हिंदू जागरण

हिंदू चेतना का स्वर

Archive for अगस्त, 2008

वैश्वीकरण और पत्रकारिता

Posted by amitabhtri on अगस्त 30, 2008

राष्ट्रीय स्वाभिमान आन्दोलन के राष्ट्रीय संयोजक श्री के.एन.गोविन्दाचार्य की पहल पर नई दिल्ली स्थित कांस्टीट्यूशन क्लब में वैश्वीकरण का पत्रकारिता पर प्रभाव व हमारी परम्परा नामक परिसंवाद आयोजित किया गया जो वास्तव में परिसंवाद से अधिक संगोष्ठी होकर रह गया। दिन भर के इस कार्यक्रम में अनेक नामी गिरामी पत्रकारों ने भाग लिया। इनमें प्रसिद्ध पत्रकार और जनसत्ता के संपादक प्रभाष जोशी, ई टी वी दिल्ली के प्रमुख एन.के.सिंह, प्रथम प्रवक्ता पत्रिका के संपादक और पूर्व में जनसत्ता से जुडे रहे रामबहादुर राय और जी न्यूज के सलाहकार संपादक पुण्य प्रसून वाजपेयी प्रमुख नाम थे। कार्यक्रम के प्रथम सत्र में प्रभाष जोशी ने उद्घाटन सत्र में पूरे विषय की भाव भूमि रखी और तय हो गया कि वर्तमान परिस्थितियों में पत्रकारिता के मूल्यों से लेकर वैश्वीकरण के बढते प्रभावों के बीच बदलते जीवन मूल्यों और बदलते सामाजिक ताने बाने पर विचार होगा और कमोवेश हुआ भी यही। परंतु इस पूरे लेख में तीन वक्ताओं के इर्द गिर्द पूरे विषय को समेटने का प्रयास होगा और यह प्रयास भी होगा कि उनके विचारों की समीक्षा और समालोचना भी हो सके।

प्रभाष जी ने अपने पूरे सम्बोधन में दो प्रमुख विषयों को स्पर्श किया एक तो यह कि भारत में पत्रकारिता बाजारमूलक हो गयी है और इसका उद्देश्य मुनाफा कमाना हो गया है और अब यह लोकहित से सरोकार रखने के स्थान पर ब्राण्ड निर्माण के कार्य में लिप्त हो गयी है। दूसरा विषय जो वयोवृद्ध पत्रकार ने उठाया वह था सम्पादकों के स्तर में आ रही गिरावट इस सम्बन्ध में उन्होंने स्वाधीनता आन्दोलन का उदाहरण दिया कि किस प्रकार अंग्रेजों के आगे झुकने के स्थान पर स्वदेश में आठ सम्पादकों ने काला पानी की सजा झेलना अधिक पसन्द किया।

कार्यक्रम में दूसरे प्रमुख वक्ता जिन्होंने कुछ समग्रता में विषयों को स्पर्श किया वह थे राम बहादुर राय जिन्होंने पत्रकार से अधिक एक आन्दोलनकारी की भाँति अपने विचार रखे और वर्तमान समस्याओं के मूल में भारतीय संविधान को देखा।

कार्यक्रम के दूसरे सत्र में राष्ट्रीय स्वाभिमान आन्दोलन के राष्ट्रीय संयोजक के.एन. गोविन्दाचार्य ने जब अपने विचार रखे तो यह स्पष्ट हो गया कि यह कार्यक्रम उनके देश व्यापी आन्दोलन को एक हिस्सा है जिसके मूल में विचार यह है कि वे अपने विचार को अधिक प्रासंगिक और क्रियाशील कैसे बना सकते हैं? के.एन. गोविन्दाचार्य ने कोई नई बात नहीं रखी और वैश्वीकरण के दुष्प्रभावों वाले कैसेट को फिर से रिप्ले कर दिया फिर भी उन्हें पहली बार सुनने वालों के लिये यह नया था और सार्थक भी था। श्री गोविन्दाचार्य ने कुछ बातें कहीं कि वर्तमान व्यवस्था कुछ देशी और विदेशी शक्तियों के हित साधती है इसलिये इसे बदलना आवश्यक है यह बदलाव सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक तीनों स्तर पर होना चाहिये। गोविन्दाचार्य की अधिक मह्त्वपूर्ण बात यह रही कि आने वाली पीढी के सुखद भविष्य को सुनिश्चित करने के लिये आवश्यक है कि समाज में प्रत्येक व्यक्ति अपनी क्षमता के अनुसार कुछ न कुछ अवश्य करे और क्रियाहीन होकर हारकर न बैठे।

