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दक्षिण एशिया पर अल कायदा का साया

Posted by amitabhtri on अक्टूबर 15, 2008

पाकिस्तान की सूचना मंत्री शेरी रहमान ने जब अपने देश की संसद में इस बात की आशंका व्यक्त की कि अल कायदा, तालिबान के साथ मिलकर अफगानिस्तान और कश्मीर में सक्रिय जेहादी तत्व पाकिस्तान को अस्थिर कर उसका शासन अपने हाथ में लेने का षडयन्त्र रच रहे हैं तो इस सनसनीखेज बयान को भारत में विश्लेषकों द्वारा अधिक महत्व नहीं दिया गया। परंतु यह बात अतयंत महत्व की है और यह बयान उस कठोर वास्तविकता की ओर संकेत करता है जिस ओर पाकिस्तान ही नहीं अफगानिस्तान और भारत सहित सम्पूर्ण दक्षिण एशिया बढ रहा है।

पाकिस्तान की सरकार के एक महत्वपूर्ण मंत्री की ओर से ऐसे बयान आने के पीछे दो तात्कालिक कारण हैं एक तो पिछले माह जिस प्रकार पाकिस्तान की राजधानी के अति सुरक्षा क्षेत्र में प्रधानमंत्री निवास और संसद भवन तक तालिबान और अल कायदा के संयुक्त प्रयासों से एक महत्वपूर्ण होटल को निशाना बना कर उसे पूरी तरह बर्बाद कर दिया गया और इस प्रयास में लगभग एक टन विस्फोटक का प्रयोग किया गया। यह एक ऐसी घटना थी जो संकेत करती है कि पाकिस्तान में आतंकवादी संगठन किस प्रकार संसाधन सम्पन्न और संस्थात्मक हो चुके हैं।

इसी के साथ एक और पृष्ठभूमि शेरी रहमान के बयान के पीछे है। अल कायदा का मीडिया प्रकोष्ठ काफी दिनों से चुप था और आतंकवाद और अल कायदा पर पैनी नजर रखने वाले अंतरराष्ट्रीय विशेषज्ञ भी इस बात से आश्चर्यचकित थे कि 11 सितम्बर को प्रति वर्ष कर्मकाण्ड के तौर पर वीडियो या आडियो टेप जारी करने वाला अल कायदा इस बार चुप क्यों रहा? इसके पीछे एक प्रमुख कारण यह माना जा रहा था कि अल कायदा का मीडिया प्रकोष्ठ जिसे अल सहाब कहते हैं उसका प्रमुख और अमेरिका का धर्मांतरित नागरिक गदाहन उर्फ अज्जाम अल अमेरिकी इस वर्ष के आरम्भ में पाकिस्तान के उत्तरी वजीरिस्तान में हुए एक बम हमले में मारा गया था जो अमेरिका नीत गठबन्धन सेना ने किया था। उस हमले के बाद अल कायदा के अल सहाब की निष्क्रियता से मान लिया गया कि अल कायदा का प्रचार तंत्र टूट चुका है। परंतु इन आशंकाओं के विपरीत गदाहन ने अल कायदा के सन्देश प्रकाशित करने वाली वेबसाइट पर 4 अक्टूबर को एक सन्देश प्रकाशित किया और इस सन्देश में अफगानिस्तान और पाकिस्तान सहित भारत को भी शामिल करते हुए पूरे दक्षिण एशिया के मुजाहिदीनों का आह्वान करते हुए कहा कि इस पूरे क्षेत्र में जेहाद की गति को तीव्र करें।

