राजनीतिक इस्लाम का बढता दायरा
Posted by amitabhtri on मार्च 20, 2008
इन दिनों समस्त विश्व में जिस इस्लामवादी खतरे का सामना सर्वत्र किया जा रहा है उसके पीछे मूल प्रेरणा इस्लाम की राजनीतिक इच्छा ही है। समस्त विश्व में मुसलमानों के मध्य इस बात को लेकर सहमति है कि उनके व्यक्तिगगत कानून में कोई दखल ना दिया जाये और विश्व के अधिकांश या सभी भाग पर शरियत का शासन हो। इस विषय में इस्लामवादी आतंकवादियों और विभिन्न इस्लामी राजनीतिक या सामाजिक संगठनों में विशेष अंतर नहीं है। इसी क्रम में पिछ्ले दिनों कुछ घटनायें घटित हुईं जो वैसे तो घटित अलग–अलग हिस्सों में हुईं परंतु उनका सम्बन्ध राजनीतिक इस्लाम से ही था। सेनेगल की राजधानी डकार में इस्लामी देशों के सबसे बडे संगठन आर्गनाइजेशन आफ इस्लामिक कन्ट्रीज की बैठक हुई और उसमें दो मह्त्वपूर्ण निर्णय लिये गये जिनका आने वाले दिनों में समस्त विश्व पर गहरा प्रभाव पडने वाला है।
इन दो निर्णयों के अनुसार इस्लामी देशों के संगठन ने प्रस्ताव पारित किया कि समस्त विश्व में विशेषकर पश्चिम में इस्लामोफोब की बढती प्रव्रत्ति के विरुद्ध अभियान चलाया जायेगा और इस्लाम के प्रतीकों को अपमानित किये जाने पर उसके विरुद्ध कानूनी लडाई लडी जायेगी। इस प्रस्ताव में स्पष्ट कहा गया है कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर इस्लाम के प्रतीकों को अपमानित करने या पैगम्बर को अपमानित करने के किसी भी प्रयास का डट कर मुकाबला किया जायेगा और कानूनी विकल्पों को भी अपनाया जायेगा। दूसरे निर्णय के अनुसार मुस्लिम मतावलम्बियों को चेतावनी दी गयी कि वे शरियत के पालन के प्रति और जागरूक हों इस क्रम में सऊदी अरब के विदेशमंत्री ने अपने देश का प्रतिनिधित्व करते हुए घोषणा की कि उनका देश आर्गनाइजेशन आफ इस्लामिक कन्ट्रीज के गरीब देशों को एक अरब यू.एस. डालर की सहायता देगा परंतु बदले में उन्हें अपने यहाँ शरियत के अनुसार शासन–प्रशासन सुनिश्चित करना होगा। ये दोनों ही निर्णय दूरगामी प्रभाव छोडने वाले हैं।
पिछ्ले कुछ वर्षों में पश्चिम ने अनेक सन्दर्भों में इस्लाम को चुनौती दी है और विशेष रूप से डेनमार्क की एक पत्रिका में पैगम्बर को लेकर कार्टून छपने के उपरांत पश्चिम में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और इस्लाम के विशेषाधिकार को लेकर व्यापक बहस आरम्भ हो गयी। पिछ्ले वर्ष कैथोलिक चर्च के धार्मिक गुरु पोप द्वारा इस्लाम के सम्बन्ध में की गयी कथित टिप्पणी के बाद इस बहस ने फिर जोर पकडा। इस बार इस्लामी सम्मेलन में इस्लाम के प्रतीकों पर आक्रमण की बात को प्रमुख रूप से रेखांकित किये जाने के पीछे प्रमुख कारण यही माना जा रहा है कि इस्लाम पश्चिम की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के सिद्धांत को स्वीकार कर अपने अन्दर कोई परिवर्तन लाने को तैयार नहीं है। आने वाले दिनों में यह विषय इस्लाम और पश्चिम के मध्य टकराव का प्रमुख कारण बनने वाला है। पश्चिम को इस बात पर आपत्ति है कि जब