कैसे लडें जिहाद से?
Posted by amitabhtri पर सितम्बर 21, 2008
भारत जिहाद नामी इस्लामी आतंकवाद से पिछले दो दशक से लड रहा है परंतु इसका वैश्विक स्वरूप विश्व के समक्ष 11 सितम्बर 2001 के साथ आया। जिन दिनों भारत इस्लामी आतंकवाद से लड रहा था उन दिनों अमेरिका सहित पश्चिमी विश्व के लोग भारत में कश्मीर केन्द्रित आतंकवाद को स्वतंत्रता की लडाई मान कर हाथ पर हाथ धरे बैठे थे। लेकिन क्या भारत ने कभी अपने देश में चल रहे आतंकवाद को परिभाषित कर उससे लड्ने की कोई रणनीति अपनाई? कभी नहीं? इसके पीछे दो कारण हैं। एक तो इस समस्या को वैश्विक परिदृश्य में कभी देखने का प्रयास नहीं हुआ और दूसरा इस आतंकवाद के विचारधारागत पक्ष पर कभी ध्यान नहीं दिया गया। भारत में आतंकवाद के लिये सदैव पडोसी देश को दोषी ठहरा कर हमारे नेता अपने दायित्व से बचते रहे और तो और आतंकवाद के इस्लामी पक्ष की सदैव अवहेलना की गयी और मुस्लिम वोटबैंक के डर से इसे चर्चा में ही नहीं आने दिया गया।
भारत ने जिहाद प्रेरित इस इस्लामी आतंकवाद से लड्ने के तीन अवसर गँवाये हैं। पहली बार जब 1989 में इस्लाम के नाम पर पकिस्तान के सहयोग से कश्मीर घाटी में हिन्दुओं को भगा दिया गया तो भी इस समस्या के पीछे छुपी इस्लामी मानसिकता को नहीं देखा गया। यह वह अवसर था जब राजनीतिक इच्छाशक्ति के द्वारा हिन्दुओं के पलायन को रोककर जिहाद को कश्मीर में ही दबाया जा सकता था। वह अवसर था जब पाकिस्तान के विरुद्ध कठोर कार्रवाई कर जिहाद के इस भयावह स्वरूप से भारत को बचाया जा सकता था। इसके बाद दूसरा अवसर हमने 1993 में गँवाया जब जिहाद प्रेरित इस्लामी आतंकवाद कश्मीर की सीमाओं से बाहर मुम्बई पहुँचा। इस अवसर पर भी इस घटना को बाबरी ढाँचे को गिराने की प्रतिक्रिया मानकर चलना बडी भूल थी और यही वह भूल है जिसका फल आज भारत भोग रहा है। तीसरा अवसर 13 दिसम्बर 2001 का था जब संसद पर आक्रमण के बाद भी पाकिस्तान के विरुद्ध कोई कार्रवाई नहीं की गयी। यह अंतिम अवसर था जब भारत में देशी मुसलमानों को आतंकवाद की ओर प्रवृत्त होने से रोका जा सकता था। इस समय तक भारत में आतंकवाद का स्रोत पाकिस्तान के इस्लामी संगठन और खुफिया एजेंसी हुआ करते थे और भारत के मुसलमान केवल सीमा पार से आने वाले आतंकवादियों को सहायता उपलब्ध कराते थे। इसके बाद जितने भी आतंकवादी आक्रमण भारत पर हुए उसमें भारत के जिहादी संगठन लिप्त हैं।
अब देखने की आवश्यकता है कि चूक क्यों हुई? एक तो भारत में 1989 के बाद उत्पन्न हुई परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए कभी वैश्विक सन्दर्भ में जिहाद और इस्लाम को समझने का प्रयास नहीं किया गया।
आज वैश्विक स्तर पर हम जिस जिहाद की धमक देख रहे हैं या जिस अल कायदा का स्वरूप हमारे समक्ष है वह एक शताब्दी के आन्दोलन का परिणाम है। बीसवीं शताब्दी में मिस्र नामक देश में मुस्लिम ब्रदरहुड नामक उग्रवादी मुस्लिम संगठन का निर्माण हुआ और यह इसे वैचारिक पुष्टता प्रदान करने वाले मिस्र के सैयद कुत्ब थे। जिन्हें 19966 में तत्कालीन राष्ट्रपति ने मिस्र सरकार को अपदस्थ करने के षडयंत्र को रचने के आरोप में मृत्युदण्ड दे दिया था। सैयद कुत्ब ने नये सन्दर्भ में जिहाद की अवधारणा दी और इस्लाम की राजनीतिक भूमिका