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Archive for मार्च, 2008

तिब्बत और फिलीस्तीन

Posted by amitabhtri on मार्च 26, 2008

इन दिनों तिब्बत चर्चा में है। वैसे तो इसके पीछे जो कारण है उसे लेकर तो तिब्बती भी प्रसन्न नहीं होंगे पर दशकों उपरांत ऐसा अवसर जरूर आया है जब तिब्बत का विषय एकदम से वैश्विक मह्त्व का हो गया। हम यहाँ इस विषय पर चर्चा नहीं करना चाह्ते कि तिब्बत के इस विषय के मह्त्वपूर्ण होने के पीछे प्रमुख कारण क्या है वरन हम एक समानता की ओर पाठकों का ध्यान आकर्षित करना चाह्ते हैं जो न केवल रोचक है वरन उसके गम्भीर राजनीतिक निहितार्थ भी हैं। साथ ही यह विषय कहीं न कहीं जाकर उन नारों से भी जुड्ता है जिसे विभिन्न संगठन या राजनीतिक दल समयसमय पर अपनी सुविधा के अनुसार गला फाड्फाड् कर लगाते हैं। ऐसा ही एक नारा मानवाधिकार का है जो विश्व भर  के वामपंथियों का सबसे प्रिय विषय है।

यह वामपंथियों के हाथ में वह छडी है जिससे वे जब चाहे जिसे चाहे मारते रह्ते हैं। इस नारे रूपी छडी का सर्वाधिक उपयोग इन वामपंथियों ने सबसे अधिक इजरायल या फिर हिन्दूवादी शक्तियों के लिये किया है। परंतु तिब्बत में जो कुछ भी हो रहा है उसे लेकर उनका जो भी रूख है वह उनके बौद्धिक आडम्बर को अनावृत करने के लिये पर्याप्त है।  तिब्बत में चीन का दमन इन छद्म बुद्धिजीवियों को मानवाधिकार का हनन नहीं चीन का आंतरिक मामला लगता है तो फिर यह सिद्धांत इजरायल पर लागू क्यों नहीं होता। या फिर गोधरा की प्रतिक्रिया में गुजरात में हुए साम्प्रदायिक दंगों को लेकर जब विभिन्न वामपंथी संगठन गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी को विश्व के विभिन्न मंचों पर बदनाम कर रहे थे और अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं से दखल देने की मांग कर रहे थे तो इनका आंतरिक मामले का सिद्धांत कहाँ चला गया था। यह एक ऐसा प्रश्न है जिसका उत्तर खोजने का प्रयास हम अपने लेख में कर रहे हैं। 

 तिब्बत और फिलीस्तीन में किस मामले में समानता है तो वो यह कि फिलीस्तीन भी दावा करता है कि वह अपनी स्वाधीनता की लडाई लड रहा है। लेकिन क्या तिब्बत को विश्व मंच पर वह स्थान कभी मिल सका या उसकी आवाज कभी सुनी गयी। आखिर क्यों नहीं। ऐसा क्यों हुआ जबकि तिब्बत वास्तव में 14,000 पुराना एक राष्ट्र है जिसकी अपनी संस्कृति और अपना धर्म है। जब कि इस मुकाबले फिलीस्तीन की तुलना करें तो वह इन सन्दर्भों में कभी राष्ट्र नहीं रहा। वह बीसवीं शताब्दी के लम्बे समय तक इजरायल का ही हिस्सा था और फिलीस्तीनियों को फिलीस्तीनी यहूदी कहा जाता था। फिलीस्तीनियों का इस्लाम से पृथक ऐसा कोई धर्म भी नहीं था जैसा कि तिब्बत के मामले में है। फिर भी समस्त विश्व में फिलीस्तीन की छवि एक ऐसे देश के निवासियों के रूप में है जिन्हें अपने देश से निकाल दिया गया है और उनके देश पर आक्रांता इजरायल ने कब्जा कर रखा है।

इस सहानुभुति का कारण क्या है। इसके कुछ कारण मोटे तौर पर ये नजर आते हैं फिलीस्तीन ने अपनी लडाई के लिये आतंकवाद का सहारा लिया जबकि तिब्बती शांति के उपासक हैं और सहिष्णु धर्म बौद्ध के अनुयायी हैं। फिलीस्तीन ने स्वयं को इजरायल से पीडित देश के रूप में प्रस्तुत किया जिसके आधार पर उसे विश्व में ध्रुवीकरण करने में सफलता मिली। फिलीस्तीन को विश्व के प्रायः सभी देशों का समर्थन प्राप्त हो गया क्योंकि यह विषय मुसलमानों से जुडा है और विश्व के सभी देश मुस्लिम तुष्टीकरण को अपनी विदेश नीति का अंग मानते हैं। इसके विपरीत तिब्बत मुस्लिम देश नहीं है इस कारण उसके प्रति सहानुभुति दिखाना किसी की मजबूरी या फैशन नहीं है। फिलीस्तीन को उन मुस्लिम देशों का समर्थन प्राप्त है जिनके पास तेल की दौलत है और इसके आधार पर वे विश्व् में धाक जमाते हैं और अपने प्रमुख सम्मेलनों में फिलीस्तीन के विषय को इस्लामी उम्मा के स्वाभिमान के साथ जोड्कर इस्लामी जनमानस की भावनाओं को उद्दीप्त करते हैं। जबकि इसके ठीक विपरीत तिब्बत का सहयोग करने को कोई तैयार नहीं है। ले देकर भारत ने तिब्बत की निर्वासित सरकार और उनके धर्मगुरु दलाई लामा को शरण दे रखी है तो वह भी अंतरराष्ट्रीय मंचों पर इस विषय को उठाने से कतराती है।