उनके यहाँ सभी धर्मों पर मीमांसा और आलोचना की स्वतंत्रता अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अंतर्गत आती है तो इस सिद्धांत की परिधि से इस्लाम बाहर क्यों है या उसे विशेषाधिकार क्यों प्राप्त है। इस्लामी देशों ने इस विषय पर अपना रूख पूरी तरह स्पष्ट कर दिया है कि वे अपनी विशेषाधिकार की स्थिति को कायम रखना चाह्ते हैं। उधर पश्चिम में इस्लाम के विशेषाधिकार को ध्वस्त करने के अनेक प्रयास हो रहे हैं। हालैण्ड की संसद के एक सदस्य और आप्रवास विरोधी राजनीतिक दल फ्रीडम पार्टी के प्रमुख गीर्ट वाइल्डर्स ने कुरान पर अपने विचारों को लेकर एक फिल्म तक बन डाली है जो 28 मार्च को प्रदर्शित होने वाली है।
पश्चिम की इस मानसिकता के बाद इस्लामी देशों के सबसे बडे संगठन द्वारा जिस प्रकार का अडियल रवैया अपनाया गया है उससे यही निष्कर्ष निकलता है कि इस्लामी मतावलम्बी किसी भी नये परिवर्तन के किये तैयार नहीं हैं। इससे तो एक ही बात स्पष्ट होती है कि आने वाले दिनों में पश्चिम और इस्लाम का टकराव बढने ही वाला है।इस सम्मेलन के दूसरे प्रस्ताव से भी राजनीतिक इस्लाम को प्रश्रय ही प्रोत्साहन मिलने वाला है। इस प्रस्ताव के अनुसार इस्लामी संगठन के उन सदस्य देशों को आर्थिक सहायता देते समय जो गरीब हैं यह शर्त लगायी जायेगी वे अपने शासन और प्रशासन में शरियत का पालन सुनिश्चित करें। इस शर्त से उन मुस्लिम देशों में धार्मिक कट्टरता बढ सकती है जिनमें विकास का सूचकांक काफी नीचे है और राजनीतिक इस्लाम और कट्टरपंथी इस्लाम में अधिक अंतर नहीं है। इन देशों के पिछ्डेपन का लाभ उन संगठनों को मिल सकता है जिन्होंने शरियत का पालन सुनिश्चित करने के लिये आतंकवाद और हिंसा का सहारा ले रखा है। इस्लामी देशों के इस सम्मेलन में शरियत पर जोर देकर राजनीतिक इस्लाम को प्रश्रय दे कर इस्लामी कट्टरता को नया आयाम ही दिया गया है। इस निर्णय के उपरांत यह फैसला कर पाना कठिन हो गया है कि इस्लाम के नाम पर चल रहे आतंकवाद और इस्लामी राजनीति के इस संकल्प में अंतर क्या है। विशेषकर तब जबकि दोनों का उद्देश्य शरियत के आधार पर ही विश्व का संचालन करना और उसे प्रोत्साहित करना ही है।
इस्लाम के विशेषाधिकार को कायम रखना और शरियत के अनुसार शासन और प्रशासन चलाने के लिये मुस्लिम देशों को प्रेरित करना मुस्लिम देशों की उस मानसिकता को दर्शाता है जहाँ वे परिवर्तन के लिये तैयार नहीं दिखते और इस्लामी सर्वोच्चता के सिद्धांत में विश्वास रखते हैं।
इसके अतिरिक्त दो और घटनायें पिछ्ले दिनों घटित हुईं जो इस्लाम को लेकर चल रही पूरी बह्स को और तीखा बनाती हैं तथा इस्लामी बुद्धिजीवी और धार्मिक नेता इस्लामी आतंकवाद से असहमति रखते हुए भी उसके उद्देश्यों से सहमत प्रतीत होते दिखते हैं। इन दो घटनाओं में एक का केन्द्र उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ रहा जहाँ आतंकवाद विरोधी आन्दोलन के बैनर तले आल इंडिया मुस्लिम पर्सनल ला बोर्ड के कुछ प्रमुख सदस्यों ने निर्णय लिया कि वे