखों पर काले ओर सफेद चिन्ह हैं.श्री अथरेया ने इस प्रजाति के दो पक्षियों को पकड़ा ओर बाद में उनकी जाँच कर उन्हें छोड़ दिया गया.      यद्यपि इस प्रजाति की खोज मई महीने में ही हो गई थी परन्तु इसकी पुष्टि होने तक इस समाचार को गुप्त ही रखा गया.

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आधुनिक जीवन शैली

Posted by amitabhtri on सितम्बर 15, 2006

आधुनिक जीवन शैली में जंक फूड, विद्यालय की पढ़ाई के बोझ और बड़े स्तर पर बाजारीकरण की चपेट में आकर बच्चों के बचपन की रचनात्मकता खोती जा रही है. ब्रिटेन में अनेक अकादमिकों सहित बच्चों के अभिभावकों और मनोविज्ञानियों ने इस आशय का पत्र ब्रिटेन के एक प्रमुख समाचार पत्र को भी लिखा है. डेली टेलीग्राफ को लिखे पत्र में बच्चों के रचनाकार फिलिप पुलमैन और जैक्यूलिन विल्सन और वैज्ञानिक बारोनेस ग्रीनफील्ड ने बच्चों में बढ़ रही अवसाद की घटनाओं की ओर ध्यान दिलाते हुये इस पर कार्रवाई करने की माँग भी की है.      क्या हम बच्चों को पालना भूल गये शीर्षक के इस पत्र में इस बात का दावा किया गया है कि सरकार यह समझ पाने में पूरी तरह विफल है कि बच्चों का विकास कैसे होता है.      बच्चों से सम्बन्धित इन विशेषज्ञों का मानना है दयनीय आहार, बच्चों को व्यायाम न करने देना और अकादमिक रूप से उन्हें सीमित कर देने से उनकी रचनात्मकता भी सीमित होकर रह गई है. इस पत्र  के अन्त में कहा गया है कि बच्चों को शारीरिक क्षति से बचाने के तो पूरे प्रबन्ध हमने किये हैं परन्तु इस क्रम में उनकी सामाजिक और भावनात्मक आवश्यकताओं की ओर ध्यान नहीं दिया .इन विश्लेषकों ने किशोर और युवाओं में बढ़ रही गाली-गलौज और हिंसा की प्रवृत्ति के लिये इसी मानसिक दशा को दोषी ठहराया है. इन शिकायतों के बीच इन अकादमिकों ने 21वीं शताब्दी में बच्चों के पालन-पोषण पर नये सिरे से देश व्यापी बहस की आवश्यकता जताई है.

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पोप

Posted by amitabhtri on सितम्बर 13, 2006

रेजनबर्ग,12 सितम्बर. पोप बेनेडिक्ट 16 ने यहाँ मंगलवार को इस्लाम और पश्चिम के मध्य सम्बन्ध जैसे नाजुक विषय पर बोलते हुये जिहाद या पवित्र युद्ध सम्बन्धी मुस्लिम अवधारणा में अन्तर्निहित हिंसा को तर्क और ईश्वर की योजना के विपरीत बताया. पोप ने बाइजैन्टाइन साम्राज्य के के 14वीं शताब्दी के शासक मैनुअल पालियोलोगस को उद्धृत करते हुये कहा, “ मुझे आप कुछ भी ऐसा दिखाइये जो मोहम्मद ने नया किया हो, और आप वहाँ बुराई और अमानवीयता ही पायेंगे, जैसे उनका आदेश कि तलवार के बल पर धर्म का विस्तार करो”. रेजनबर्ग के जिस विश्वविद्यालय में कभी राटजिंगर के नाम से अध्यापन कार्य करने वाले 79 वर्षीय पोप बेनेडिक्ट 1500 श्रोताओं के मध्य सुझाव दिया कि आज के युग की प्रमुख आवश्यकता संस्कृतियों और धर्मों के मध्य संवाद की है जिसमें तर्क के द्वारा ही सामान्य भूमि खोजी जा सकती है. इस्लाम के सम्बन्ध में यह तथाकथित टिप्पणी ईसाई और इस्लाम के पारस्परिक सम्बन्धों के संकट और उससे उत्पन्न हिंसा पर पोप की चिन्ता को प्रकट करती है. विश्लेषकों का मानना है कि पोप के इस बयान की तीखी प्रतिक्रया हो सकती है क्योंकि उन्होंने अपने बयान में इस्लाम के एक भाग को नहीं पूरे इस्लाम को निशाना बनाया है.

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आस्ट्रेलिया के प्रधानमन्त्री की मुसलमानों से अपील

Posted by amitabhtri on सितम्बर 13, 2006

कैनबरा,12 सितम्बर. 11 सितम्बर 2001 को अमेरिका पर हुये आतंकवादी आक्रमण की पाँचवीं वर्षगाँठ पर अपने देश की जनता को सम्बोधित करते हुये आस्ट्रलिया के प्रधानमन्त्री जॉन हावर्ड ने कहा है कि कोई भी सभ्य मुसलमान आतंकवाद का समर्थन नहीं कर सकता साथ ही उन्होंने यह भी कहा कि मुसलमानों को इजरायल के अस्तित्व को स्वीकार कर लेना चाहिये.      उधर आस्ट्रलिया के मुस्लिम नेताओं ने श्री हावर्ड के इस भाषण की आलोचना करते हुये कहा है कि प्रधानमन्त्री को मुसलमानों को आलोचना के लिये चिन्हित नहीं करना चाहिये.  एक अन्तरराष्ट्रीय समाचार एजेन्सी के साथ बातचीत में आस्ट्रेलिया की इस्लामिक फ्रेन्डशिप एसोसिएशन के अध्यक्ष कैसर त्राड ने इस बात पर अफसोस जताया कि प्रधानमन्त्री समुदायों में समन्वय स्थापित करने के स्थान पर मुस्लिम समाज पर निशाना साध रहे हैं.       कैनबरा में आयोजित आतंकवादी आक्रमण की वर्षगाँठ पर जॉन हावर्ड ने आतंकवाद के विरूद्ध युद्ध में अपने देश की प्रतिबद्धता दुहराते हुये कहा कि पाँच वर्ष पूर्व सामान्य वैश्विक मूल्यों पर आक्रमण हुआ था.       ज्ञातव्य हो कि दो सप्ताह पूर्व आस्ट्रेलिया के प्रधानमन्त्री ने स्पष्ट घोषणा की थी कि देश के मुसलमानों का एक वर्ग देश के साथ आत्मसात नहीं हो पा रहा है. जॉन हावर्ड के इस बयान पर भी मुस्लिम नेताओं ने तीखी प्रतिक्रया व्यक्त की थी.