 फिलीस्तीन के विषय को अधिक प्रमुखता मिलने का एक बडा कारण विश्व बिरादरी की सबसे बडी कानून निर्माता संस्था सन्युक्त राष्ट्र संघ है। समस्त विश्व में इजरायल की अलोकप्रियता को देखते हुए संयुक्त राष्ट्र संघ ने मानों कर्मकाण्ड ही बना लिया है कि प्रत्येक बैठक या सत्र में फिलीस्तीन के लिये इजरायल की निन्दा करता हुआ एक प्रस्ताव अवश्य होगा। संयुक्त राष्ट्र संघ के इस रूख से फिलीस्तीन को वैश्विक मान्यता प्राप्त हो जाती है जबकि तिब्बत को पीडित करने वाला देश स्वयं संयुक्त राष्ट्र संघ का स्थाई सदस्य है इस कारण शायद ही कभी संयुक्त राष्ट्र संघ में तिब्बत में चीनी अत्याचार पर चर्चा हुई हो। फिलीस्तीन और तिब्बत की स्थिति में इस अंतर का एक प्रमुख कारण समाचार साधन हैं। विश्व भर के टी वी चैनलों पर ऐसे चित्र और समाचार आते हैं जो फिलीस्तीन को इजरायल द्वारा उत्पीडित देश के रूप में चित्रित करते हैं। फिलीस्तीन के अनेक हिस्सों से समाचार और टी वी छवि आती रह्ती है जिसके आधार पर लोग अपना दृष्टिकोण बनाते हैं। इसके विपरीत तिब्बत में जो कुछ भी हो रहा है उसके बारे में विश्व को उतना ही पता लग पाता है जितना चीन विश्व को बताना चाह्ता है। वैसे यह अजीब विडम्बना है कि जिस देश को वामपंथी रक्त पिपासु सिद्ध करना चाह्ते हैं उसके यहां कम से कम मीडिया पर सेंसर तो नहीं है। 

 फिलीस्तीन और तिब्बत की स्थिति में अंतर का एक प्रमुख कारण यह भी है कि तिब्बत पर अधिकार करने वाला देश स्वयं वामपंथी या कम्युनिस्ट है जबकि इसके विपरीत  फिलीस्तीन का मुद्दा विश्व के समस्त वामपंथियों के लिये प्रमुख विचारधारागत मुद्दा है जो उन्हें आपस में जोड्कर रखता है। विश्व के किसी भी कोने में कोई वामपंथी क्यों न हो उसकी वैचारिक प्रतिबद्धता की पहचान इसी से होती है कि फिलीस्तीन और इजरायल मसले पर उसका रूख क्या है।आखिर वह कौन सा कारण है जो कम्युनिस्टों और वामपंथियों को फिलीस्तीन के निकट लाता है और इतना निकट लाता है कि वे यासर अराफात के इंतिफादा या आत्मघाती हमलों में भी कोई बुराई नहीं देखते। उन्हें तो इस्लाम के नाम पर आतंकवाद करने वाले भी अपने सहयोगी लगते हैं। ऐसा क्यों?  इसके पीछे एक मनोवैज्ञानिक कारण भी है।

द्वितीय विश्व युद्ध के उपरांत जब शीत युद्ध् आरम्भ हुआ तो साम्यवादियों या वामपंथियों को लगता था कि अब पूँजीवाद ध्वस्त हो जायेगा और पूँजीवाद के अंतर्गत पूँजी पर नियंत्रण की भावना के चलते कर्मचारी और मजदूर असंतुष्ट होंगे और समस्त विश्व में सर्वहारा संग़ठित होकर एक क्रांति को जन्म देगा और रूस का माडल एक स्थाई व्यवस्था बन जायेगा। परंतु ऐसा हुआ नहीं। पूँजीवाद की व्यवस्था के रह्ते हुए भी कर्मचारियों की जेबें भरती रहीं और मजदूर भी सर्वहारा क्रांति से दूर ही रहे। 1990 के दशक में सोवियत संघ के पतन के उपरांत साम्यवाद का आर्थिक दर्शन समाप्त हो गया और उसके अस्तित्व का एकमात्र दर्शन रह गया अमेरिका का विरोध। अपने दर्शन के बूते जब साम्यवादियों में अमेरिका को नष्ट करने की कूबत न रही तो उन्हें इस्लामवादियों में नया साथी दिखाई पडा। इसी कारण उन्होंने 2000 के उपरांत अपने सभी अंतरराष्ट्रीय सम्मेलनों में इजरायल फिलीस्तीन को अपना सबसे बडा मुद्दा बताते हुए फिलीस्तीन के प्रति अपनी सहानुभुति रखी।  यह कोई संयोग नहीं है कि विश्व के अनेक शीर्ष वामपंथियों ने 11 सितबर 2001 को अमेरिका पर हुए आक्रमण की प्रशंसा तक की है और उसे अमेरिका की नीतियों का परिणाम बताया है।