प्रदेश के किसी भी जिले में बार काउंसिल के उस निर्णय का खुलकर विरोध करेंगे जिसमें वकील उन लोगों के मुकदमे लडने से इंकार कर देंगे जो किसी आतंकवादी घटना के आरोप में गिरफ्तार किये जाते हैं। मुस्लिम पर्सनल ला बोर्ड के इस फैसले के बाद वकीलों के संगठन बार काउंसिल में धर्म के आधार पर विभाजन हो गया है और इसके पीछे तर्क यह दिया गया है कि आतंकवादी घटनाओं के नाम पर निर्दोष मुसलमान युवकों को पकडा जा रहा है और उन्हें कानूनी सहायता मुसलमान वकील दिलायेंगे। ज्ञातव्य हो कि पिछ्ले कुछ वर्षों में उत्तर प्रदेश में अनेक आतंकवादी घटनायें घटित हुईं जिनमे अयोध्या स्थित रामजन्मभूमि पर आक्रमण, वाराणसी स्थित संकटमोचन मन्दिर पर आक्रमण प्रमुख हैं। इन आतंकवादी घटनाओं में जो आतंकवादी गिरफ्तार हुए उनका मुकदमा लडने से स्थानीय बार काउंसिल ने इंकार कर दिया। इसी के विरोध में न्यायिक प्रक्रिया को आतंकित करने के लिये पिछले वर्ष उत्तर प्रदेश में अनेक न्यायालयों में एक साथ बम विस्फोट हुए और आतंकवादी संगठनों ने इसके कारण के रूप में आतंकवादियों का मुकदमा लडने से वकीलों के इंकार को बताया।
अब जिस प्रकार मुस्लिम वकील आतंकवादियों को निर्दोष बताकर सरकार और पुलिस बल पर दबाव बनाने की कोशिश कर रहे हैं उससे उनकी नीयत पर शक होना स्वाभाविक है और यहाँ भी इस्लाम के नाम पर चल रहे आतंकवाद और इस्लामी आन्दोलन के मध्य उद्देश्यों की समानता दिख रही है। इस निर्णय का व्यापक असर होने वाला है और विशेष रूप से तो यह कि जब समस्त विश्व इस्लामी बुद्धिजीवियों से आतंकवाद की इस लडाई में रचनात्मक सहयोग की आशा करता है तो उनका नयी–नयी रणनीति अपनाकर प्रकारांतर से सही इस्लाम के नाम पर चल रहे अभियान को हतोत्साहित करने के स्थान उसे बल प्रदान करने के लिये तोथे तर्कों का सहारा लेना इस आशंका को पुष्ट करता है कि इस्लामी आतंकवाद कोई भटका हुआ अभियान नहीं है।इसी बीच एक और प्रव्रत्ति ने जोर पकडा है जिसकी आकस्मिक बढोत्तरी से देश की खुफिया एजेंसियों के माथे पर भी बल आ गया है। जिस प्रकार पिछ्ले दिनों उत्तर प्रदेश में सहारनपुर स्थित दारूल–उलूम्–देवबन्द ने देश भर के विभिन्न मुस्लिम संगठनों के प्रतिनिधियों और उलेमाओं को आमंत्रित कर इस्लाम के साथ आतंकवाद के सहयोग को नकारने का प्रयास किया उसने भी अनेक प्रश्न खडे किये। क्योंकि इस सम्मेलन में भी ऊपर से तो आतंकवाद के साथ इस्लाम को जोडने की प्रव्रत्ति की आलोचना की गयी परंतु जो विषय उठाये गये और मुस्लिम समाज की जिन चिंताओं को व्यक्त किया गया उनसे उन्हीं बिन्दुओं को समर्थन मिला जो इस्लाम के नाम पर चल रहे आतंकवाद के हैं। दारूल उलूम देवबन्द के सम्मेलन के उपरांत इसी प्रकार के और सम्मेलन देश के अनेक हिस्सों में आयोजित करने की योजना बन रही है। आतंकवाद विरोध में मुस्लिम संगठनों की इस अचानक पहल की पहेली देश की खुफिया एजेंसियाँ सुलझाने में जुट गयी हैं। एजेंसियाँ केवल यह जानना चाहती हैं कि यह मुस्लिम संगठनों की स्वतःस्फूर्त प्रेरणा है या फिर इसके लिये बाहर से धन आ रहा है। यदि इसके लिये बाहर से धन आ रहा है या फिर यह कोई सोची समझी रणनीति है तो इससे पीछे के मंतव्य को समझना आवश्यक होगा। कहीं यह जन सम्पर्क का अच्छा प्रयास तो नहीं है ताकि इस्लाम के सम्बन्ध में बन रही धारणा को तो ठीक किया जाये परंतु आतंकवाद की पूरी बह्स और उसके स्वरूप पर सार्थक चर्चा न की जाये जैसा कि देवबन्द के सम्मेलन में हुआ भी।