इस सन्देश में भारत और कश्मीर का भी उल्लेख किया गया है और क्रूसेडर, यहूदी शत्रुओं के साथ उनके सहयोगियों का उल्लेख करते हुए पाकिस्तान की सरकार और खुफिया एजेंसी पर आरोप लगाया गया है कि वह अमेरिका और उसके सहयोगियों के कहने पर कश्मीर में जेहाद को कमजोर कर रही है। इसके साथ ही काबुल में भी जेहाद को असफल करने का आरोप क्रूसेडर और हिन्दू भारत पर लगाया है। इस पूरे सन्देश में भारत का उल्लेख विशेष रूप से कश्मीर में जेहाद के सन्दर्भ में किया गया है पर कश्मीर के साथ इस बार भारत का अलग से उल्लेख कर हिन्दू भारत पर विजय का यह पहला कदम बताया गया है। सन्देश में पाकिस्तान की कश्मीर सम्बन्धी नीतियों का उल्लेख करते हुए पाकिस्तान के आतंकवादी संगठन तहरीके तालिबान को सतर्क किया गया है कि पाकिस्तान की सरकार उसे बरगलाकर उसके साथ युद्ध विराम करना चाहती है और इस सम्बन्ध में सरकार का तर्क है कि उत्तर पश्चिमी प्रांत में विद्रोहियों और आतंकवादियों से निपटने में सेना को लगाने से कश्मीर से सेना हटानी पड रही है जिससे कश्मीर का जेहाद प्रभावित हो रहा है। इसलिये तहरीके तालिबान को पाकिस्तान सरकार के साथ किसी भी प्रकार का भी समझौता करने से सावधान किया गया है।

अल कायदा के इस नवीनतम सन्देश में अमेरिका में आई आर्थिक मन्दी का भी उल्लेख किया गया है और इसे जेहाद की बडी विजय मानते हुए मुजाहिदीनों का आह्ववान किया गया है कि यह जेहाद का उचित अवसर है कि जब झूठे देवताओं की पूजा करने वालों से विश्व को मुक्ति दिलायी जा सकेगी और नयी विश्व व्यवस्था के निर्माण का मार्ग प्रशस्त हो सकेगा।

इस सन्देश में पाकिस्तान के पूर्व राष्ट्रपति परवेज मुशर्रफ का त्यागपत्र और नये राष्ट्रपति असिफ अली जरदारी का भी उल्लेख है और नये सेनाध्यक्ष परवेज कियानी का भी नाम लिया गया है। परंतु इस सन्देश का जो सबसे मह्त्वपूर्ण पक्ष है वह है पूरे दक्षिण एशिया के लिये जेहाद की बात करना।

वास्तव में यह बात सुन कर आश्चर्य हो सकता है कि शायद अल कायदा ने अपनी प्राथमिकतायें बदल दी हैं और अब मध्य पूर्व, अरब देशों और अमेरिका और यूरोप के स्थान पर उसका निशाना दक्षिण एशिया बन गया है। परंतु ऐसा नहीं है। अल कायदा के मुख्य सरगना ओसामा बिन लादेन ने जब 1998 में इंटरनेशनल इस्लामिक फ्रंट की स्थापना की थी और ईसाइयों तथा यहूदियों के विरुद्ध विश्वस्तर पर जेहाद के लिये मुसलमानों का आह्वान किया था तभी से यह संगठन एक सोची समझी केन्द्रित योजना के साथ चल रहा है। अल कायदा ने अपने अंतिम लक्ष्य खिलाफत की स्थापना के लिये और विश्व स्तर पर मध्यकालीन इस्लामिक साम्राज्य प्राप्त करने के लिये सर्वप्रथम अफगानिस्तान में अपना राज्य स्थापित किया फिर संस्थात्मक ढंग से शरियत के शासन को चर्चा का विषय बनाया। 11 सितम्बर 2001 को अमेरिका पर आक्रमण कर जेहाद का वैश्वीकरण किया और फिर योजनाबद्ध ढंग से समस्त विश्व में स्थानीय स्तर पर इस्लामी राज्य प्राप्त करने के लिये चल रहे आन्दोलनों को एक नेटवर्क के अधीन लाने का प्रयास किया और इस प्रयास में उसे यूरोप अरब और उत्तरी अफ्रीका के अनेक देशों में सफलता भी मिली जहाँ अनेक इस्लामी उग्रवादी संगठन इंटरनेशनल इस्लामिक फ्रंट का हिस्सा बन गये।

