हमारे तीर्थ
Posted by amitabhtri पर जनवरी 5, 2007
यदि हमसे कोई कहे कि हिन्दू होने के नाते आप अपनी किस बात पर गर्व कर सकते हैं तो शायद आज की हमारी पीढ़ी कुछ किताबी बातों के रटे-रटाये उत्तर दे देगी, यह बात मैं अपने पिछले लेख के क्रम में ही कह रहा हूँ. पिछले लेख में मैंने वैश्वीकरण में अन्तर्निहित बाजारवादी शक्ति के कथित दुष्प्रभावों का वर्णन किया था. वैश्वीकरण की इस बाजारवादी सोच का सीधा परिणाम किस प्रकार हमारी सांस्कृतिक सोच पर पड़ रहा है इसका प्रत्यक्ष उदाहरण मैंने प्रयाग में अर्धकुम्भ में स्नान करते हुये सिसकती माँ गंगा के स्वरों में अनुभव किया. स्नान करते हुये प्रदूषित होती गंगा माँ को देखकर मुझे दुख भी हो रहा था और लज्जा भी आ रही थी.
आज यदि हमसे पूछा जाये कि हिन्दू संस्कृति में विलक्षण क्या है तो हमारा उत्तर होगा गंगा, गो, गीता और गायत्री हमें अपनी पहचान देती हैं, परन्तु इन सबकी रक्षा करने में हमारा योगदान कितना है. गंगा को प्रदूषित करने का कार्य कौन कर रहा है. कानपुर और आस-पास की टेनरीज. इस विषय को लेकर हिन्दुओं की जागरूकता देखने लायक है. सदियों से भारत की सांस्कृतिक एकता का प्रतीक रहा कुम्भ मेला कल को प्रदूषित हो रही गंगा के कारण समाप्त हो जायेगा उसी प्रकार जैसे कृष्ण की यमुना आज नाला बनकर रह गयी है या फिर उनकी लीलाभूमि ब्रज पत्थरों के लालची माफियाओं की भेंट चढ़ चुकी है. यह बताने की आवश्यकता नहीं कि जो जाति या समाज अपने इतिहास या महापुरूषों की रक्षा नहीं कर पाता वह अपनी पहचान भी खो देता है.
यह कोई पहला अवसर नहीं है जब हिन्दू तीर्थस्थानों को नष्ट करने के षड़यन्त्र होते रहे हैं और हिन्दू समाज आधुनिकता के नाम पर वाराणसी के शहर की गन्दगी गंगा में आने पर, कानपुर की गंदगी प्रयाग में आने पर, टिहरी पर बाँध बनाकर भागीरथी का प्रवाह रोकने पर मूक दर्शक बना तालियाँ पीटता रहा है. प्रयाग में गंगा माँ के साथ हो रहे अन्याय पर मेरी समझ में एक ही बात आ रही थी कि गंगा को प्रदूषित करना हो, उसके प्रवाह को अवरूद्ध करना हो यह सब शासकों की अश्रद्धा का परिणाम है. आज ताजमहल के आस-पास के पर्यावरण को लेकर सर्वोच्च न्यायालय से सरकारों की सक्रियता प्रश्न खड़ा करती है कि यह सक्रियता गंगा के सम्बन्ध में क्यों नहीं. यदि दिल्ली में राष्ट्रमण्डल खेलों के लिए आधारभूत ढाँचा खड़ा करने के लिये झुग्गियाँ और दुकानें हटायी जा सकती हैं तो गंगा माँ को प्रदूषित करने वाली फैक्ट्रियों को बन्द क्यों नहीं किया जा सकता. शायद इसलिये कि गंगा से शासकों को आर्थिक लाभ नहीं है या फिर उससे कोई मुगलकालीन प्रेम कथा नहीं जुड़ी है.
वैसे शासकों की मानसिकता तो समझी जा सकती है परन्तु अपने तीर्थों को लेकर हिन्दुओं की उदासीनता समझ से परे है. आज समस्त विश्व के हिन्दुओं को अदृश्य होकर भी सशक्त भाव से जोड़ने का कोई माध्यम हैं तो वे हमारे तीर्थ स्थल और मन्दिर है. जरा कल्पना करिये कि जब हिन्दुओं पर मुगल आततायियों का शासन था और हिन्दुओं को हिन्दू होने का जुर्माना भरना पड़ता था ऐसे विपरीत समय में भी हमारे पूर्वजों ने कुम्भ को सांस्कृतिक एकता का बड़ा माध्यम बनाये रखा, परन्तु आज जब हम स्वतन्त्र हैं तो उन्हीं सांस्कृतिक प्रतीकों को क्षरित होते देखकर भी तनिक व्यथित नहीं हैं. तीर्थ स्थानों के साथ भेदभाव, मन्दिरों को कुशल संचालन के नाम पर सरकार द्वारा अपने हाथों में लेकर उसकी राशि का उपयोग मस्जिदों, चर्चों और हज के लिये करने पर इसके भयानक दूरगामी परिणामों से हिन्दू बेपरवाह होकर ताल ठोंककर आयातित संस्कृति के स्वागत में तल्लीन हैं. यदि हमारे तीर्थ नहीं रहेंगे तो विशिष्ट सांस्कृतिक एकता भी नहीं रहेगी, हमारा विशिष्ट जीवन मूल्य नहीं रहेगा तो हमारी पहचान नहीं रहेगी और यदि हमारी परिभाषा, भाषा, संस्कार नहीं रहेगा तो विश्व में मानवता और विविधता नहीं रहेगी.
आज हिन्दुओं की सांस्कृतिक संवेदनहीनता का सबसे बड़ा कारण सेक्यूलरिज्म का एनेस्थीसिया है. हिन्दू समाज इसी सेक्यूलरिज्म के कारण सुन्न हो गया है और अब चाहे तीर्थ स्थल नष्ट हो , मन्दिर नष्ट हो या फिर पूरा हिन्दू धर्म ही चूल्हे में जाये उसे क्या फर्क पड़ता है उसे तो भौतिकतावाद के आगोश में पशुवत जीवन व्यतीत करना है जहाँ नौकरी, पत्नी, बच्चे, दो-तीन कमरे का फ्लैट, किश्त की चार पहिया की गाड़ी, टी.वी, फ्रिज, ए.सी और अन्य भौतिक सामानों के साथ सबेरे जलपान के समय घर के लान में बैठकर चाय की चुश्कियाँ लेते हुये व्यवस्था, समाज, धर्म और संस्कृति को कोसने का परम कर्तव्य निभाना है.
मैं गाँव के उन भोले-भाले अशिक्षित और अन्धविश्वासी भाइयों को इन तथाकथित आधुनिक शिक्षितों से श्रेष्ठ मानता हूँ जो अपने पूर्वजों की परम्पराओं पर अन्धश्रद्धा रखते हुये सांस्कृतिक और सामाजिक अनुशासन का पालन करते हुये हर वृक्ष और नदी को पूजा योग्य मानकर उसका संरक्षण करते हैं. अपनी अन्धश्रद्धा में ही वे प्रकृति और संस्कृति का कितना भला करते हैं.
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