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लोरेटो मामले से सबक

Posted by amitabhtri on सितम्बर 13, 2006

अभी पिछले दिनों लखनऊ के प्रतिष्ठित कैथोलिक मिशनरी स्कूल में अन्धविश्वासी चमत्कार के बहाने ईसा मसीह के प्रति बच्चों के मन में श्रद्धा उत्पन्न करने का कपट का खेल सामने आया है. इस घटना ने अपने पीछे अनगिनत सवाल छोड़े हैं.     इस पूरे घटनाक्रम का आरम्भ पिछले सप्ताह तब हुआ जब लोरेटो कान्वेन्ट स्कूल के एक कार्यक्रम में पश्चिम बंगाल से विशेष रूप से आये एक व्यक्ति ने बच्चों के समक्ष कुछ प्रदर्शन करते हुये सिद्ध करने का प्रयास किया कि उसके अन्दर ईसा मसीह प्रवेश करते हैं. इस प्रदर्शन के क्रम में उसने अजीब सी हरकतें कीं जिससे अधिकांश बच्चे भयाक्रान्त होकर बेहोश हो गये. बेहोशी की इस घटना के पश्चात अभिभावकों ने इस घटना का संज्ञान लेते हुये इस कृत्य पर नाराजगी जाहिर की. परन्तु इसी बीच कुछ तत्वों ने विद्यालय परिसर में पहुँच कर तोड़फोड़ भी की. यद्यपि यह तोड़फोड़ स्वाभाविक आक्रोश से अधिक राजनीतिक उद्देश्य से प्रेरित अधिक लगती है फिर भी इस पूरे मामले के कुछ सबक भी हैं.        ईसाई मिशनरियों द्वारा सेवा और शिक्षा के नाम पर धर्मान्तरण का गोपनीय एजेण्डा चलाने की बात अनेक अवसरों पर होती आयी है, परन्तु लोरेटो स्कूल की इस घटना ने इसे कुछ हद तक सत्य सिद्ध कर दिया है.       वैसे तो वनवासी और पिछड़े क्षेत्रों में इस क्षेत्र के निवासियों के भोलेपन का फायदा उठाकर उनका धर्म परिवर्तित कराने में इन मिशनरियों को अधिक असुविधा नहीं होती परन्तु शिक्षित लोगों के मध्य ऐसे हथकण्डे सफल होते नहीं दिख रहे हैं. अभी कुछ महीने पहले ही दक्षिण भारत के प्रमुख तीर्थ स्थल तिरूपति बाला जी में धर्मान्तरण के प्रयास ईसाई मिशनरियों द्वारा किये गये थे. परन्तु वहाँ भी यह प्रयास श्रद्धालुओं की सतर्कता और सजगता के कारण सफल न हो सका. अब लोरेटो जैसे प्रतिष्ठित संस्था का उपयोग धार्मिक एजेण्डे को आगे बढ़ाने में करने के प्रयास से कैथोलिक संस्थाओं के आशय पर प्रश्नचिन्ह लग गया है.            पिछले कुछ महीनों में घटी इन घटनाओं से हिन्दू संगठनों के इन आरोपों में सच्चाई दिखती है कि ईसाई मिशनरियाँ अपने सेवा कार्यों की आड़ में धर्मान्तरण का व्यवसाय चला रही हैं. इससे पहले पूर्वोत्तर क्षेत्रों में भी ऐसे अनेक प्रसंग सुनने में आये हैं जब  शिवलिंग और लकड़ी के क्रास की तुलना कर चालाकी पूर्वक शिवलिंग को पानी में डुबोकर और क्रास को तैराकर वनवासियों को ईसा की शक्ति का झूठा अहसास कराया गया है. इसी प्रकार चंगाई सभा में अपने ही आदमी के हाथ में फेविकोल लगाकर उसे कुष्ठ रोगी के रूप में चित्रित कर ईसा के नाम पर हजारों की भीड़ में उसे स्वस्थ करने के छलपूर्ण दावे भी मिशनरी दाँव पेंच का हिस्सा हैं.           मिशनरियों के इस दाँवपेंच के बीच एक प्रमुख सवाल यह उभरता है कि क्या अच्छी पढ़ाई के लालच में अपने बच्चों को कान्वेन्ट स्कूलों में भेजने वाले अभिभावकों को शिक्षा के साथ संस्कृति और धर्म के अन्तरण के लिये भी तैयार रहना चाहिये. कुछ भी हो इस पूरे प्रकरण से इतना तो साफ है कि कैथोलिक संस्थाओं की नीयत साफ नहीं है और सफेद चोंगे के पीछे छुपकर बड़ी सरलता और मधुरता से बातें करने वाले फादर वास्तव में कहीं पर निगाहें कहीं पर निशाना की तर्ज पर काम कर रहे हैं.

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