तसलीमा पर खतरा
Posted by amitabhtri पर नवम्बर 24, 2007
इन दिनों पश्चिम बंगाल राज्य चर्चा में है। पश्चिमम बंगाल का नाम स्मृति में आते ही नन्दीग्राम में कम्युनिस्ट बर्बरता के दृश्य सजीव हो उठते हैं, परन्तु हम यहाँ पश्चिम बंगाल को नन्दीग्राम के कारण नहीं वरन् दूसरे कारण से चर्चा में ला रहे हैं। हमारी चर्चा का केन्द्र बांग्लादेश की निर्वासित और विवादित लेखिका तसलीमा नसरीन हैं। जिन दिनों पश्चिम बंगाल में नन्दीग्राम को लेकर विरोध प्रदर्शनों का दौर चल रहा था उसी समय अचानक कोलकाता तसलीमा प्रकरण पर हिंसा का शिकार हो गया। बंगाल की राजधानी में तसलीमा की वीजा अवधि बढ़ाने का विरोध करने के लिये मुस्लिम कट्टरपंथी सड़कों पर उतरे और मामला हिंसक हो गया। अल्प अवधि के लिये कुछ क्षेत्र में कर्फ्यू भी लगाना पड़ा। तसलीमा के प्रकरण पर हुई इस हिंसा के भी अपने सन्दर्भ हैं। इस हिंसा का नन्दीग्राम की हिंसा या वहाँ की स्थिति से कोई लेना देना नहीं है परन्तु एक बात स्पष्ट है कि जब अराजकता की स्थिति निर्माण होती है तो कानून व्यवस्था एक निजी विषय बन जाता है और अनेक छोटे गुट समाज में अपनी अभिव्यक्ति के लिये हिंसा का सहारा लेने लगते हैं। वैसे अचानक तसलीमा प्रकरण प्रासंगिक हो जाने से एक प्रश्न सहज ही मन में कौंधता है कि कहीं यह नन्दीग्राम की ओर से ध्यान हटाने का यह प्रयास तो नहीं है। ऐसा प्रश्न इसलिये भी उठता है कि तसलीमा प्रकरण पर विरोध प्रदर्शन का आयोजन करने वाले सज्जन मोहम्मद इदरीस सभी विषयो पर बंगाल सरकार के विरूद्ध विरोध प्रदर्शन आयोजित करने से नहीं चूकते। इनका विरोध प्रदर्शन कोई नई बात नहीं है और राज्य की पुलिस भी मानती है कि विरोध प्रदर्शन कई घण्टों तक शान्तिपूर्वक ही चलता रहा हिंसा का पुट उसमें बाद में समाहित हुआ। इस अचानक हिंसा से ही प्रश्न उठता है कि कहीं यह सुनियोजित है या फिर अराजकता के चलते भीड़ का मनोविज्ञान।
वैसे इसके परे भी तसलीमा का पूरा विषय अपने आप में एक गम्भीर विषय है। तसलीमा को लेकर मुस्लिम कट्टरपंथियो का विरोध हमारे समक्ष सलमान रशदी की याद ताजा कर देता है। जिस प्रकार अस्सी के दशक में सेटेनिक वर्सेज पुस्तक लिखने के कारण रशदी के विरूद्ध ईरान के सर्वोच्च धार्मिक नेता अयातोल्ला खोमैनी ने मौत का फतवा जारी किया था और वह फतवा वापस लिये जाने के बाद भी रशदी पर खतरा कम नहीं हुआ। रशदी ने पश्चिम के अनेक देशों में शरण ली परन्तु फतवा ने उनका पीछा नहीं छोडा और बाद में खौमैनी के फतवा वापस लेने पर अनेक स्वतन्त्र लोगों ने भी रशदी का पीछा किया। इसी प्रकार तसलीमा के विरूद्ध बांग्लादेश के कट्टरपंथियों द्वारा फतवा जारी किये जाने के बाद भारत में भी मुसलमान उन्हें इस्लाम का शत्रु मान रहा है। इससे एक बात स्पष्ट होती है कि मुसलमान इस्लाम, कुरान और पैगम्बर पर किसी प्रकार की भी टिप्पणी सुनने को तैयार नहीं है।
भारत के सन्दर्भ में तसलीमा का विषय सेकुलरिज्म की परीक्षा है। देखना है कि सेकुलरिस्ट इस्लामी कट्टरपंथियों के आगे झुकते हैं या फिर तसलीमा को भारतीय नागरिकता का समर्थन कर वास्तव में सेकुलरिज्म की परिभाषा का अनुपालन करते हैं।
एक उत्तर दें