हिंदू जागरण

हिंदू चेतना का स्वर

चुनौतियाँ

Posted by amitabhtri पर दिसम्बर 22, 2006

विभिन्न कारणों से पिछले कुछ दिनों में देश के कुछ भागों में प्रवास का अवसर मिला. इन क्षेत्रों में अलग भौगोलिक और सांस्कृतिक स्थितियों के कारण भिन्न भिन्न अनुभव आये परन्तु एक विषय ने मुझे राष्ट्र की वर्तमान चुनोतियों के सम्बन्ध में सोचने की नई दृष्टि दी और वह विषय है देश पर हो रहा सांस्कृतिक आक्रमण तथा देश के नीति निर्धारकों और आम जनता की सोच में बढ़ता फासला. 

  देश के अनेक क्षेत्र फिर वह उत्तर प्रदेश हो पंजाब हो या फिर हरियाणा हो सभी क्षेत्रों में जनता की समस्यायें, आंचलिक संस्कृति सदियों की परम्पराओं के अनुकूल हैं परन्तु उनके प्रति नीति निर्धारकों की दृष्टि में परिवर्तन आ गया है. वैश्वीकरण से संचालित प्रवृत्तियों के प्रभाव में आकर नीति निर्धारक सभी समस्याओं का समाधान पश्चिमी साँचे में देख रहे हैं. वैश्वीकरण की विभिन्न प्रवृत्तियों को आँख मूदकर अपनाने और उसे जनता पर थोपने की नई जिज्ञासा ने एक ऐसे चिन्तन का मार्ग प्रशस्त कर दिया है जिसमें सामाजिक असन्तोष के बीज निहित हैं. 

   वास्तव में वैश्वीकरण को एक खुली आर्थिक व्यवस्था या कुछ अर्थों में पूँजीवाद तक सीमित रखना एक भारी भूल है, यह एक व्यापक अवधारणा है जो जीवन के प्रत्येक क्षेत्र को प्रभावित करती है. वास्तव में तो यह सेमेटिक दर्शन का ही निचोड़ है जो हमारी सनातन परम्परा के एकदम विपरीत है. यह दर्शन इन्द्रियों के सुख को जीवन का अन्तिम लक्ष्य मानता है और मुनाफे को मोक्ष तथा सनसनीखेज ऐन्द्रिक अनुभव व रोमांच प्राप्त करने के विभिन्न उपायों की खोज में तल्लीन रहता है. यदि इस सूत्र के आधार पर हम आज की प्रवृत्तियों की व्याख्या करें तो हमें पता चलेगा कि जिसे हम समाज का विकास या समय का बदलना मान बैठे हैं वह वास्तव में एक दार्शनिक स्तर पर ही परिवर्तन का आरम्भ है. 

     इस प्रवृत्ति को समाज के लिये खतरा मानने की पीछे मेरी अपनी ही सोच नहीं है. वैश्वीकरण की प्रवृत्ति केन्द्रीकरण, अस्तित्व के लिये संघर्ष में शक्तिशाली की विजय , नैतिकता के स्थान पर सफलता व लाभ की कार्ययोजना पर चलती है. अब भारत की परिस्थितियाँ देखें. भारत जैसा विविधतावादी समाज सांस्कृतिक, सामाजिक, आर्थिक आधार पर एकरूपीकरण को मान्यता नहीं दे सकता, क्योंकि दार्शनिक और आध्यात्मिक स्तर पर एक समान सोच रखने के बाद लोगों के प्रकटीकरण के मार्ग भिन्न हैं, इसी प्रकार जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में भी इसी परम्परा का पालन होता है. 

   अब भारत को एकरूपीकरण में ढालने का प्रयास हो रहा है. इसका परिणाम सामाजिक असन्तोष के रूप में सामने आना स्वाभाविक है. इसके बाद दूसरा सबसे बड़ा खतरा भौतिकवाद को मोक्ष मान लेना है. भोग की अतिशयता उसे तीव्र करती है और फिर नैतिकता अनैतिकता का भेद समाप्त होकर लाभ व ऐन्द्रिक सुख परम लक्ष्य बन जाता है. ऐसे में यदि रिटेल सेक्टर में बड़े उद्योग समूहों को लाने के लिये सीलिंग के बहाने छोटे उद्योगों को बिना विकल्प दिये  समाप्त किया जाये या फिर राष्ट्रमण्डल खेलों के अनुकूल दिल्ली को बनाने के लिये झुग्गियाँ गिराई जायें ये सब मान्य हैं क्योंकि अस्तित्व के लिये संघर्ष में शक्तिशाली की विजय का सिद्धान्त ही दर्शन है. अब जब लाभ और ऐन्द्रिक सुख ही परम लक्ष्य होगा तो पुत्री वेश्यावृत्ति में लिप्त होकर अथोपार्जन करती है तो उसे अनैतिक क्यों माना जाये जब नैतिकता का सिद्धान्त इस दर्शन में है ही नहीं. यहाँ तो मोक्ष लाभ है. ऐन्द्रिक या स्नावयिक सुख को प्राप्त करने के लिये संयम के स्थान पर कन्डोम को प्राथमिकता दी जायेगी और एड्स का हौव्वा खड़ाकर किशोरों को भी यौन स्वेच्छारिता में लिप्त किया जाना क्योकर बुरा माना जाये. 