निर्धारित की। उन्होंने उम्मा को सक्रिय करने और जाहिलियत का सिद्धांत दिया। सैयद कुत्ब के अनुसार इस्लाम का शरियत और क़ुरान आधारित विशुद्ध शासन समय की माँग है और इसके लिये जिहाद द्वारा राज्य के शासन अपने हाथ में लेना इसका तरीका है। कुत्ब के जाहिलियत के सिद्धांत के अनुसार जो इस्लामी देश पश्चिम के देशों के हाथ की कठपुतली हैं उनके विरुद्ध भी जिहाद जायज है। कल पाकिस्तान में हुआ विस्फोट इसी सिद्धांत के अनुपालन में किया गया है। सैयद कुत्ब ने पश्चिम की संस्कृति को अनैतिक और जाहिल करार दिया और इसके विरुद्ध जिहाद का आह्वान किया। सैयद कुत्ब की मृत्यु के उपरांत उनके भाई मोहम्मद कुत्ब ने उनके साहित्य को आगे बढाया। उन पर पुस्तकें और टीका लिखीं और अयमान अल जवाहिरी तथा ओसामा बिन लादेन जैसे अल कायदा के प्रमुखों के लिये प्रेरणास्रोत बने।
आज भारत में जब इस्लामी आतंकवाद और जिहाद की बात होती है तो इसे 1992 के राम मन्दिर आन्दोलन से जोड कर इस्लामी प्रतिक्रिया मान लिया जाता है। परंतु यह बात दो बातों को प्रमाणित करती है। या तो लोग अनभिज्ञ हैं या फिर जान बूझकर झूठ बोलते हैं। 1991 से वैश्विक स्तर पर जिहाद में एक नया परिवर्तन आया था और ओसामा बिन लादेन ने इंटरनेशनल इस्लामिक फ्रंट की स्थापना की दिशा में कदम बढा लिया था। 1993 में इस फ्रंट की ओर से पहली बार एक घोषणापत्र पर हस्ताक्षर हुए और ईसाइयों तथा यहूदियों के विरुद्ध जिहाद का आह्वान किया गया। इस आह्वान के बाद विश्व में पश्चिम के अनेक प्रतिष्ठानों पर आक्रमण होने लगे।
अल कायदा का जिहादवाद कुछ सिद्धांतों को लेकर चल रहा था और उसमें एक प्रमुख सिद्धांत था मुस्लिम उत्पीडन की अवधारणा। उनके जिहाद का कारण विश्व में शरियत और कुरान के आधार पर एक नयी विश्व व्यवस्था का निर्माण करना और मुस्लिम उत्पीडन का बदला लेना। इस विचारधारा ने समस्त विश्व के मुसलमानों को बडी तेजी से अपनी ओर आकर्षित किया और एक दशक में अल कायदा का जिहादवाद अनेक विचारधाराओं के समाधान के रूप में देखा जाने लगा और खिलाफत संस्था के पुनर्जीवित होने का स्वप्न सभी देखने लगे।
अल कायदा के विकास को इस सन्दर्भ में समझने की आवश्यकता है कि वह विश्व भर के मुसलमानों के एक बडे वर्ग के लिये अनेक समस्याओं के समाधान के रूप में जिहाद को प्रस्तुत करता है।
आज भारत में भी मुस्लिम समाज का कोई न कोई वर्ग विश्व पर इस्लामी शासन की स्थापना के स्वप्न के अंश के रूप में भारत को भी इस्लामी शासन के अंतर्गत लाने की सोच रखता है। आज हमें इस पूरे जिहादवाद को समझना होगा कि यह अब किसी एक संगठन या नेतृत्व द्वारा प्रेरित नहीं है और इसमें प्रत्येक देश के इतिहास और सोच के सन्दर्भ में इसकी व्याख्या हो रही है। लेकिन इंडियन मुजाहिदीन पूरी तरह अल कायदा की सोच और तकनीक पर काम कर रहा है। उसके आक्रमण और मीडिया प्रबन्धन में यह झलक देख चुके हैं। 15 वर्ष पूर्व यदि अल कायदा ने अमेरिका और पश्चिम तथा पश्चिम के हाथ की कठपुतली बने अरब देशों का विषय उठाया था तो इंडियन मुजाहिदीन पूरी तरह भारत के मुसलमानों से जुडे विषय उठा रहा है। परंतु मूल सिद्धांत एक ही है मुस्लिम उत्पीडन की काल्पनिक अवधारणा से आम मुसलमानों को अपनी ओर आकर्षित करना और जिहाद द्वारा इस्लामी राज्य स्थापित करने की चेष्टा। पिछले कुछ वर्षों में विश्वस्तर पर वामपंथी भी पूँजीवाद के प्रतीक अमेरिका के विरुद्ध अपनी लडाई में जिहादवादी इस्लामवादी आतंकवादियों को अपना सहयोगी मान कर चल रहे है यही तथ्य भारत में नक्सलियों और माओवादियों के साथ भी है। कभी कभी तो ऐसा लगता है कि भारत में व्यवस्था परिवर्तन का आन्दोलन चलाने वाले भी जाने अनजाने जिहादवादियों के तर्कों का समर्थन करते दिखते हैं।