अफगानिस्तान से भगाये जाने के बाद अल कायदा के शीर्ष नेतृत्व ने पाकिस्तान और अफगानिस्तान की सीमा पर कबाइली क्षेत्रों में शरण ली और दो विशेष योजनाओं पर कार्य आरम्भ किया। एक तो अगले दशक के लिये अल कायदा का नेतृत्व विकसित करना और अफगानिस्तान के बाद दूसरे किसी राज्य की तलाश करना जिस पर नियंत्रण स्थापित कर अपने इस्लामीकरण के एजेण्डे के साथ विचारधारा को भी आगे बढाया जा सके। इस दिशा में काम करते हुए अल कायदा और तालिबान ने पाकिस्तान के उत्तर पश्चिमी प्रांत और अफगानिस्तान के कुछ क्षेत्रों में अपना प्रभाव बढाना आरम्भ किया और इस दौरान उसकी ओर से आतंकवादी घटनाओं को भी अंजाम दिया जाता रहा। 2005 में स्पेन की राजधानी मैड्रिड में धमाका और फिर 2006 में लन्दन में धमाका करने में यह नेटवर्क सफल रहा। इसके अतिरिक्त अनेक बडे षडयंत्र असफल भी किये जाते रहे। अफगानिस्तान से पाकिस्तान में छुपने के बाद अल कायदा का जेहाद स्पष्ट रूप ले रहा है और अब यह उन अरब देशों के शासकों को भी निशाना बना रहा है जो उसकी नजर में इस्लामी आधार पर शासन नहीं चला रहे हैं।

वास्तव में अल कायदा के प्रमुख ओसामा बिन लादेन और अयमान अल जवाहिरी जिस मुस्लिम ब्रदरहुड के संस्थापक सैयद कुत्ब, उसके भाई मोहम्मद कुत्ब और फिलीस्तीनी इस्लामी चिंतक अब्दुल्ला अज्जाम से प्रेरणा लेते हैं उनके जेहाद की व्याख्या पूरी तरह इस्लाम के शुद्धीकरण और शरियत आधारित शासन के लिये युद्धात्मक जेहाद की आज्ञा देता है और इसके लिये उन मुसलमानों के साथ भी जेहाद जायज है जो विशुद्ध इस्लाम के आदेश का पालन नहीं करते। इसी प्रयास का परिणाम है कि पाकिस्तान के उत्तर पश्चिमी सीमा प्रांत में अपना नियंत्रण स्थापित करने के बाद अल कायदा और तालिबान ने पाकिस्तान की सरकार के विरुद्ध जेहाद तीव्र कर दिया है।

अल कायदा ने अपने एजेण्डे के आधार पर जो योजना बनाई है उसके आधार पर वह सफल हो रहा है। अल कायदा न केवल जेहाद के नाम पर विश्व भर के एक बडे वर्ग के मुसलमानों को ईराक, अफगानिस्तान और लड्ने के लिये प्रेरित कर सका है वरन सूचना क्रांति का भरपूर उपयोग कर विश्व स्तर पर मुस्लिम उत्पीडन की एक काल्पनिक अवधारणा का सृजन कर उसे भरपूर प्रचारित भी किया है और इस प्रचार के चलते अल कायदा ने विश्व भर में मुसलमान बुद्धिजीवियो, वामपंथी विचारकों और युवा मुसलमानों के मन में एक वैश्विक चिंतन का बीजारोपण किया है जो स्थानीय समस्याओं को वैश्विक सन्दर्भ से जोड कर मुस्लिम उत्पीडन की अवधारणा का समर्थन करता है।

पाकिस्तान की सरकार की वरिष्ठ मंत्री ने जब जेहादी तत्वों से पाकिस्तान की स्थिरता को खतरा बताया तो इसके पीछे यही भाव छुपा था।