इस आलेख में केवल तीन वक्ताओं की बात इसलिये की गयी है कि इस संगोष्ठी के पीछे का जो चिंतन है वह इन तीन वक्ताओं के विचारों में ही ढूँढा जा सकता है क्योंकि ये तीनों ही एक विचारधारा के लोग हैं, तीनों ही 1977 के जयप्रकाश नारायण आन्दोलन से प्रभावित लोग हैं साथ ही उसके सूत्रधार भी रहे हैं, तीनों के व्यक्तित्व में 1975 के आपातकाल और उसके प्रतिरोध के संस्मरण हैं और कुछ हद तक ये तीनों लोग अब भी उस दौर से बाहर नहीं आ पाये हैं और उसी तर्ज पर एक और समग्र क्रांति की प्रतीक्षा और प्रयास में हैं।

प्रभाष जोशी ने अपने पत्रकारिता जीवन की सबसे बडी उपलब्धि बताई कि अब भी वे अपने ही हाथ से लिखते हैं, उनकी लेखनी में कोई कलम नहीं लगती और एक बार में ही वे लिख जाते हैं और ऐसा सीधा लिखते हैं कि लोग उसे फोटो स्टेट तक कह जाते हैं। यह उपलब्धि कुछ बातों की ओर संकेत करती है इसमें कहीं न कहीं पत्रकारिता में विकसित हो रही नयी तकनीकों का पर व्यंग्य और इन नयी तकनीकों के आत्मसात न होने की जिद है। प्रभाष जी अपनी बातें साहित्यिक अन्दाज में लाक्षणिक अन्दाज में भी कहते हैं और उनका यह विचार उनकी इसी धारा का प्रतिनिधि है। प्रभाष जी के इस वक्तव्य से वैश्वीकरण से पत्रकारिता में आ रहे दो बदलावों की ओर संकेत जाता है एक तो बाजारोन्मुख पत्रकारिता और दूसरा तकनीक प्रधान पत्रकारिता। बाजारोन्मुख पत्रकारिता वैश्वीकरण के पूरे व्याकरण की ओर संकेत करती है जिसमें व्यापक बहस की गुंजायश है कि क्या वैश्वीकरण के चलते मूल्यों में बदलाव आ रहा है। दूसरा बदलाव तकनीक का है। यही दोनों बदलाव पिछले कुछ वर्षों में पूरे समाज में भी देखने को मिल रहे हैं कि मूल्यों में और तकनीक के स्तर पर बदलाव आया है।

अब इसमें प्रश्न यह है कि इन परिस्थितियों में क्या हो सकता है? सहज है कि तकनीक को अपनाया जाये और मूल्यों के बदलाव के कारणों पर विचार हो। अपने पूरे व्याख्यान में प्रभाष जी ने समस्यायें गिनाईं पर अपने स्तर से कोई समाधान नहीं सुझाया।

इसके पीछे प्रमुख कारण यह है कि तीनों ही लोग यानी प्रभाष जी , राम बहादुर राय जी और और गोविन्दाचार्य जी इस पूरी समस्या को एक आर्थिक ईकाई के रूप में ले रहे हैं और समाधान के मूल में व्यवस्थागत परिवर्तन को मानकर चल रहे हैं परंतु इस समस्या के मूल में और समाधान में आस्थागत पक्ष को छोड दिया गया है जो कि वैश्वीकरण से मुक्ति का मंत्र है। वर्तमान सन्दर्भ में आस्था को जिस प्रकार साम्प्रदायिकता से जोडकर उस पर बहस से बचने का प्रयास हो रहा है उससे ही सारी समस्या है।

परिवर्तन तो प्रकृति का नियम है जो विचार समाज के बदलते स्वरूप के साथ अपने को आत्मसात नहीं करता वही कट्टरपंथी या फण्डामेंटलिस्ट कहा जाता है इसी कारण यदि आज प्रछन्न भोगवादी संस्कृति वैश्वीकरण के मूल में समाज में अपनी पकड बना रही है तो इसके पीछे हमारे द्वारा ही प्रदान की गयी शून्यता है जो हमने तथाकथित सेकुलरिज्म के नाम पर आस्था और धर्म को छोडकर समाज को प्रदान की है। आज कोई भी पत्रकार अपने जीवन में हिन्दू संस्कृति के मूल्यों, परम्पराओं और मान्यताओं के आधार पर आचरण नहीं कर सकता क्योंकि ऐसा करने पर उसे तथाकथित कुलीन बिरादरी का प्रमाणपत्र नहीं मिलेगा और उसके लिये सेकुलर होने का अर्थ धर्मविरोधी होना ही है। यही बात हर बौद्धिक व्यक्ति के सम्बन्ध में भी लागू होती है। अपनी आस्थाओं को छोडकर हमने समाज में एक शून्यता का वातावरण दिया जिसकी पूर्ति आज वैश्वीकरण के विचार और आचरण से हो रही है।