ऐसा नहीं है कि वामपंथी केवल अमेरिका की निन्दा करते है वही तत्व भारत में इस्लामवादी हिंसा का प्रकारांतर से समर्थन करते हैं और हिन्दूवादी संगठनों पर आरोप लगाते हैं। ये नक्सली हिंसा को प्रश्रय देते हैं और भारत के पडोस में नेपाल में नक्सल और इस्लामवादी गठजोड का एक बडा खतरा इन्होंने खडा ही कर दिया है।    इन समानताओं से यही निष्कर्ष निकलते हैं कि वामपथियों की मानवाधिकार को लेकर ईमानदार नीयत नहीं है और उनके लिये ये केवल नारे हैं जिनका उपयोग वे अवसरवादिता से करते हैं तथा साथ ही वे अब विश्व में अपना वर्चस्व हिंसावादियों के साथ मिलकर बढायेंगे। इस्लामवाद और वामपंथ का यह गठबन्धन आने वाले दिनों में विश्व के लिये नयी चुनौती बनने वाला है।

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राजनीतिक इस्लाम का बढता दायरा

Posted by amitabhtri on मार्च 20, 2008

इन दिनों समस्त विश्व में जिस इस्लामवादी खतरे का सामना सर्वत्र किया जा रहा है उसके पीछे मूल प्रेरणा इस्लाम की राजनीतिक इच्छा ही है। समस्त विश्व में मुसलमानों के मध्य इस बात को लेकर सहमति है कि उनके व्यक्तिगगत कानून में कोई दखल ना दिया जाये और विश्व के अधिकांश या सभी भाग पर शरियत का शासन हो। इस विषय में इस्लामवादी आतंकवादियों और विभिन्न इस्लामी राजनीतिक या सामाजिक संगठनों में विशेष अंतर नहीं है। इसी क्रम में पिछ्ले दिनों कुछ घटनायें घटित हुईं जो वैसे तो घटित अलगअलग हिस्सों में हुईं परंतु उनका सम्बन्ध राजनीतिक इस्लाम से ही था। सेनेगल की राजधानी डकार में इस्लामी देशों के सबसे बडे संगठन आर्गनाइजेशन आफ इस्लामिक कन्ट्रीज की बैठक हुई और उसमें दो मह्त्वपूर्ण निर्णय लिये गये जिनका आने वाले दिनों में समस्त विश्व पर गहरा प्रभाव पडने वाला है।

इन दो निर्णयों के अनुसार  इस्लामी देशों के संगठन ने प्रस्ताव पारित किया कि समस्त विश्व में विशेषकर पश्चिम में इस्लामोफोब की बढती प्रव्रत्ति के विरुद्ध अभियान चलाया जायेगा और इस्लाम के प्रतीकों को अपमानित किये जाने पर उसके विरुद्ध कानूनी लडाई लडी जायेगी। इस प्रस्ताव में स्पष्ट कहा गया है कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर इस्लाम के प्रतीकों को अपमानित करने या पैगम्बर को अपमानित करने के किसी भी प्रयास का डट कर मुकाबला किया जायेगा और कानूनी विकल्पों को भी अपनाया जायेगा। दूसरे निर्णय के अनुसार मुस्लिम मतावलम्बियों को चेतावनी दी गयी कि वे शरियत के पालन के प्रति और जागरूक हों इस क्रम में सऊदी अरब के विदेशमंत्री ने अपने देश का प्रतिनिधित्व करते हुए घोषणा की कि उनका देश आर्गनाइजेशन आफ इस्लामिक कन्ट्रीज के गरीब देशों को एक अरब यू.एस. डालर की सहायता देगा परंतु बदले में उन्हें अपने यहाँ शरियत के अनुसार शासनप्रशासन सुनिश्चित करना होगा। ये दोनों ही निर्णय दूरगामी प्रभाव छोडने वाले हैं।