पाकिस्तान में स्थित अल कायदा नेतृत्व के प्रचार का प्रभाव समस्त दक्षिण एशिया पर पड्ने लगा है। भारत में इंडियन मुजाहिदीन ने जिस प्रकार विस्फोटों से पहले ईमेल भेजकर प्रचार का नया हथकण्डा अपनाया था उसकी समानता अल कायदा की इसी रणनीति से की जा सकती है। भारत में पुलिस ने जिस प्रकार साफ़्टवेयर इंजीनियर को इस प्रचार अभियान के सदस्यों के रूप में चिन्हित किया है उससे तो इस बात में सन्देह ही नहीं रह जाता कि पढे लिखे मुस्लिम युवक अल कायदा के विचारों से प्रभावित हो रहे हैं। अपने नवीनतम सन्देश में जिस प्रकार अल कायदा ने दक्षिण एशिया में मुजाहिदीनों को जेहाद के लिये प्रेरित किया है उससे स्पष्ट है कि अल कायदा के निशाने पर अब पूरा दक्षिण एशिया है।
यह पहला अवसर नहीं है जब अल कायदा ने खुलकर जेहाद के सन्दर्भ में भारत, हिन्दू और कश्मीर का उल्लेख किया है। इससे पूर्व ओसामा बिन लादेन और अयमान अल जवाहिरी अनेक बार हिन्दू, भारत और कश्मीर का उल्लेख कर चुके हैं।

समस्त विश्व में जेहाद के आधार पर खिलाफत साम्राज्य का स्वप्न देख रहे अल कायदा की योजनाओं के बारे में कभी समग्र स्तर पर चिंतन नहीं किया गया। विशेष कर भारत में इस विषय पर कभी चिंतन ही नहीं हुआ और पहले 11 सितम्बर 2001 के अमेरिका पर हुए आक्रमण को अल कायदा बनाम अमेरिका का संघर्ष माना गया और इस बात पर अभिमान किया जाता रहा कि भारत का एक भी मुसलमान जेहाद के लिये कभी लड्ने नहीं गया परंतु अल कायदा के प्रयासों से मुस्लिम चिंतन में, उग्रवादी संगठनों की कार्यशैली में और स्थानीय मुस्लिम उग्रवाद के व्यापक जेहादी स्वप्न के साथ जुड कर वैश्विक स्तर पर एजेंडे को लेकर आ रही समानता की अवहेलना की गयी।

पाकिस्तान की सरकार की महत्वपूर्ण मंत्री शेरी रहमान का यह आकलन इस सन्दर्भ में भी ध्यान देने योग्य है कि भारत के प्रधानमंत्री डा मनमोहन सिंह के साथ बातचीत में अमेरिका के राष्ट्रपति जार्ज डब्लू बुश ने कहा था कि पाकिस्तान के राष्ट्रपति असिफ अली जरदारी के ऊपर आतंकवाद के सम्बन्ध में अधिक विश्वास न करें क्योंकि वह अत्यंत कमजोर हैं और आतंकवाद को रोक पाना उनके वश में नहीं है। यह बात पूरी तरह सत्य है और इसका उदाहरण हमारे समक्ष है कि किस प्रकार कश्मीर के मामले पर अमेरिका के दबाव में उन्होंने कुछ और बयान दिया और कश्मीर और पाकिस्तान के दबाव के चलते फिर उस बयान से मुकर गये।

पाकिस्तान की स्थितियाँ इस प्रकार की हैं कि वहाँ कश्मीर में जेहाद का मुद्दा अब हुक्मरानों के हाथ से फिसलकर पूरी तरह जेहादियों के हाथ में आ गया है वह फिर इस्लामी आतंकवादी संगठन हों, पाकिस्तान की सेना के जेहाद परस्त तत्व हों या फिर आईएसआई के जेहादी तत्व सब मिल कर पाकिस्तान में समानांतर शक्ति बन गये हैं। इन तत्वों की अल कायदा और तालिबान से सहानुभूति है और यही कारण है कि पाकिस्तान सरकार आतंकवाद से आधे अधूरे मन से लड रही है।