रामबहादुर राय जी ने देश की सभी समस्याओं का कारण भारत के संविधान को बताया परंतु यह भी स्थाई समाधान नहीं है आखिर कौन सा संविधान देश में आयेगा और वह संविधान किस मात्रा में वर्तमान संविधान से भिन्न होगा। क्या आज यह साहस किसी में है कि वह स्वामी विवेकानन्द की भाँति अमेरिका की छाती पर चढकर उसके धर्म की सारहीनता सिद्ध कर सके और उसे बता सके कि वैश्वीकरण का विचार स्वतंत्रता और समानता के भाव का विरोधी है। आज वैश्वीकरण के विरोध के नाम पर नये विचारों और नयी तकनीक से आतंक और पलायन का भाव रखने वाले लोग बडी मात्रा में इस आवाज में शामिल हो रहे हैं जिससे यह पूरा अभियान एक विभ्रम की स्थिति का निर्माण कर रहा है। वैश्वीकरण एक आधुनिक धर्म है जो सेकुलरिज्म के नाम पर नास्तिक और आस्थाहीन होने की प्रवृत्ति का परिणाम है। परंतु आज वैश्वीकरण के नाम पर चल रही बहस को पूरी तरह आर्थिक आधार पर चलाया जा रहा है और इसके समाधान भी आर्थिक और राजनीतिक आधार पर खोजे जा रहे हैं ऐसे में इस पूरे आन्दोलन के एक विचारधारा विरोधी दूसरी विचारधारा हो जाने के अवसर अधिक हैं।

श्री गोविन्दाचार्य जी ने अपने पूरे वक्तव्य में वैश्वीकरण के समाधान के रूप में लोभ, मोह और क्रोध से परे रहने की बात की परंतु यह तो तभी सम्भव है जब जीवन में आस्था और साधना हो और इसके लिये आवश्यक है कि नयी पीढी का जीवन धर्म प्रेरित हो और बहस इस बात पर हो कि समाज के प्रत्येक क्षेत्र में धर्म का शासन हो और इस क्रम में सेकुलरिज्म की पश्चिमी अवधारणा और धर्म की भारत की परम्परा पर बहस हो। गोविन्द जी की बात से स्पष्ट था कि वे समाज में बढ्ती सामाजिक संवेदनहीनता हो अनुभव कर रहे हैं पर इसका भाव तो तभी आयेगा जब जीवन में धर्म होगा। आज विश्व के सभी प्रयोग असफल हो चुके हैं और वैश्वीकरण विचार के रूप में एक अंतिम पश्चिमी प्रयास है पर हमें याद रखना चाहिये कि इसमें तकनीक भी एक पक्ष है है और मार्केटिंग भी एक तकनीक है और वैश्वीकरण के इस पक्ष को स्वीकार करना चाहिये और इसके विचार से उपजी प्रछन्न भोगवादी संस्कृति को अपने धर्म के शस्त्र से काटना चाहिये।

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क्या हिन्दुओं का धैर्य जबाब दे रहा है?

Posted by amitabhtri on अगस्त 22, 2008

अपने विद्यालय के दिनों में मैने एक कहानी पढी थी जिसकी शिक्षा यह थी कि किसी व्यक्ति की स्वतंत्रता वहीं तक है जहाँ से दूसरे की नाक आरम्भ होती है। अचानक यह कहानी पिछले दिनों तब याद आ गयी जब एक टीवी चैनल के कार्यक्रम में कश्मीर को लेकर एक विशेष परिचर्चा आयोजित की गयी और उसका विषय था कि क्या अब कश्मीर आजादी के लिये तैयार है? इस कार्यक्रम की महिला प्रस्तोता ने देश के तीन तथाकथित उदारवादी लेखकों को इस सम्बन्ध में उद्धृत किया और वे लेखक है देश के अग्रणी अंग्रेजी समाचार पत्र के सम्पादक वीर सांघवी, एक और प्रसिद्ध अंग्रेजी दैनिक में साप्ताहिक स्तम्भ लिखने वाले स्वामीनाथन अय्यर और प्रसिद्ध लेखिका अरुन्धती राय। इन तीनों ने एकस्वर से कहा कि अब समय आ गया है कि कश्मीर को आजाद कर दिया जाये क्योंकि बन्दूक के बल पर भारत सरकार इस राज्य को अपने पास नहीं रख सकती। टीवी पर कार्यक्रम देखकर और इन तीन तथाकथित बुद्धिजीवियों के विचार देखकर मन में एक ही प्रश्न उठ रहा था कि जम्मू में जो कुछ हो रहा है कहीं उस ओर से ध्यान हटाकर पूरे आन्दोलन पर एक दबाव बनाने के किसी बडे प्रयास का हिस्सा तो नहीं हैं ऐसे बयान। ऐसा सोचने के पीछे कुछ कारण हैं। जम्मू का विषय पूरी तरह भिन्न है और यह आन्दोलन किसी भी प्रकार मुस्लिम विरोधी या कश्मीर विरोधी नहीं है। इस आन्दोलन को धार्मिक आधार पर और पाकिस्तान के समर्थन में ध्रुवीक्रत करने का प्रयास कुछ देश विरोधी तत्व और पाकिस्तान परस्त तत्व कर रहे हैं और इस कार्य में उनका सहयोग लोकतंत्र और उदारवाद के नाम पर वे बुद्धिजीवी कर रहे हैं जिनका पिछला रिकार्ड भी किसी भी प्रकार देश में राष्ट्रवाद का विरोध करना रहा है। इन तथाकथित बुद्धिजीवियों के सन्दर्भ में ही मुझे अपने बचपन में पढी कहानी की शिक्षा याद आ गयी। कश्मीर भारत की नाक है जो न केवल भारत का अभिन्न अंग है वरन वह एक बिन्दु है जो भारत के विभाजन के उपरांत भी देश में सही मायनों में पंथ निरपेक्षता की गारण्टी देता है और भारत की उस इच्छाशक्ति को प्रदर्शित करता है जो कश्मीर के निर्माण के बाद से ही उस पर धार्मिक आधार पर दावा करने वाली पाकिस्तानी मानसिकता को कुचलती रही है। आज उसी कश्मीर पर फिर सवाल उठाये जा रहे हैं तो क्या वास्तव में कश्मीर में कोई संकट है। निश्चित रूप से संकट है और आज जम्मू में जो भी आन्दोलन चल रहा है वह उसी समस्या की भयावहता की ओर संकेत करता है।

