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उलेमा सम्मेलन के निहितार्थ

Posted by amitabhtri पर फ़रवरी 27, 2008

उत्तर प्रदेश के सहारनपुर स्थित प्रसिद्ध इस्लामी संस्थान दारूल उलूम देवबन्द ने एक अनोखी पहल करते हुए देश भर के विभिन्न इस्लामी संगठनों को एक मंच पर आमंत्रित कर आतंकवाद के सम्बन्ध में अत्यंत मह्त्वपूर्ण प्रस्ताव पारित किये। वैसे तो यह सम्मेलन देश के प्रमुख इस्लामी संगठनों का था परंतु अंत में यह पूरा अभियान और कार्यक्रम देवबन्द और जमाएत उलेमा हिन्द का बनकर रह गया। इस पूरे अभियान की चतुर्दिक चर्चा हुई और इस अभियान को एक अनोखी पहल करार दिया गया। इस सम्मेलन में मीडया को भी आमंत्रित किया गया और मीडिया प्रतिनिधियों के सामने प्रस्ताव पढ.कर सुनाये गये और पारदर्शिता का पूरा ध्यान रखा गया परंतु जो प्रश्न सर्वाधिक मह्त्व का है वह यह कि इस सम्मेलन के निहितार्थ क्या थे और इस सम्मेलन का दूरगामी प्रभाव क्या होने वाला है।

 इस सम्मेलन के प्रस्तावों के अनुसार आतंकवाद की हर प्रकार से निन्दा की गयी और मीडिया और सरकारी एजेसियों की इस बात के लिये आलोचना की गयी कि आतंकवाद के नाम पर मुसलमानों को निशाना बनाया जा रहा है। इस सम्मेलन में आतंकवाद को लेकर आग्रह किया कि आतंकवादी घटनाओं को भी अन्य आतंकवादी घटनाओं के क्रम ही लिया जाये और नक्सली आतंकवाद की भांति इसे भी लिया जाये। सम्मेलन में मदरसों को क्लीन चिट दिया गया और सरकार और पुलिस बल को इस मामले में कटघरे में खडा किया गया कि मदरसों को नाहक परेशान किया जाता है और किसी भी आतंकी घटना के बाद मदरसों में अध्ययनरत विद्यार्थियों को सन्दिग्ध मानकर उन्हें परेशान किया जाता है। सम्मेलन में मदरसों से आग्रह किया गया कि वे अपनी व्यवस्था को और अधिक पारदर्शी बनाने का प्रयास करें विशेष रूप से आर्थिक सम्बन्ध में।

 

ऊपर से देखने में तो यह पहल अत्यंत सकारात्मक लगती है परंतु इस सम्मेलन में पारित प्रस्तावों से परे और भी अनेक प्रश्न हैं जिनका उत्तर इस सम्मेलन से भी नही मिला है। सम्मेलन में जहाँ अत्यंत जोर शोर से आतंकवाद की निन्दा की गयी वहीं आतंकवादियों के सम्बन्ध में कुछ भी नहीं कहा गया। आखिर सम्मेलन में इस विषय पर चर्चा तो होनी ही चहिये थी कि जो आतंकवादी इस्लाम का नाम लेकर आत्मघाती हमले कर रहे हैं या विश्व के अनेक हिस्सों में आतंकवादी घटनाओं में लिप्त हैं उनके प्रति इन संगठनों का नजरिया क्या हैं। यदि आतंकवादी इस्लाम की गलत व्याख्या कर रहे हैं या भटके हुए मुसलमान हैं तो उनके प्रति इस्लामी धर्मगुरूओं का रुख क्या है यह तो स्पष्ट होना ही चहिये परंतु इस विषय पर कोई स्पष्ट नीति की घोषणा करने के स्थान पर इस सम्मेलन पर इस सम्बन्ध में कोई चर्चा ही नहीं हुई कि इस्लाम के नाम पर आतंकवाद फैलाने वालों के सम्बन्ध में इस्लाम का क्या रूख हो इसके स्थान पर इस्लामी धर्मगुरूओं ने एकदम नया कदम उठाते हुए घोषणा की वे हर प्रकार के आतंकवाद की निन्दा करते हैं और आतंकवाद फैलाने वालों को आपराधिक तत्व भर माना जाये। अब प्रमुख सवाल यह उठता है कि अन्य सामान्य अपराध और इस्लाम के नाम पर फैलाये जा रहे आतंकवाद को एक ही श्रेणी में कैसे रखा जा सकता है। सामान्य अपराध के पीछे प्रेरणा कुछ और होती है और इस्लाम के नाम पर की जाने वाली आतंकवादी घटनाओं के पीछे की प्रेरणा कुछ और ही होती है। इसलिये यह आवश्यक था कि इस सम्मेलन में पूरे देश से जुटे मौलाना और मौलवी आतंकवादियों के सम्बन्ध में भी अपनी स्थिति स्पष्ट करते।