दक्षिण एशिया में जेहादी तत्वों के मंसूबों को देखते हुए इस पूरे अभियान के लिये नये सिरे से रणनीति बनाने की आवश्यकता है। कुछ लोग इस बात को लेकर अत्यंत उत्साहित हैं कि अमेरिका के राष्ट्रपति पद के चुनाव में यदि बराक ओबामा कि विजय होती है तो वे पाकिस्तान और अफगानिस्तान में अल कायदा और तालिबान के सफाये के लिये विशेष प्रयास करेंगे परंतु हमें यह कदापि नहीं भूलना चाहिये कि अमेरिका के राष्ट्रपति का प्रयास अपने देश पर पाकिस्तान या अफगानिस्तान की धरती से होने वाले किसी बडे आक्रमण को रोकना होगा न कि दक्षिण एशिया में जेहाद की विचारधारा को पनपने से रोकना होगा। इस कार्य के लिये हमें अब कोई दीर्घगामी रणनीति अपनानी होगी। यदि अल कायदा के प्रचार अभियान को नहीं रोका जा सका तो भारत में मुसलमानों के एक बडे वर्ग को जेहाद में लिप्त होने से नहीं रोका जा सकेगा।

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हम आतंकवाद से नहीं बजरंग दल से लडेंगे

Posted by amitabhtri on अक्टूबर 12, 2008

हम आतंकवाद से नहीं बजरंग दल से लडेंगे
अमिताभ त्रिपाठी

भारत के प्रधानमंत्री द्वारा डा मनमोहन सिंह द्वारा प्रस्तावित राष्ट्रीय एकता परिषद की बैठक को लेकर विवाद सा उठता दिख रहा है। राष्ट्रीय एकता परिषद के एजेण्डे को लेकर सत्ता पक्ष और विपक्ष के बीच वाद विवाद का जो दौर चल रहा है उसमें विपक्ष की ओर से भारतीय जनता पार्टी के नेता और गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी ने जो प्रश्न उठाया है वह अत्यंत सटीक है। नरेन्द्र मोदी ने राष्ट्रीय एकता परिषद की बैठक में आतंकवाद को एजेण्डे में शामिल न करने पर आश्चर्य व्यक्त किया है। वहीं सत्तारूढ यूपीए के घटकों राष्ट्रीय जनता दल और लोकजनशक्ति ने बजरंग दल और विश्व हिन्दू परिषद पर प्रतिबन्ध लगाने की माँग राष्ट्रीय एकता परिषद की बैठक में उठाने की बात की है। इन दोनों ही पक्षों को सुनने के बाद एक बात अत्यंत ही आश्चर्यजनक लगती है कि आखिर राष्ट्रीय एकता परिषद के बैठक बुलाने की आवश्यकता क्यों आन पडी और इसके पीछे असली मंतव्य क्या है?

इस सम्बन्ध में यदि उडीसा के मामले को लेकर पिछले दिनों कैबिनेट की हुई बैठक का सन्दर्भ लिया जाये तो बात कुछ हद तक स्पष्ट हो जाती है। कैबिनेट की बैठक के बारे में जोर शोर से प्रचारित किया गया कि इस बैठक में हिन्दूवादी संगठन बजरंग दल पर प्रतिबन्ध लगाने के सम्बन्ध में कोई अन्तिम निर्णय हो सकता है। कैबिनेट की उस बैठक में इस विषय पर चर्चा भी हुई और कानून मंत्री तथा गृहमंत्री की ओर से बैठक में उपस्थित सदस्यों को बताया गया कि बजरंग दल के विरुद्ध इस बात के पर्याप्त साक्ष्य नहीं हैं कि उस पर प्रतिबन्ध को न्यायालय में न्यायसंगत ठहराया जा सके। अब राष्ट्रीय एकता परिषद की बैठक से पूर्व हिन्दूवादी संगठनों पर प्रतिबन्ध की माँग और देश भर में हो रही इस्लामी आतंकवाद की घटनाओं को चर्चा से परे रखना कुछ विशेष मानसिकता की ओर संकेत करता है।