दुर्भाग्य का विषय है कि हमारे राजनेता और तथाकथित उदारवादी बुद्धिजीवी इस पूरी समस्या के मूल में झाँकने का प्रयास नहीं करते। जम्मू के आन्दोलन को भूमि का विवाद बताया जा रहा है। लेकिन ऐसा नहीं है यह अस्तित्व की लडाई और अपने ही देश में बहुसंख्यक होकर भी असुरक्षा के भाव में जी रहे हिन्दुओं की हुँकार है। जम्मू में पूरा आन्दोलन देखने में तो एक भूमि विवाद लगता है पर यह जम्मू और कश्मीर के बीच पिछले साठ वर्षों से हो रहे विभेद और कश्मीरियत के नाम पर पूरे क्षेत्र के इस्लामीकरण के विरोध में मुखर आवाज है।

जम्मू में अमरनाथ की तीर्थ यात्रा को सुचारू रूप से संचालित करने के लिये जब अमरनाथ श्राइन बोर्ड को कुछ एकड की भूमि अस्थाई निर्माण के लिये पूरी सरकारी खानापूरी के बाद दी गयी तो इसे लेकर कश्मीर में देश विरोधी और पाकिस्तान परस्त तत्वों ने गलत प्रचार किया कि यह कश्मीर की भूजनाँकिकी बिगाड्ने का प्रयास है ताकि बाहर से लाकर लोगों को यहाँ बसाया जा सके। अस्थाई निर्माण के लिये दी जाने वाली भूमि के लिये इन तत्वों ने कहा कि यह धारा 370 का उल्लंघन है। इस झूठ के आधार पर कश्मीर के लोग सड्कों पर उतरे और पूरे राज्य में हिन्दुओं को 1989 का वह समय याद आ गया जब कुछ ही दिनों के नोटिस पर पाकिस्तान की तत्कालीन प्रधानमंत्री बेनजीर भुट्टो के उकसाने पर घाटी में जेहाद के स्वर गुंजायमान हुए थे और अपना सब कुछ छोड्कर 3 लाख से भी अधिक हिन्दुओं को अपने ही देश में शरणार्थी होने को विवश होना पडा। अमरनाथ श्राइन बोर्ड को जमीन देने के मामले में कश्मीर में जिस प्रकार कट्टरपंथियों के आह्वान पर लोग सड्कों पर उतरे उससे एक बार फिर जम्मू के जिहादीकरण का भी खतरा उत्पन्न होना स्वाभाविक ही था।

जम्मू के इस पूरे आन्दोलन को दो सन्दर्भों में समझने की आवश्यकता है। एक तो यह आन्दोलन स्थानीय विषय को लेकर जम्मू के लोगों में जमीन अमरनाथ श्राइन बोर्ड से जमीन वापस लेने के कारण इस अन्याय को लेकर उत्पन्न विक्षोभ का परिणाम था परंतु इस विषय से समस्त देश के हिन्दुओं का भाव जुड गया और पूरे देश में तथाकथित धर्मनिरपेक्षता के नाम पर हो रहे मुस्लिम तुष्टीकरण के नग्न प्रदर्शन और एक प्रकार से इसके राजनीतिक शिष्टाचार बन जाने की हिन्दुओं की पीडा ने इस विषय के साथ पूरे देश को जोड दिया।