 

क्योंकि यह अत्यंत आवश्यक है कि इस्लामी आतंकवाद के सम्बन्ध में खुलकर बहस हो तथा इस्लामी धर्मगुरू इस सम्बन्ध में अपनी जिम्मेदारी से बच नहीं सकते। समस्त विश्व में आज एक वर्ग इस्लाम की दुहाई देकर खून खराबा फैला रहा है और स्वयं को इस्लाम का मसीहा बनाकर प्रस्तुत कर रहा है। आये दिन हमें विभिन्न आतंकवादी संगठनों के आडियो या वीडियो टेप सुनने को मिलते हैं जब उनमें इस्लाम और पैगम्बर की दुहाई देकर जेहाद की बातें की जाती हैं। इसलिये अच्छा होता कि इस सम्मेलन में इन मुद्दों पर भी इस्लामी धर्मगुरू अपनी राय स्पष्ट करते।

 

इस सम्मेलन का इस कारण भी अत्यंत महत्व है कि दारूल उलूम देवबन्द इस्लाम की ऐसी विचारधारा का प्रतिनिधित्व करती है जिससे प्रेरणा प्राप्त कर तालिबान और जैशमोहम्मद ने इस्लामी आन्दोलन को नयी दिशा दी। ऐसे में क्या इस संस्थान का दायित्व नहीं बनता कि वह इस सम्बन्ध में अपनी स्थिति स्पष्ट करे। तालिबान ने अफगानिस्तान में जिस प्रकार का शासन चलाया था और जैश जो भी भारत में कर रहा है यदि उससे देवबन्द की असहमति है तो इन संगठनों के सम्बन्ध में भी इन इस्लामी संगठनों का कोई न कोई विचार होना चाहिये।

 

इन विषयों पर चर्चा इस लिये भी आवश्यक है कि दारूल उलूम देवबन्द ने अपनी वेबसाइट www.darooluloom-deoband.com पर आतंकवाद के सम्बन्ध में विस्तार से चर्चा की है और आतंकवाद के सम्बन्ध में अपना रूख स्पष्ट करते हुए कहा है कि आतंकवाद की एक परिभाषा निर्धारित होनी चहिये जिसमें राज्य प्रायोजित आतंकवाद और सामान्य ,हिस्सों में वमबर्षा, इजराइल का फिलीस्तीन का दमन रूस और चीन के कुछ हिस्सों में आतंकवाद के नाम पर दमनकारी गतिविधियों की प्रतिक्रिया स्वरूप जो कुछ भी हो रहा है उसे इस इस्लामी धार्मिक संगठन ने आतंकवाद की श्रेणी में मानने से इंकार कर दिया है। अब प्रश्न उठता है कि यह परिभाषा उन इस्लामवादी आतंकवादी संगठनों के अनुकूल बैठती है जो आतंकवादी घटनाओं को मुसलमानों पर हो रहे अत्याचार की प्रतिक्रिया के सन्दर्भ में सही ठहराते हैं । यह वह बिन्दु है जो इस इस्लामी संगठन और इस्लाम के नाम पर आतंकवाद फैलाने वालों की विचारधारा में साम्य स्थापित करता है।

 