पिछले अनेक वर्षों से देश में इस्लामी आतंकवाद ताण्डव मचा रहा है और भारत में 2004 के बाद से जितनी भी आतंकवाद की घटनायें या बडे बम विस्फोट हुए हैं उनमें भारत के देशी मुसलमानों का हाथ रहा है और फिर वह सिमी हो या फिर नवनिर्मित इंडियन मुजाहिदीन। आज देश में मुसलमानों की युवा पीढी का एक ऐसा वर्ग निर्मित हो गया जो कुरान और अल्लाह का हवाला देकर निर्दोष हिन्दुओं को मूर्ति पूजा करने की सजा दे रहा है और इस विस्फोटों को अल्लाह के लिये किया जाने वाला जेहाद बता रहा है। ऐसे में यह आवश्यक हो जाता है कि भारत सरकार और देश के राजनीतिक दलों की इस आधार पर समीक्षा की जाये कि वे इस नयी उभरती समस्या के समाधान के लिये कितने उद्यत हैं। दुर्भाग्यवश जब हम इस सम्बन्ध में सोचते हैं तो हमें अत्यंत निराशा का सामना करना पडता है। आतंकवाद की इस पूरी समस्या से लड्ने के लिये एक समन्वित रणनीति अपनाने के स्थान पर इसे वोट बैंक के तराजू में तोला जा रहा है।

पिछले कुछ वर्षों में देश में आतंकवादियों की रणनीति और प्रेरणा दोनों में अंतर आया है। अभी कुछ वर्षों पूर्व तक हमारे राजनेता, पत्रकार और सुरक्षा विशेषज्ञ इस बात की दुहाई देते नहीं थकते थे कि भारत के मुसलमान अत्यंत सहिष्णु हैं और सूफी परम्परा के हैं इस कारण विश्व भर में जेहाद के नाम पर चल रहे इस्लामवादी आन्दोलन का प्रभाव भारत के मुसलमानों पर नहीं पडेगा और भारत निश्चय ही मध्य पूर्व में इजरायल के विरुद्ध चल रहे आतंकवाद या इंतिफादा से पूरी तरह असम्पर्कित रहेगा। यही कारण है कि भारत का बौद्धिक समाज और राजनीतिक नेतृत्व 11 सितम्बर को अमेरिका पर हुए इस्लामी आतंकवादी आक्रमण के बाद भी इस अपेक्षा में बैठा रहा कि भारत में मुसलमानों के साथ होने वाले व्यवहार, सेक्युलरिज्म के प्रति उनकी समझ और लोकतन्त्र में उनकी आस्था और नरमपंथी इस्लाम की उनकी परम्परा के चलते इस वैश्विक जेहादी आन्दोलन के प्रति उनका झुकाव नहीं होगा।

इसी भावना के चलते 2004 से पहले तक भारत में होने वाले आतंकवादी आक्रमणों के लिये पडोसी पाकिस्तान के कुछ इस्लामी आतंकवादी संगठनों और खुफिया एजेंसी आईएसाआई को दोषी ठहराया जाता था और यह बात तथ्यात्मक भी थी कि सीमा पार से लोग आतंकवादी घटनाओं के लिये भारत आते थे और उन्हें स्थानीय स्तर पर कुछ सहयोग मिलता था परंतु योजना से क्रियान्वयन तक सभी कुछ सीमा पार के तत्वों का होता था। परंतु अचानक 2004 के बाद भारत में सीमा पार के इस आतंकवाद ने इस्लामी आतंकवाद का स्वरूप ग्रहण कर लिया और भारत स्थित अनेक इस्लामी संगठनों ने पिछले अनेक वर्षों से चल रहे इस्लामी आन्दोलन को आतंकवाद में परिवर्तित कर दिया और सिमी तथा इंडियन मुजाहिदीन जैसे संगठन खुलकर आतंकवादी घटनाओं को अंजाम देने लगे।