आधुनिक भारत के इतिहास में यह पहला अवसर है जब किसी स्वतःस्फूर्त आन्दोलन ने इतने लम्बे समय तक निरंतरता का प्रदर्शन किया है और हर बीतते हुए दिन में उसमें और भी प्रखरता आती गयी है। जो लोग इस आन्दोलन को भाजपा या राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ प्रेरित मानकर चल रहे हैं उनके आकलन में भूल है और वे एक बार फिर देश में हो रहे परिवर्तन को या तो भाँप नहीं पा रहे हैं या फिर उन्हें हिन्दुओं के स्वभाव को लेकर कुछ गफलत है। जम्मू के आन्दोलन को जो भी सामयिक सन्दर्भ में इसकी व्यापकता के साथ अनुभव नहीं कर रहा है वह बडी भूल कर रहा है और दुर्भाग्य से यह भूल हर ओर से हो रही है। जम्मू का आन्दोलन कश्मीरियित के नाम पर हिन्दू विहीन घाटी और इस्लामीकरण के लिये मार्ग प्रशस्त करती जिहादी मानसिकता के विरुद्ध आन्दोलन है। आज जम्मू अपने अस्तित्व की लडाई लिये सड्कों पर उतरा है जो अपने भाग्य में 1989 का कश्मीर नहीं लिखना चाहता। जम्मू उन घटनाओं की पुनराव्रत्ति नहीं चाहता जो कश्मीर में हुई जब हिन्दुओं के मानबिन्दुओं का एक एक कर नाम बदला जाता रहा, धर्म स्थल बदले जाते रहे और अंत में हिन्दुओं को घाटी छोड्ने पर विवश कर दिया गया। जम्मू में जिस प्रकार अमरनाथ श्राइन बोर्ड को अस्थाई निर्माण के लिये दी जाने वाले जमीन को कश्मीर में अलगाववादियों ने इस्लाम से जोड्कर देखा और इस राज्य से सांसदों ने संसद में घोषणा कर दी कि वे जान दे देंगे पर जमीन नहीं देंगे वह स्पष्ट संकेत था कि अब जम्मू कश्मीर राज्य पर अलगाववादियों और जेहादियों का शासन चलता है जो पाकिस्तान के साथ मिलने का ख्वाब देखते हैं क्योंकि यह उनका अधूरा सपना है जो पाकिस्तान के निर्माण के बाद भी पूरा नहीं हो सका था।

जम्मू का आन्दोलन किसी भी प्रकार साम्प्रदायिक या घाटी विरोधी नहीं था पर जिस प्रकार कश्मीर के अलगाववादी नेता खुलेआम इस्लाम और पाकिस्तान के पक्ष में नारे लगाने लगे और पाकिस्तान का झंडा लहरा कर भारत का राष्ट्रीय ध्वज जलाने लगे वह इन तत्वों को बेनकाब करने के लिये पर्याप्त था। कश्मीर के अलगववादी तत्वों ने एक और झूठ बोला कि जम्मू के लोगों ने नाकेबन्दी कर दी है और कश्मीर के लोगों को अलग थलग किया जा रहा है जबकि सर्वदलीय बैठक में हिस्सा लेने गयी महबूबा मुफ्ती ने भी पाया था कि जम्मू कश्मीर हाईवे पर परिवहन संचालन सामान्य था। फिर ऐसे झूठ क्यों? इस पूरे मामले पर समझौतावादी रूख अपनाने के स्थान पर पूरे मामले को कश्मीर की आजादी से क्यों जोडा जाने लगा? ये कुछ प्रश्न हैं जो जम्मू के आन्दोलन के निहितार्थ की ओर संकेत करते हैं।

जम्मू के आन्दोलन को यदि व्यापक सन्दर्भ में समझने से परहेज किया गया तो पूरे भारत में इस प्रकार के आन्दोलन आरम्भ हो जायेंगे। क्योंकि जम्मू का आन्दोलन एक महत्वपूर्ण तथ्य की ओर संकेत करता है कि अब हिन्दुओं का धैर्य जबाब दे रहा है और अपने धार्मिक संस्कारों के चलते उनकी सहजता को उनकी कायरता माना जाने लगा है और जिहादी शक्तियाँ तथा उनकी सहायक तथाकथित धर्मनिरपेक्ष शक्तियाँ हिन्दुओं को अपने ही देश में अस्तित्व की लडाई लड्ने को विवश कर रही हैं। संतोष का विषय है कि जम्मू का आन्दोलन अभी तक शांतिपूर्ण है परंतु जिस प्रकार अहमदाबाद और बंगलोर में हुए विस्फ़ोटों के बाद सिमी का रहस्य सामने आया है और भारत के ही मुसलमानों को अपने राज्य और हिन्दुओं का खून बहाते लोग देख रहे हैं ऐसे में इस बात की कल्पना करना मूर्खता ही होगी कि हिन्दुओं का धैर्य असीम है और यह जबाब नहीं दे सकता। अच्छा हो कि हमारे नेता और बुद्धिजीवी जम्मू के आन्दोलन में छुपे रहस्यों और तेजी से समस्त देश में फैल रहे इस आन्दोलन के पीछे छुपी हिन्दुओं की अतीन्द्रिय मानसिकता का समझने का प्रयास करें।