समस्त विश्व में इस्लाम के नाम पर चलाये जा रहे आतंकवाद को सामान्य आपराधिक घटनायॆं मानना भारी भूल होगी क्योंकि यदि गौर से देखा जाये तो इन गतिविधियों में गरीब, अनपढ.मुसलमान ही शामिल नहीं हो रहा है और इस गतिविधि में पढ. लिखे बडी जगहों पर नौकरी करने वाले भी शामिल हो रहे हैं और इन सभी को विश्व के मुसलानों पर हो रहे अत्याचार की धारणा विशेष रूप से आकर्षित कर रही है और यह वर्ग इस्लाम को आधुनिक समस्याओं के विकल्प के रूप में देखता है। उसकी नजर में वर्तमान विश्व की सभी समस्याओं का निदान इस्लाम में निहित है। एक बार पूरी दुनिया इस्लाम की नसीहतों पर अमल करने लगे तो सर्वत्र उजाला ही उजाला होगा। इस्लाम के नाम पर चल रहा आतंकवाद इस्लाम की इसी विचारधारा का एक आक्रामक स्वरूप मात्र है। इसी कारण इस समस्या को समग्रता में देखने की आवश्यकता है। यही कारण ह कि दारूल उलूम देवबन्द की इस कसरत पर भरोसा करना इतना सरल नहीं है। वैसे यह कोई पहला अवसर नहीं है जब मुस्लिम संगठनों ने आतंकवाद के सम्बन्ध में सम्मेलन आयोजित कर उसकी भर्त्सना करने का प्रयास किया है। इससे पूर्व 2006 में जुलाई के महीने में जब मुम्बई में लोकल ट्रेन को निशाना बनाया गया था और 200 से भी अधिक लोग आतंकवाद की भेंट चढे थे तो भी जमाएत उलेमा हिन्द ने संसद एनेक्सी में इसी प्रकार का एक सम्मेलन अगस्त 2006 में आयोजित किया था और उस सम्मेलन में सरकार और मीडिया से अनुरोध किया गया था कि वे आतंकवाद के नाम पर मुसलमानों को घेरने की आदत से बाज आयें। न केवल इतना वरन मीडिया को इजराइल और अमेरिका का पिट्ठू तक घोषित कर दिया गया।

दारूल उलूम देवबन्द ने भी अपनी वेबसाइट पर मीडिया को इजराइलवादी और अमेरिकापरस्त बताया है जो आतंकवाद के नाम पर मुसलमानों और इस्लाम को घेर रहे हैं। निश्चित रूप से इसे समस्या का समाधान करने की दिशा में ईमानदार प्रयास मानने के स्थान पर प्रोपेगेण्डा ही अधिक माना जा सकता है। आज आवश्यकता ईमानदार पहल की है जहाँ इस्लाम के नाम पर चल रही आतंकवादी घटनाओं के मूल में जाकर उसका समाधान किया जा सके और वह समधान तभी निकल सकता है जब इस्लामी धर्मगुरू इस विषय को लेकर ईमानदार हों। इस प्रकार अधिवेशन कर सरकार के माध्यम से पुलिस बल और खुफिया एजेसियों का मनोबल कम करने का प्रयास करना उसी इस्लामी सोच का परिचायक है जहाँ मुस्लिम नेता स्वयं को देश के कानून और संविधान में पूरी आस्था वाला बताते नहीं थकते परंतु जब मुस्लिम पर्सनल ला के मुकाबले देश के कानून या संविधान ने पालन की बात आती है तो सडकों पर उतरकर उसे बदलवाने को विवश करते हैं। यही मानसिकता समस्त विश्व में मुसलमानों को अलग थलग करती है और इसी से उनके गोपनीय और छिपे हुए एजेण्डे का शक भी होता है। इस्लाम के नाम पर चल रहे आतंकवाद की समस्या को तब तक हल नहीं किया जा सकता जब तक इन विषयों पर इस्लामी धर्मगुरू आधुनिक और लोकतांत्रिक रूख नहीं अपनाते।

 ऐसे सम्मेलनों की सार्थकता और नीयति पर प्रश्न तब तक उठ्ते रहेंगे जब तक इस्लामी धर्मगुरू आतंकवाद की मूल भावना या उसकी प्रेरणा पर खुलकर चर्चा नहीं करते। आखिर उन तत्वों का क्या जो पैगम्बर के नाम पर आतंकवादी संगठन बनाते हैं और अपनी प्रेरणा का स्रोत कुरान और पैगम्बर को बताते हैं। या तो उन्हें काफिर घोषित कर उन्हें इस्लाम से बहिष्करित किया जाये या फिर जिहाद या अन्य शब्दावलियों को सही सन्दर्भ में व्याखायित किया जाये। जो कि इस सम्मेलन में नहीं हुआ। सम्मेलन से तो यही निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि यह इस्लाम धर्म की छवि सुधारने का एक प्रयान भर है जिसके पीछे असली उद्देश्य इस्लामी आतंकवाद की इस पूरी बहस को और भ्रमित करना है।

One Response to “उलेमा सम्मेलन के निहितार्थ”

  1. rehan said

    i want to say

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