पिछ्ले कुछ वर्षों में पश्चिम ने अनेक सन्दर्भों में इस्लाम को चुनौती दी है और विशेष रूप से डेनमार्क की एक पत्रिका में पैगम्बर को लेकर कार्टून छपने के उपरांत पश्चिम में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और इस्लाम के विशेषाधिकार को लेकर व्यापक बहस आरम्भ हो गयी। पिछ्ले वर्ष कैथोलिक चर्च के धार्मिक गुरु पोप द्वारा इस्लाम के सम्बन्ध में की गयी कथित टिप्पणी के बाद इस बहस ने फिर जोर पकडा। इस बार इस्लामी सम्मेलन में इस्लाम के प्रतीकों पर आक्रमण की बात को प्रमुख रूप से रेखांकित किये जाने के पीछे प्रमुख कारण यही माना जा रहा है कि इस्लाम पश्चिम की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के सिद्धांत को स्वीकार कर अपने अन्दर कोई परिवर्तन लाने को तैयार नहीं है। आने वाले दिनों में यह विषय इस्लाम और पश्चिम के मध्य टकराव का प्रमुख कारण बनने वाला है। पश्चिम को इस बात पर आपत्ति है कि जब उनके यहाँ सभी धर्मों पर मीमांसा और आलोचना की स्वतंत्रता अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अंतर्गत आती है तो इस सिद्धांत की परिधि से इस्लाम बाहर क्यों है या उसे विशेषाधिकार क्यों प्राप्त है। इस्लामी देशों ने इस विषय पर अपना रूख पूरी तरह स्पष्ट कर दिया है कि वे अपनी विशेषाधिकार की स्थिति को कायम रखना चाह्ते हैं। उधर पश्चिम में इस्लाम के विशेषाधिकार को ध्वस्त करने के अनेक प्रयास हो रहे हैं। हालैण्ड की संसद के एक सदस्य और आप्रवास विरोधी राजनीतिक दल फ्रीडम पार्टी के प्रमुख गीर्ट वाइल्डर्स ने कुरान पर अपने विचारों को लेकर एक फिल्म तक बन डाली है जो 28 मार्च को प्रदर्शित होने वाली है।

पश्चिम की इस मानसिकता के बाद इस्लामी देशों के सबसे बडे संगठन द्वारा  जिस प्रकार का अडियल रवैया अपनाया गया है उससे यही निष्कर्ष निकलता है कि इस्लामी मतावलम्बी  किसी भी नये परिवर्तन के किये तैयार नहीं हैं। इससे तो एक ही बात स्पष्ट होती है कि आने वाले दिनों में पश्चिम और इस्लाम का टकराव बढने ही वाला है।इस सम्मेलन के दूसरे प्रस्ताव से भी राजनीतिक इस्लाम को प्रश्रय ही प्रोत्साहन मिलने वाला है। इस प्रस्ताव के अनुसार इस्लामी संगठन के उन सदस्य देशों को आर्थिक सहायता देते समय जो गरीब हैं यह शर्त लगायी जायेगी वे अपने शासन और प्रशासन में शरियत का पालन सुनिश्चित करें। इस शर्त से उन मुस्लिम देशों में धार्मिक कट्टरता बढ सकती है जिनमें विकास का सूचकांक काफी नीचे है और राजनीतिक इस्लाम और कट्टरपंथी इस्लाम में अधिक अंतर नहीं है। इन देशों के पिछ्डेपन का लाभ उन संगठनों को मिल सकता है जिन्होंने शरियत का पालन सुनिश्चित करने के लिये आतंकवाद और हिंसा का सहारा ले रखा है। इस्लामी देशों के इस सम्मेलन में शरियत पर जोर देकर राजनीतिक इस्लाम को प्रश्रय दे कर इस्लामी कट्टरता को नया आयाम ही दिया गया है। इस निर्णय के उपरांत यह फैसला कर पाना कठिन हो गया है कि इस्लाम के नाम पर चल रहे आतंकवाद और इस्लामी राजनीति के इस संकल्प में अंतर क्या है। विशेषकर तब जबकि दोनों का उद्देश्य शरियत के आधार पर ही विश्व का संचालन करना और उसे प्रोत्साहित करना ही है।

इस्लाम के विशेषाधिकार को कायम रखना और शरियत के अनुसार शासन और प्रशासन चलाने के लिये मुस्लिम देशों को प्रेरित करना मुस्लिम देशों की उस मानसिकता को दर्शाता है जहाँ वे परिवर्तन के लिये तैयार नहीं दिखते और इस्लामी सर्वोच्चता के सिद्धांत में विश्वास रखते हैं। 