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सामाजिक सरोकारों से युक्त संत स्वामी अवधेशानन्द गिरि

Posted by amitabhtri on अगस्त 2, 2008

भारत एक धर्मप्राण देश है और इस देश में सर्वाधिक मान्यता संत परम्परा की है। देश की सनातन कालीन परम्परा में जब भी समाज को किसी भी दिशा में मार्गदर्शन की आवश्यकता हुई है तो उसने संत परम्परा की ओर देखा है और समाज को भी कभी निराश नहीं होना पडा। यूँ तो भारत में संतों के मार्गदर्शन की सम्पन्न परम्परा रही है परंतु आधुनिक समय में यदि किसी संत ने भारत के जनमानस और लोगों की अतीन्द्रियों को गहराई से प्रभावित किया है तो वह रहे हैं स्वामी रामक़ृष्ण परमहंस और स्वामी विवेकानन्द। एक ओर रामकृष्ण परमहंस ने दिग्भ्रमित हो रही और अपनी संस्कृति के प्रति हीनभावना के भाव से व्याप्त होकर ईसाइयत की ओर समाधान देख रही बंगाल की नयी पीढी को अपनी साधना और अनुभूति के बल पर हिन्दू धर्म के साथ बाँध कर रखा और फिर उनकी प्रेरणा से नरेन्द्र का स्वामी विवेकानन्द के रूप में अभ्युदय हुआ जिसने पश्चिम की धरती से वेदांत का उद्घोष किया और सदियों से अपनी संस्कृति के प्रति हीनभावना संजोये भारतवासियों को एक सिंह का शौर्य दिया जिसने भारत के स्वाधीनता आन्दोलन और पुनर्जागरण की नींव रखी। स्वामी विवेकानन्द की प्रेरणा से पूरा भारत तेजस्वी, विचारवान और ऊर्जावान नवयुवकों की उर्वरा भूमि बन गया और इस परम्परा ने भारत को ऐसे निष्ठावान और वीर पुरुष दिये जिन्होंने न केवल भारत को वरन समस्त विश्व को नयी राह दिखाई।

आज भारत पुनर्जागरण की उस परम्परा से विमुख हो गया है और सर्वत्र निराशा का वातावरण सा छाता जा रहा है। जहाँ भी देखो निराशा, टूटन और अविश्वास है ऐसे में अवतारवादी मान्यता का यह देश एक बार फिर ईश्वर के अवतरण की प्रतीक्षा कर रहा है लेकिन क्या स्वामी विवेकानन्द ने यही पराक्रम और पुरुषार्थ बताया था। निश्चित रूप से नहीं उन्होंने हिन्दू धर्म की उस विलक्षण और उदात्त परम्परा का बोध कराया था जो नर के नारायण बनने की प्रक्रिया में विश्वास करती है। जो कहती है कि इस शरीर में वही परमात्मा वास करता है जो सृष्टि का संचालक भी है। आज इसी उदात्त परम्परा का ध्यान रखते हुए हमें अपने बीच में ही उन प्रेरणा पुरुषों को ढूँढना होगा जो देश के इस निराशा, व्याकुलता और पराजित की सी मानसिकता के धुन्ध को छाँट कर समाज को नयी दिशा दे सकें। क्या देश में संतों की इस विशाल परम्परा में ऐसा कोई संत नहीं दिखता जो सामाजिक सरोकार से जुडा हो, जिसकी दृष्टि इतनी व्यापक हो कि हिन्दू धर्म को वैश्विक परिदृश्य में देख सके और भारत ही नहीं वरन समस्त विश्व की समस्या का समाधान सुझा सके। इस लेखक ने अपनी अल्पबुद्धि के आधार पर ऐसे संत को ढूँढ निकाला है।