आज प्रश्न यह है कि इस जिहाद से मुक्ति कैसे मिले? भारत में यह समस्या अत्यंत जटिल है क्योंकि भारत में हिन्दू मुस्लिम सम्बन्धों की कटुता की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि है और इस बात की आशंका है कि जिहाद की वर्तमान अवधारणा धार्मिक विभाजन को अधिक प्रेरित कर सकती है। जिहाद से लड्ने के लिये राज्य स्तर पर और सामाजिक स्तर पर रणनीति बनानी पडेगी। यह काम किसी भी प्रकार तुष्टीकरण से सम्भव नहीं है और इसका एकमात्र उपाय व्यापक जनजागरण है। व्यापक स्तर पर इस्लाम पर बहस हो। इस्लाम और इस्लामी आतंकवाद के आपसी सम्बन्धों पर बह्स से बचने के स्थान पर इस विषय पर बह्स की जाये और मुसलमानों को अपनी स्थिति स्पष्ट करने को बाध्य किया जाये। यदि मुसलमान आतंकवाद के साथ नहीं हैं तो पुलिस को अपना काम करने दें और जांच में या आतंकवादियों के पक़डे जाने पर मुस्लिम उत्पीडन का रोना बन्द करें। आज देश में प्रतिक्रियावादी हिन्दुत्व का विकास रोकने क दायित्व मुसलमानों पर है हिन्दुओं पर नहीं। यदि क़ुरान आतंकवाद की आज्ञा नहीं देता और देश के मुसलमान जिहाद से सहानुभूति नहीं रखते तो उन्हें इसे सिद्ध करना होगा अपने आचरण से। अन्यथा इस समस्या को धार्मिक संघर्ष का रूप लेने से कोई नहीं रोक सकता।
सुरेश चंद्र गुप्ता said
बहुत अच्छा और सटीक विश्लेषण किया है आपने इस समस्या और उस के निदान का. मैं भी यही विचार रखता हूँ. सरकार और राजनीतिबाजों से कोई उम्मीद रखना बेकार है. वह तो ख़ुद ही परोक्ष या अपरोक्ष रूप से आतंकवाद का समर्थन करते रहते हैं. स्वघोषी बुद्धिजीविओं से भी कोई उम्मीद रखना बेमानी होगा. यह तो अपना जमीर ही बेच चुके हैं और खुल कर आतंकवादिओं के हाथों में खेल रहे हैं. उमीद अगर हो सकती है तो वह है आम आदमी से. आम आदमी, जो हिंदू, मुसलमान, सिख, इसाई और अन्य वर्गों से आता है. आपकी यह सलाह बिल्कुल सही है:
“जिहाद से लड्ने के लिये ……….. सामाजिक स्तर पर रणनीति बनानी पडेगी। यह काम किसी भी प्रकार तुष्टीकरण से सम्भव नहीं है और इसका एकमात्र उपाय व्यापक जनजागरण है। व्यापक स्तर पर इस्लाम पर बहस हो। इस्लाम और इस्लामी आतंकवाद के आपसी सम्बन्धों पर बह्स से बचने के स्थान पर इस विषय पर बह्स की जाये और मुसलमानों को अपनी स्थिति स्पष्ट करने को बाध्य किया जाये। यदि मुसलमान आतंकवाद के साथ नहीं हैं तो पुलिस को अपना काम करने दें और जांच में या आतंकवादियों के पक़डे जाने पर मुस्लिम उत्पीडन का रोना बन्द करें। आज देश में प्रतिक्रियावादी हिन्दुत्व का विकास रोकने क दायित्व मुसलमानों पर है हिन्दुओं पर नहीं। यदि क़ुरान आतंकवाद की आज्ञा नहीं देता और देश के मुसलमान जिहाद से सहानुभूति नहीं रखते तो उन्हें इसे सिद्ध करना होगा अपने आचरण से।”
nomani said
its good