इसके अतिरिक्त दो और घटनायें पिछ्ले दिनों घटित हुईं जो इस्लाम को लेकर चल रही पूरी बह्स को और तीखा बनाती हैं तथा इस्लामी बुद्धिजीवी और धार्मिक नेता इस्लामी आतंकवाद से असहमति रखते हुए भी उसके उद्देश्यों से सहमत प्रतीत होते दिखते हैं। इन दो घटनाओं में एक का केन्द्र उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ रहा जहाँ आतंकवाद विरोधी आन्दोलन के बैनर तले आल इंडिया मुस्लिम पर्सनल ला बोर्ड के कुछ प्रमुख सदस्यों ने निर्णय लिया कि वे प्रदेश के किसी भी जिले में बार काउंसिल के उस निर्णय का खुलकर विरोध करेंगे जिसमें वकील उन लोगों के मुकदमे लडने से इंकार कर देंगे जो किसी आतंकवादी घटना के आरोप में गिरफ्तार किये जाते हैं। मुस्लिम पर्सनल ला बोर्ड के इस फैसले के बाद वकीलों के संगठन बार काउंसिल में धर्म के आधार पर विभाजन हो गया है और इसके पीछे तर्क यह दिया गया है कि आतंकवादी घटनाओं के नाम पर निर्दोष मुसलमान युवकों को पकडा जा रहा है और उन्हें कानूनी सहायता मुसलमान वकील दिलायेंगे। ज्ञातव्य हो कि पिछ्ले कुछ वर्षों में उत्तर प्रदेश में अनेक आतंकवादी घटनायें घटित हुईं जिनमे अयोध्या स्थित रामजन्मभूमि पर आक्रमण, वाराणसी स्थित संकटमोचन मन्दिर पर आक्रमण प्रमुख हैं। इन आतंकवादी घटनाओं में जो आतंकवादी गिरफ्तार हुए उनका मुकदमा लडने से स्थानीय बार काउंसिल ने इंकार कर दिया। इसी के विरोध में न्यायिक प्रक्रिया को आतंकित करने के लिये पिछले वर्ष उत्तर प्रदेश में अनेक न्यायालयों में एक साथ बम विस्फोट हुए और आतंकवादी संगठनों ने इसके कारण के रूप में आतंकवादियों का मुकदमा लडने से वकीलों के इंकार को बताया। 

 अब जिस प्रकार मुस्लिम वकील आतंकवादियों को निर्दोष बताकर सरकार और पुलिस बल पर दबाव बनाने की कोशिश कर रहे हैं उससे उनकी नीयत पर शक होना स्वाभाविक है और यहाँ भी इस्लाम के नाम पर चल रहे आतंकवाद और इस्लामी आन्दोलन के मध्य उद्देश्यों की समानता दिख रही है। इस निर्णय का व्यापक असर होने वाला है और विशेष रूप से तो यह कि जब समस्त विश्व इस्लामी बुद्धिजीवियों से आतंकवाद की इस लडाई में रचनात्मक सहयोग की आशा करता है तो उनका नयीनयी रणनीति अपनाकर प्रकारांतर से सही इस्लाम के नाम पर चल रहे अभियान को हतोत्साहित करने के स्थान उसे बल प्रदान करने के लिये तोथे तर्कों का सहारा लेना इस आशंका को पुष्ट करता है कि इस्लामी आतंकवाद कोई भटका हुआ अभियान नहीं है।इसी बीच एक और प्रव्रत्ति ने जोर पकडा है जिसकी आकस्मिक बढोत्तरी से देश की खुफिया एजेंसियों के माथे पर भी बल आ गया है। जिस प्रकार पिछ्ले दिनों उत्तर प्रदेश में सहारनपुर स्थित दारूलउलूम्देवबन्द ने देश भर के विभिन्न मुस्लिम संगठनों के प्रतिनिधियों और उलेमाओं को आमंत्रित कर इस्लाम के साथ आतंकवाद के सहयोग को नकारने का प्रयास किया उसने भी अनेक प्रश्न खडे किये। क्योंकि इस सम्मेलन में भी ऊपर से तो आतंकवाद के साथ इस्लाम को जोडने की प्रव्रत्ति की आलोचना की गयी परंतु जो विषय उठाये गये और मुस्लिम समाज की जिन चिंताओं को व्यक्त किया गया उनसे उन्हीं बिन्दुओं को समर्थन मिला जो इस्लाम के नाम पर चल रहे आतंकवाद के हैं। दारूल उलूम देवबन्द के सम्मेलन के उपरांत इसी प्रकार के और सम्मेलन देश के अनेक हिस्सों में आयोजित करने की योजना बन रही है। आतंकवाद विरोध में मुस्लिम संगठनों की इस अचानक पहल की पहेली देश की खुफिया एजेंसियाँ सुलझाने में जुट गयी हैं। एजेंसियाँ केवल यह जानना चाहती हैं कि यह मुस्लिम संगठनों की स्वतःस्फूर्त प्रेरणा है या फिर इसके लिये बाहर से धन आ रहा है। यदि इसके लिये बाहर से धन आ रहा है या फिर यह कोई सोची समझी रणनीति है तो इससे पीछे के मंतव्य को समझना आवश्यक होगा। कहीं यह जन सम्पर्क का अच्छा प्रयास तो नहीं है ताकि इस्लाम के सम्बन्ध में बन रही धारणा को तो ठीक किया जाये परंतु आतंकवाद की पूरी बह्स और उसके स्वरूप पर सार्थक चर्चा न की जाये जैसा कि देवबन्द के सम्मेलन में हुआ भी।