अभी पिछ्ले दिनों गुरु पूर्णिमा के अवसर पर हरिद्वार में जूना अखाडा के आचार्य महामण्डलेश्वर स्वामी अवधेशानन्द गिरि जी से मिलने का अवसर प्राप्त हुआ। यह मुलाकात कुछ संयोग पर आधारित थी और उस दिन के बाद अनेक अवसरों पर काफी लम्बे अंतराल बिताने का अवसर उनके साथ प्राप्त हुआ। हरिद्वार में अपने आश्रम में उन्होंने गुरू पूर्णिमा के इस अवसर पर इजरायल के भारत के उप राजदूत और नेपाल के पूर्व प्रधानमंत्री कृष्ण प्रसाद भट्टराई को भी आमंत्रित किया था। यह पहला उदाहरण है जो उनकी व्यापक दृष्टि की ओर संकेत करता है। इजरायल के उच्चायुक्त को बुलाने के पीछे उनका उद्देश्य उस संकल्प को आगे बढाना था जो उन्होंने इस वर्ष के आरम्भ में इजरायल की यात्रा में प्रथम हिन्दू-यहूदी सम्मिलन के अवसर पर लिया था। इजरायल की निर्मिति के साठ वर्षों के उपलक्ष्य में इस देश ने एक विशाल सम्मेलन आयोजित किया था और उस सम्मेलन में भारत का प्रतिनिधित्व स्वामी जी ने किया था। इस सम्मेलन में भाग लेने के बाद स्वामी जी को इजरायल के प्रति लगाव उत्पन्न हुआ है और इसी का परिणाम है कि वे अनेक ऐतिहासिक समानताओं की पृष्ठभूमि में भारत और इजरायल की रणनीतिक और सांस्क़ृतिक मित्रता के लिये सामाजिक स्तर पर दोनों देशों में व्यापक समझ विकसित करना चाहते हैं। इसी पहल के पहले चरण के रूप में उन्होंने अपने श्रृद्धालुओं के मध्य इजरायल के उच्चायुक्त को बोलने का अवसर दिया और ऐसा पहला अवसर था जब सामान्य भारतवासियों के मध्य इजरायल के किसी प्रतिनिधि ने अपने देश की भावनायें प्रकट की। देखने में या सुनने में यह सामान्य घटना भले ही लगे परंतु इस विचार के पीछे के विचार को समझने की आवश्यकता है।

स्वामी अवधेशानन्द गिरि में अनेक सम्भावनायें दिखती हैं और ऐसी सम्भावनाओं के पीछे कुछ ठोस कारण भी हैं। पिछले कुछ दिनों में स्वामी जी को काफी निकट से देखने का और उन्हें परखने का अवसर भी मिला। देश के एक प्रसिद्ध अखाडे के प्रमुख होते हुए भी उनकी सोच सामान्य कर्मकाण्ड, पीठ को बढाने या फिर शिष्य़ परम्परा के विकसित होने में ही सारी ऊर्जा लगा देने के बजाय उनका ध्यान समाज, राष्ट्र और मानवता के कल्य़ाण के लिये ही अधिक रहता है। अनेक अवसरों पर उनसे बात करने और कुछ महत्वपूर्ण बिन्दुओं पर उनसे चर्चा का अवसर मिला और इस अवसर में अनेक ऐसी बातें पता लगीं जो संत के एक सामाजिक सरोकार के पक्ष को प्रस्तुत करती है।

स्वामी अवधेशानन्द गिरि का जो सर्वाधिक योगदान समाज को है उसकी कथा झाबुआ से आरम्भ होती है। मध्य प्रदेश का एक अत्यंत पिछडा क्षेत्र जिसमें पानी का इतना अभाव है कि लोग छ्ह महीनों के लिये यह क्षेत्र छोडकर चले जाते है और अपने पीछे अपने मवेशियों को निस्सहाय छोड जाते हैं। स्वामी जी को इस क्षेत्र की इस समस्या के बारे में पाँच वर्ष पहले पता चला और उसी समय उन्होंने यहाँ एक प्रकल्प आरम्भ किया कि किस प्रकार यहाँ जलाभाव की स्थिति से निबटा जाये और इसके लिये बडे पैमाने पर शोध और अनुसन्धान हुए और पिछले पांच वर्षों में इस क्षेत्र की काया बदल गयी और अब यह क्षेत्र सोच भी नहीं सकता कि कभी यहाँ जल का अभाव था। लेकिन स्वामी जी का संकल्प इससे भी आगे है। इस क्षेत्र में शिक्षा और स्वालम्बन के प्रयास भी हो रहे हैं। अब इस संकल्प की चरम परिणति यह है कि इस क्षेत्र के लोग आदर्श व्यक्ति बन सकें और प्रत्येक दृष्टि से आत्मनिर्भर हों। इस क्षेत्र में किये गये प्रयासों का परिणाम है कि अब इस क्षेत्र में आक्रामक गति से हो रहा धर्मांतरण भी रुक गया है क्योंकि इस क्षेत्र में आस्था और श्रृद्धा जगाने के लिये लोगों के घरों में शिवलिंग की स्थापना की गयी और अनेक अद्भुत यज्ञ कराये गये।