आज देश के समक्ष यह अत्यंत बडी चुनौती है कि इस समस्या के मूल को समझकर उसका समाधान तलाशा जाये। इस लेखक ने अपने अनेक पिछले आलेखों में इस बात का उल्लेख किया है कि विश्व स्तर पर जेहाद के नाम पर एक इस्लामवादी आन्दोलन चलाया जा रहा है जिसकी प्रेरणा समस्त विश्व में समय समय पर जेहाद के सन्दर्भ में इस्लाम की व्याख्या करते हुए विश्व पर इस्लामी सर्वोच्चता स्थापित करने के लिये संचालित हुए आन्दोलनों से ली गयी है। भारत में ऐसे इस्लामी आन्दोलनों के प्रयास 18वीं शताब्दी से ही होते रहे हैं। इसी प्रकार मध्य पूर्व और अरब देशों में 18वीं शताब्दी में वहाबी आन्दोलन , फिर बीसवीं शताब्दी में मिस्र में मुस्लिम ब्रदरहुड संगठन जिसकी नींव सैयद कुत्ब ने रखी और उनकी भाई मुहम्मद कुत्ब ने उस परम्परा को आगे बढाते हुए उस विचारधारा को आगे बढाया और उसी परम्परा का आखिरी नाम फिलीस्तीन का अब्दुल्ला अज़्ज़ाम है जिसकी प्रेरणा से आज अल कायदा और ओसामा बिन लादेन का विश्वव्यापी जेहादी इस्लामी आतंकवादी आन्दोलन चल रहा है।

भारत में इस सन्दर्भ में जेहाद का अध्ययन करने का कभी प्रयास नहीं हुआ। जिस समय ओसामा बिन लादेन ने इंटरनेशनल इस्लामिक फ्रंट की स्थापना कर ईसाइयों और यहूदियों फिर हिन्दुओं के विरुद्ध जेहाद की घोषणा भी नहीं की थी उससे बहुत पहले भारत के इस्लामी संगठन सिमी ने 1986 में भारत को मुक्त कराकर इसे इस्लामी राष्ट्र का स्वरूप देने का संकल्प करते हुए सम्मेलन आयोजित किया था। आज यही संकल्प वैश्विक जेहाद के साथ जुड गया है जो विश्व स्तर पर शरियत और कुरान पर आधारित नयी विश्व व्यवस्था की स्थापना करना चाहता है। आज भारत में इस बात पर चर्चा करने का प्रयास ही नहीं हो रहा है कि अल कायदा और ओसामा बिन लादेन के विचारों से प्रभावित होने वाले मुस्लिम युवकों को इस विचारधारा से अलग थलग कैसे किया जाये। इंडियन मुजाहिदीन के मीडिया प्रकोष्ठ के लोगों के सामने आने के बाद यह पूरी तरह स्पष्ट हो गया है कि भारत में मुसलमानों का एक वर्ग तेजी से जेहाद के विचारों से प्रभावित हो रहा है। आज अत्यंत दुर्भाग्य का विषय है कि जिस प्रकार यह विचार तेजी से मुस्लिम युवकों में फैल रहा है और बडे सम्पन्न युवक जेहाद के नाम पर अपने ही देश के लोगों का खून बहाने को अपना धर्म मान बैठे हैं तो ऐसे में आश्चर्य नहीं कि आने वाले दिनों में हमें मध्यपूर्व के देशों और अफगानिस्तान और पडोसी पाकिस्तान की भाँति मानव बम के जरिये होते विस्फोट देखने को मिलें।