तो क्या माना जाये कि खतरा और भी बडा है या सुनियोजित है। आर्गनाइजेशन आफ इस्लामिक कंट्रीज ने जहाँ अपने प्रस्तावों से संकेत दिया है कि इस्लामिक उम्मा आने वाले दिनों में अधिक सक्रिय और कट्टर भूमिका के लिये तैयार हो रहा है तो ऐसे में भारत में घटित होने वाली कुछ घटनायें भी उसी संकेत की ओर जाती दिखती हैं। समस्त मुस्लिम विश्व में हो रहे घटनाक्रम एक ही संकेत दे रहे हैं कि इस्लाम में शेष विश्व के साथ चलने के बजाय उसे इस्लाम के रास्ते पर लाने का अभियान चलाया जा रहा है। वास्तव में इस्लामी राजनीति के अनेक जानकारों का मानना है कि इस्लामी आतंकवाद और कुछ नहीं बल्कि फासिस्ट और कम्युनिस्ट विचारधारा से प्रेरित अधिनायकवादी आन्दोलन है जो अपने काल्पनिक विश्व को शेष विश्व पर थोपना चाह्ता है परंतु नये घटनाक्रम से तो ऐसा लगता है कि समस्त  इस्लामी जगत इस काल्पनिक दुनिया को स्थापित करना चाह्ता है और उनमें  यह भावना घर कर गयी है कि वर्तमान विश्व के सिद्धांतों को स्वीकार करने के स्थान पर कुरान और शरियत के आधार पर विश्व को नया स्वरूप दिया जाये। यही वह बिन्दु है जो राजनीतिक इस्लाम को इस्लामी आतंकवाद के साथ सहानुभूति रखने को विवश करता है क्योंकि दोनों  का एक ही उद्देश्य है और वह है खिलाफत की स्थापना और समस्त विश्व के शासन प्रशासन का संचालन शरियत के आधार पर करना।

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पश्चिम की इस्लाम को चुनौती

Posted by amitabhtri on मार्च 9, 2008

पिछ्ले कुछ दिनों से एक ऐसी घटना की भूमिका बन रही है जो आने वाले दिनों में बडा तूफान खडा कर सकती है। यह घटना पिछ्ले दो दशकों से पश्चिम और इस्लाम के मध्य चल रही उस अदावट को नया आयाम दे सकती है जिसका आरम्भ 1989 में उस समय हुआ था जब ब्रिटिश मूल के लेखक सलमान रश्दी ने सेटेनिक वर्सेज नामक पुस्तक लिखी थी और उसमें इस्लाम के तथाकथित पवित्र ग्रंथ कुरान की कुछ आयतों पर टिप्प्णी की थी जो सदियों से समस्त विश्व और गैर मुसलमानों के मध्य चर्चा का विषय रही हैं। इस पुस्तक के प्रकाशित होते ही पूरे इस्लामी जगत में मानों भूचाल आ गया और ईरान के सर्वोच्च धर्मगुरु अयातोला खोमेनी ने सलमान रश्दी के विरुद्ध फतवा जारी कर उनका सर कलम करने का आदेश इस्लाम धर्मावलम्बियों को दे दिया। इस फतवे के बाद सलमान रुश्दी को अपनी जान के लाले पड गये और यह पुस्तक प्रायः सभी देशों में प्रतिबन्धित हो गयी।

यह पहला अवसर था जब समस्त विश्व के सामने अभियक्ति की स्वतंत्रता और इस्लाम के विशेषाधिकार को लेकर बहस आरम्भ हुई। इसके बाद अगला वह अवसर 1997 में आया जब इस्लाम के अनुयायियों ने पश्चिम के किसी कदम को अपने धर्म के सिद्धांतों के प्रतिकूल माना और इसे लेकर आक्रामक प्रदर्शन तक हुए यह अवसर तब आया जब अमेरिका के सर्वोच्च न्यायालय ने अपने परिसर में इस्लाम के पैगम्बर मोहम्मद की उस प्रतिमा को हटाने की अनुमति नहीं दी जिसमें उन्हें विश्व के कानून प्रदाताओं के साथ खडा किया गया था। 1930 की इस प्रतिमा के सम्बन्ध में मुसलमानों का तर्क था कि इस्लाम के अनुसार पैगम्बर की प्रतिमा नहीं हो सकती। अमेरिका के सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय के उपरांत अनेक स्थानों पर आक्रामक प्रदर्शन हुए।  2002 में एक अवसर फिर आया जब हमें पश्चिम की ओर से आये किसी वक्तव्य के कारण इस्लामी जगत में उसकी घोर प्रतिक्रिया देखने को मिली।