तो क्या माना जाये कि खतरा और भी बडा है या सुनियोजित है। आर्गनाइजेशन आफ इस्लामिक कंट्रीज ने जहाँ अपने प्रस्तावों से संकेत दिया है कि इस्लामिक उम्मा आने वाले दिनों में अधिक सक्रिय और कट्टर भूमिका के लिये तैयार हो रहा है तो ऐसे में भारत में घटित होने वाली कुछ घटनायें भी उसी संकेत की ओर जाती दिखती हैं। समस्त मुस्लिम विश्व में हो रहे घटनाक्रम एक ही संकेत दे रहे हैं कि इस्लाम में शेष विश्व के साथ चलने के बजाय उसे इस्लाम के रास्ते पर लाने का अभियान चलाया जा रहा है। वास्तव में इस्लामी राजनीति के अनेक जानकारों का मानना है कि इस्लामी आतंकवाद और कुछ नहीं बल्कि फासिस्ट और कम्युनिस्ट विचारधारा से प्रेरित अधिनायकवादी आन्दोलन है जो अपने काल्पनिक विश्व को शेष विश्व पर थोपना चाह्ता है परंतु नये घटनाक्रम से तो ऐसा लगता है कि समस्त इस्लामी जगत इस काल्पनिक दुनिया को स्थापित करना चाह्ता है और उनमें यह भावना घर कर गयी है कि वर्तमान विश्व के सिद्धांतों को स्वीकार करने के स्थान पर कुरान और शरियत के आधार पर विश्व को नया स्वरूप दिया जाये। यही वह बिन्दु है जो राजनीतिक इस्लाम को इस्लामी आतंकवाद के साथ सहानुभूति रखने को विवश करता है क्योंकि दोनों का एक ही उद्देश्य है और वह है खिलाफत की स्थापना और समस्त विश्व के शासन प्रशासन का संचालन शरियत के आधार पर करना।
Pradeep Bhardwaj Kavi said
Amitabhtri Aapne Sahi Likha Hai.
Vishwa ke pratyek desh me ab aese Sanvidhan ka Nirmaan ho, jisme sabhi dharmo ki Achhaaiyon aur kewal Achhaaiyon ko hi Sweekar kiya jaye .Bina kisi Bhedbhav ke pratyek Vyakti ko Saman Samjha Jaye. Tark heen,Vidweshpurn,Hinsak, Aur Bhedbhav Failane wali Vichardhara ko Tyag De.
Sara Sansar ek Pariwar hai. Isee Bhawna se Vishwa Kalyan ka Marg Prasashta Hoga.Rashtra Ki Sanmaprabhuta Sarvopari ho , Ise Nakarne Wala Dharma Kisi Bhi Rashtra ka Hitaishi Nahi Ho Sakta.Dharma ke Naam par hinsa Failane ya Desh ka Vibhajan Mangane Wala Vichar RashtraDrohi Hai.
salmanfbd said
इस्लाम अपनी बात रखे तो अड़ियल है और पश्चिम अपनी बात रखे तो उदार है। वास्तव में अमेरिका खुद सबसे बड़ा आतंकवादी है और वो दुनिया भर में RSS जैसे आतंकी संगठनों को पैसा देता है और फिर ये दंगे करते है और अनर्गल ब्लॉग्गिंग करके गलत बात करते है और सोचते है की हम बहादुर है।असल में ये सब लोग कायर है।इस्लाम के खिलाफ जितना भ्रम पैदा करोगे इस्लाम उतना ही फलेगा फूलेगा क्योंकि सच्चाई की हमेशा जीत होती है।