    आज मीडिया में या मनोरंजन जगत में आई यौनसुख की महत्ता और उसे वयस्क मनोरंजन के नाम पर स्थापित करने की प्रवृत्ति के निहितार्थ को समझना आवश्यक है. वास्तव में मन की प्रवृत्ति तो चंचल होती है जो विरोधी भावों की ओर ही अधिक भागता है इसीलिये महर्षि पतंजलि ने योग की अपनी व्याख्या में प्रवृत्तियों के शमन की नहीं वरन् उनके रूपान्तरण की बात की है अर्थात काम क्रोध मद लोभ की भावना के तीव्र होने पर उसके विपरीत भाव का चिन्तन करें अब जरा सोचिये जिस युग में व्यक्ति के जन्म लेते ही उसे सर्वत्र यौनसुख या कामुकता का वातावरण मिलेगा तो ऐसे में उसका चिन्तन भी कामपरक होगा.      यही नहीं वैश्वीकरण की इन प्रवृत्तियों को स्थापित करने के लिये झूठ और प्रचार का सहारा लिया जा रहा है. झूठे शोध और अन्यान्य प्रकार से यौनसुख या फिर आर्थिक केन्द्रीकरण को सही सिद्ध किया जा रहा है. इस वातावरण का भारत पर बड़ा दुष्परिणाम होने वाला है. आर्थिक कारणों से देश में सामाजिक असन्तोष बढ़ सकता है और सामाजिक विरोध को प्रकट करने वाले गुट नक्सलियों जैसे रास्तों की ओर आकर्षित हो सकते हैं, इसी प्रकार नैतिक पतन भारतीय युवा पीढ़ी को विलासी और कामुक बनाकर भारतीय मानव संसाधन को बर्बाद कर सकता है.  

   अनेक अवसरों पर हमने देखा है कि पश्चिमी विज्ञान अभी हमारी प्राचीन अवधारणाओं के निकट भी नहीं पहुँच सका है और इसका नवीनतम उदाहरण हैं बाबा रामदेव जी जिन्होंने अनेक पश्चिमी अवधारणाओं को खण्डित कर योग पद्धति से स्नायुतन्त्र से लेकर शरीर के सूक्ष्म अवयवों के निदान का मार्ग प्रशस्त किया. इसी प्रकार मेधा शक्ति के निर्माण में वीर्य रक्षण की भूमिका को भी पश्चिमी चिकित्सा विज्ञानी अभी समझ नहीं सके हैं क्योंकि उनका शोध शरीर के स्थूल तत्वों रक्त, मज्जा तक ही सीमित है और सूक्ष्म तत्वों की ओर वे अभी प्रवृत्त ही नहीं हो सके हैं. ऐसे में सर्वत्र यौनसुख की चर्चा या स्त्री अंग उपागों का प्रदर्शन उनके लिये अश्लीलता नहीं वरन् उनकी जीवन शैली का अंग है और हमें इसे इसी रूप में समझना चाहिये और इसकी समग्रता में जाकर निर्णय करना चाहिये कि हम वैश्वीकरण की इस आँधी  को सहज परिवर्तन मानकर हाथ पर हाथ रखकर बैठे रहते हैं या फिर अपने स्तर से इसका विरोध करते हैं. विरोध का अर्थ इसे स्वीकृति न देना है और अपने परिवारों में संयम की संस्कृति को प्रमुखता देनी है . अपने संस्कारों पर गौरव का भाव रखकर उसके अनुरूप ही देश की नीतियों को बनाने का प्रयास होना चाहिये.

One Response to “चुनौतियाँ”

  1. vishal said

    आपका लेख विचारपरक है, संस्कृति और लोकाचार परिवर्तनशील वस्तुएं हैं, मुल्य ज्यादा व्यापक हैं परन्तु शाश्वत नहीं। संस्कृति के नाम पर परिवर्तन से विलग हो जाना उचित नहीं है, लेकिन परिवर्तन बेहतरी के लिए होना चाहिए, ना कि विवेकहीन नकल के लिए। दुर्भाग्य से हमारी सरकार की नीतियों के साथ-साथ समाज और बुद्धिजीवी वर्ग भी भौतिकवाद, भोगवाद और उपभोक्तावाद पर निर्भर होने लगा है। पश्चिम का दर्शन जहॉ अस्तित्व के लिए संघर्ष और बलशाली की जीत पर केन्द्रित है, हमारी परम्परायें पारस्परिक साहचर्य और संतुलन की शिक्षा देती हैं। हमें आध्यातमिक और भौतिक दृष्तिकोणों में संतुलन अपनाना होगा, मोक्ष के अलावा धर्म, अर्थ और काम भी महत्वपूर्ण हैं। दूसरी सभ्यताओं की अच्छाईयों को आत्मसात करने में कोई हिचक भी नहीं होनी चाहिए, वैश्विकरण को अपने मुल्यों के लिए खतरा न समझकर एक अवसर के रुप में लेना चाहिए, जिससे पुरी दुनिया एक दूसरे से लाभान्वित हो सके।

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