 2002 में एक ईसाई धर्मप्रचारक जेरी फाल्वेल ने पैगम्बर मोहम्मद को एक इंटरव्यू में पहला आतंकवादी कह दिया और इसके बाद सर्वत्र आक्रामक प्रदर्शन हुए। इस प्रदर्शन में अनेक लोग घायल भी हुए और कुछ लोगों को अपनी जान से भी हाथ धोना पडा। इस प्रदर्शन की लपट भारत तक भी आयी और देश के अनेक हिस्सों में हिंसक प्रदर्शन हुए। इसी प्रकार 2005 में प्रसिद्ध अंग्रेजी पत्रिका न्यूजवीक में एक अफवाह जैसा समाचार छपा कि अमेरिका द्वारा आतंकवादियों के लिये बनाई गयी जेल ग्वांटेनामो बे में किसी अमेरिकी जेल अधिकारी ने कैदियों के सामने कुरान की प्रति शौचालय में बहा दी है। इस समाचार के आने के बाद मानों हडकम्प मच गया और जैसी उम्मीद थी उसी अनुसार हिंसा और प्रदर्शन हुए।

पश्चिम और इस्लाम का यह संघर्ष फरवरी  2006 में  फिर  देखने को मिला जब डेनमार्क की एक प्रसिद्ध पत्रिका जायलेंड पोस्टेन ने इस्लामी पैगम्बर मोहम्मद के कुछ कार्टून प्रकाशित किये और यही कार्टून फिर यूरोप के अनेक देशों की पत्र पत्रिकाओं ने प्रकाशित किये। इस घटना ने समस्त इस्लामी विश्व को उद्वेलित कर दिया और विश्व के अनेक हिस्सों में हिंसक प्रदर्शन हुए और इस अभूतपूर्व हिंसा में समस्त विश्व के अनेक हिस्सों में 100 से अधिक लोग मारे गये और अनेक धार्मिक स्थलों को भी नुकसान हुआ। भारत में भी कश्मीर, लखनऊ, हैदराबाद में हिंसा हुई और अनेक लोग घायल हुए। इसके बाद सितम्बर 2006 में रोमन कैथोलिक चर्च के सर्वोच्च धर्म गुरू पोप बेनेडिक्ट ने अपने एक वक्तव्य में इस्लाम के सन्दर्भ में बायजेंटाइन सम्राट को उद्ध्रत करते हुए कहा कि इस्लाम के पास कुछ भी नया नहीं है और जो भी है वह बुरा और अमानवीय है। पोप की यह टिप्पणी अपनी नहीं थी परंतु इस्लामी विश्व में इस पर जमकर बवाल हुआ और पूरी दुनिया में अनेक दिनों तक हिंसक विरोध प्रदर्शन होते रहे। भारत में जामा मस्जिद के इमाम सैयद बुखारी ने पोप को जान से मारने की बात कही। आक्रोश का यही आलम विश्व के अनेक इस्लामी हिस्सों में रहा और इस विषय पर भी हिंसा हुई। 

पश्चिम और इस्लाम की इस अदावट की नवीनतम कडी में हालैण्ड की संसद के सदस्य और आप्रवास विरोधी राजनीतिक दल के नेता गीर्ट वाइल्डर्स ने कुरान पर एक फिल्म बनाने का निर्णय लिया है और यही नहीं तो वे फिल्म पूरी भी कर चुके हैं पहले यह फिल्म जनवरी में प्रस्तावित थी परंतु अब यह मार्च के महीने में कभी भी आ सकती है। इस को लेकर सारी दुनिया में चर्चा हो रही है। इस चर्चा के पीछे दो प्रमुख कारण हैं एक तो वाइल्डर्स हालैंड की संसद के सदस्य हैं, संसद की कुल 150 सदस्य संख्या में उनके 9 सदस्य है और इससे पूर्व भी वे कुरान को हिंसा का प्रेरणा स्रोत मानते हुए उस पर प्रतिबन्ध लगाने की बात कर चुके हैं। उन्होंने कुरान की तुलना हिटलर की आत्म कथा मीन कैम्फ से की है। अभी तक पश्चिम और इस्लाम के मध्य विवाद के जितने उदाहरण हमारे सामने आये थे उसमें पहल या तो धार्मिक व्यक्ति द्वारा या किसी लेखक द्वारा हुई थी और इन सभी विषयों पर कानून निर्माताओं की एक ही राय होती थी कि इस्लाम मतावलम्बियों की भावना को ठेस नहीं लगनी चाहिये। इससे पूर्व के सभी मामलों में पूरे मामले को शांत करने का प्रयास होता था।