स्वामी अवधेशानन्द गिरि में अधिक सम्भावनायें इस कारण दिखती हैं कि उन्होंने विश्व के समक्ष और भारत के समक्ष प्रस्तुत चुनौतियों को सही सन्दर्भ में लिया है। उनकी दृष्टि में विश्व में एक प्रवृत्ति तेजी से बढ रही है और वह है भण्डारण की प्रवृत्ति या अधिक से अधिक अपने अधिकार में वस्तुओं को ले लेने की प्रवृत्ति। लेकिन इसके लिये कुछ महाशक्तियों को दोष देने या प्रवचन तक सीमित रहने के स्थान पर उन्होंने इसका एक समाधान भी खोजा है। यह समाधान उनके स्वप्निल प्रकल्प अवधेशानन्द फाउण्डॆशन में है। कुल 130 एकड की परिधि का प्रस्तावित यह प्रकल्प वास्तव में अपने सांस्कृतिक बीजों के संरक्षण का महासंकल्प है। इस फाउण्डॆशन के द्वारा भारत की बहुआयामी संस्कृति का वास्तविक दर्शन हो सकेगा। विशुद्ध सांस्क़ृतिक परिवेश में, प्रकृति की छाँव में पर्यावरण के प्रदूषण से रहित विचार, अन्न और संस्कार प्राप्त शिशु जब युवक युवती बन कर यहाँ से निकलेंगे तो वे भारत की संस्कृति के ऐसे प्रचारक होंगे जो अपने-अपने क्षेत्रों में एक बहुमूल्य रत्न होंगे। यह फाउण्डेशन यहाँ निर्मित होने वाले बच्चों को इस बात के लिये प्रेरित करेगा कि वे अपनी संस्कृति के मूल्यों, भाषा, भूषा, भोजन के संरक्षण के साथ ही विश्व की परिस्थितियों, भाषा और संस्कृतियों से भी पूरी तरह भिज्ञ हों। निश्चय ही यह संकल्प हमें स्वामी विवेकानन्द के संकल्प की याद दिलाता है जिन्होंने निष्ठावान, चरित्रवान और संस्कृतिनिष्ठ युवकों के निर्माण को सभी समस्याओं का समाधान बताया था। यहाँ तक कि जब राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संस्थापक डा. हेडगेवार ने भी देश की समस्याओं की ओर देखा तो उन्हें चरित्र निर्माण में ही राष्ट्र निर्माण का समाधान दिखा।

स्वामी अवधेशानन्द गिरि का यह संकल्प और यह प्रयास उन्हें सामान्य प्रवचन या समस्त बुराइयों के लिये पश्चिम की संस्कृति को दोष देते रहने के दायरे से बाहर लाकर व्यापक दायरे में लाता है जहाँ से वे राष्ट्र के भविष्य़ को भी सुरक्षित रखने का प्रयास कर रहे है। स्वामी अवधेशानन्द गिरि के इस विशाल संकल्प की तुलना वर्तमान समय में किसी संकल्प से की जा सकती है तो वह स्वामी रामदेव के पतंजलि योगपीठ है। जिस प्रकार स्वामी रामदेव ने महर्षि पतंजलि की परम्परा को आगे बढाकर भारत की लुप्तप्राय हो रही चिकित्सा पद्धति और योग परम्परा को नवजीवन प्रदान कर भारत की प्राचीन संस्कृति का सातत्य प्रवाहमान किया ठीक उसी प्रकार स्वामी अवधेशानन्द गिरि भारत के संस्कारों और मूल्यों का बीज सुरक्षित रखने का गुरुतर कार्य करने जा रहे हैं। संकल्पों की इस समानता के आधार पर यह निष्कर्ष निकालना अतिशियोक्ति नहीं होगी कि शायद यही महापुरुष सामाजिक सरोकार से जुडे वे संत हैं जो न केवल भारत वरन समस्त विश्व को नयी दिशा देने जा रहे हैं।

स्वामी अवधेशानन्द गिरि एक व्यावहारिक संत हैं जो परिस्थितियों के अनुसार स्वयं को ढालना जानते हैं और जटिल कर्मकाण्डों और आनुष्ठानिक संत होने के बाद भी विदेशों में अपनी लोकप्रियता अपनी गरिमा के साथ बनाये रख सके हैं। विदेश के अनेक देशों का दौरा वे इस विचार के साथ कर रहे हैं कि विदेश में बसे हिन्दुओं को सन्देश दे सकें कि उन्हें भारत को पितृऋण भी चुकाना है केवल डालर का निवेश करने से अपनी मातृभूमि के प्रति उनका कर्तव्य समाप्त नहीं हो जाता उन्हें इससे भी अधिक कुछ करने की आवश्यकता है। यह भी एक दैवीय योग है कि जब स्वामी विवेकानन्द ने पश्चिम की धरती से वेदांत का उद्घोष किया था तो उस समय भी भारत घोर निराशा के वातावरण में था और विश्व संकीर्ण साम्प्रदायिक तनाव की दहलीज पर था और आज भी देश और विश्व में कमोवेश वही स्थिति है। धर्म के नाम पर खून की नदियाँ बह रही हैं और क्रूरता, बर्बरता तथा पाशविकता को धर्म का दायित्व बताया जा रहा है। ऐसी स्थिति में विश्व को आध्यात्म रूपी ताजा हवा का झोंका चाहिये।

स्वामी अवधेशानन्द गिरि अपने संकल्पों , विचारों और प्रयासों से एक सुखद भविष्य का दर्शन कराते हुए दिखते हैं साथ ही उनकी ऊर्जा और सामाजिक सरोकार के प्रति उनकी उद्विग्नता उन्हें अनेक समस्याओं के समाधान के रूप में प्रस्तुत करती है।

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