पहली बार इस्लाम की आलोचना की पहल किसी कानून निर्माता द्वारा हुई है। इस फिल्म को लेकर हालैण्ड की सरकार ने जो रुख दिखाया है वह भी बडा रोचक है। सरकार ने इस पूरे विषय पर दो स्तर की रणनीति बनाई है जिसमें एक ओर जहाँ फिल्म को प्रदर्शित होने से रोकने के प्रयास करने की बात की गयी है वहीं दूसरी ओर इस फिल्म के प्रदर्शन पर होने वाली मुस्लिम प्रतिक्रिया से अपने  देश में और विदेश में निपटने के विकल्पों पर भी चर्चा हो रही है। वाइल्डर्स के आसपास पुलिस निगरानी बढा दी गयी है और उनके शेष सांसदों की भी निगरानी हो रही है। हालांकि हालैण्ड के टी वी चैनलों ने वाइल्डर्स की फिल्म फितना को प्रदर्शित करने से मना कर दिया है परंतु वाइल्डर्स ने इसके लिये अलग वेबसाइट बनायी है और यू ट्यूब पर भी फिल्म दिखाने की बात कही है। हालैण्ड की सरकार के प्रबन्धों पर वाइल्डर्स का  मानना है कि सरकार के रूख से लगता है कि वह भी फिल्म के प्रदर्शन के लिये तैयार है। यही वह बिन्दु है जिसे टर्निंग प्वांइट कहा जा सकता है। 

 हालैण्ड वह पहला यूरोपिय देश है जहाँ इस्लाम के विशेषाधिकार को सबसे पहले चुनौती दी गयी। इस देश के  राजनीतिक नेता पिम फार्च्यून ने सबसे पहले हालैण्ड में मुस्लिम आप्रवास पर प्रतिबन्ध लगाने की मांग की बाद में वे एक पशु कार्यकर्ता द्वारा मार दिये गये। इसके बाद प्रसिद्ध कलाकार थिओ वान गाग ने सोमालिया मूल की इस्लामी महिला अयान हिरसी अली के साथ मिलकर इस्लाम में महिलाओं की दयनीय स्थिति पर एक फिल्म सबमिसन अर्थात समर्पण जो कि इस्लाम का अर्थ होता है निर्मित की। इस फिल्म को लेकर काफी प्रतिक्रिया हुई और इस फिल्म को इस्लाम और अल्लाह का अपमान बताया गया और 2004 में एक अफ्रीकी मुसलमान ने दिनदहाडे वान गाग की हत्या कर दी। वान गाग के ह्त्यारे मोहम्मद बायेरी ने इसे जेहाद बताया और मुकदमे के दौरान गर्व से स्वीकार किया कि उसने अपने धर्म के अपमान का बदला लिया है।  2004 में इस घटना के बाद हालैण्ड में अभिवयक्ति की स्वतंत्रता और इस्लाम के विशेषाधिकार पर चर्चा आरम्भ हुई।

2006 में पैगम्बर मोहम्मद के कार्टून को लेकर पूरे पश्चिम में जो बह्स आरम्भ हुई तो उसका सर्वाधिक मुखर बिन्दु यह था कि इस्लाम को पश्चिमी समाज की लोकतांत्रिक परम्पराओं के दायरे में लाने के लिये इस बात के लिये बाध्य किया जाये कि वह अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और धर्मों तथा पैगम्बरों की आलोचना के सामान्य सिद्धांतों को स्वीकार करे। हालैण्ड की फ्रीडम पार्टी के नेता गीर्ट वाइल्डर्स ने अब कुरान पर न केवल वक्तव्य दिया है वरन उसे पुष्ट करने के लिये उसे चित्र में भी लाने का प्रयास किया है। वे स्वयं भी कह्ते हैं कि इस फिल्म में वे वह प्रदर्शित करेंगे जिस पर वे विश्वास करते हैं। इस फिल्म को लेकर हालैण्ड की सरकार तथा अन्य राजनीतिक दलों का जो रवैया है वह निश्चय ही इस बात का संकेत है कि वे इस फिल्म का प्रदर्शन चाह्ते हैं। इसके पीछे असली कारण यही है कि हालैण्ड वह यूरोपिय देश बन रहा है जो इस्लाम को बहस के दायरे में लाकर उसके विशेषाधिकार पर चोट करने जा रहा है।  निश्चय ही यह घटना आने वाले दिनों में समस्त विश्व में चर्चा का विषय बनने वाली है और यह घटना पश्चिम और इस्लाम की अदावट को नया आयाम प्रदान कर सकती है। इस घटना के विकास और परिपक्व रूप लेने के बीच के घटनाक्रम से एक बात स्पष्ट हो रही है कि पश्चिम में इस्लाम को लेकर चिंतन नये सिरे से आरम्भ हो गया है और पश्चिम इस्लाम को अपने अनुरूप ढालने की कवायद में जुट गया है। फिर वह मुस्लिम आप्रवास हो, मुसलमानों का व्यक्तिगत कानून हो , जेहाद हो या फिर समस्त विश्व को शरियत के आधार पर चलाने की उनकी मंशा।

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