आज जब समस्त विश्व में इस बात पर विचार हो रहा है कि जेहाद के इस वैश्विक आन्दोलन को सभ्य समाज और वर्तमान विश्व व्यवस्था के विरुद्ध एक युद्ध माना जाये और इस सम्बन्ध में विभिन्न देशों में इस बात के प्रयास हो रहे हैं कि जेहाद के इस आन्दोलन से सामान्य शांतिप्रिय मुस्लिम समुदाय को किस प्रकार अलग थलग रखते हुए जेहाद की इस विचारधारा को वैचारिक स्तर पर परास्त किया जाये और इस सम्बन्ध में मुस्लिम समुदाय को उत्तरदायी बनाने के भी प्रयास हो रहे हैं तो वहीं भारत में अब भी इस समस्या को वोट बैंक की राजनीति से जोड्कर इसके समाधान के किसी भी प्रयास को अवरुद्ध किया जा रहा है।

इस सम्बन्ध में सबसे बडा उदाहरण पिछले दिनों राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली में जामिया नगर में बाटला हाउस में आतंकवादियों के साथ हुई पुलिस की मुठभेड के बाद उसे फर्जी सिद्ध करने को और अपने ही साथी पुलिसकर्मी को मरवा देने के आरोप दिल्ली पुलिस पर लगे। यह आरोप देश की प्रमुख सेक्युलर कही जाने वाली पार्टियों ने लगाये और इस मुठभेड की न्यायिक जाँच की माँग तक कर डाली।

यही नहीं तो देश का ध्यान इस्लामी आतंकवाद की समस्या से हटाने के गैर जिम्मेदाराना और दूरगामी स्तर पर खतरनाक परिणामों से परिपूर्ण प्रयास के अंतर्गत देश में हिन्दू आतंकवाद का एक समानांतर आभास विकसित करने का प्रयास किया जा रहा है और राष्ट्रीय एकता परिषद की बैठक उसी आभास को वास्तविक स्वरूप देने का सुनियोजित प्रयास है। इस्लामी आतंकवाद के समानांतर हिन्दू आतंकवाद और सिमी के समानांतर बजरंग दल का आभासी दृष्टिकोण कितना खोखला है इसका पता इसी बात से चलता है कि अब तक हिन्दू आतंकवाद जैसी किसी अवधारणा को सिद्ध करने के लिये कोई कानूनी साक्ष्य सरकार के पास नहीं है और न ही बजरंग दल को प्रतिबन्धित करने के लिये ही प्रमाण हैं। फिर यह प्रयास क्यो? केवल मुस्लिम वोट बैंक को संतुष्ट रखने का प्रयास और देशवासियों का ध्यान इस्लामी आतंकवाद से हटाने के लिये।

परंतु यह दृष्टिकोण कितना घातक है इसका पता हमें बाद में चलेगा। ठीक उसी प्रकार जिस प्रकार घाटी से हिन्दुओं को योजनाबद्ध ढंग से भगाने के इस्लामी एजेंडे को लम्बे समय तक कुछ गुमराह नौजवानों का उग्रवाद कहा जाता रहा। आज उसी प्रकार भारत में इस्लामी आतंकवाद को 1992 में बाबरी ढाँचा के ध्वँस से उपजा मान कर प्रचारित किया जा रहा है। भारत के राजनीतिक दल और बौद्धिक समाज के लोग जिस प्रकार इस्लामी आतंकवाद का समाधान करने और जेहाद की वैश्विक विचारधारा से देश के मुसलमानों को जुड्ने से रोकने के लिये कोई ठोस रणनीति अपनाने के स्थान पर मुस्लिम उत्पीडन की काल्पनिक अवधारणा को प्रोत्साहन दे रहे हैं, आतंकवादियों के मानवाधिकार के नाम पर पुलिस को कटघरे में खडा कर रहे हैं, आतंकवाद को न्यायसंगत ठहराने के लिये तर्क देर रहे हैं उससे जेहाद के आधार पर चल रहे इस इस्लामवादी आन्दोलन को और सहारा ही मिलेगा और यह सशक्त हो जायेगा।

जिस प्रकार राष्ट्रीय एकता परिषद की बैठक में आतंकवाद के विषय को एजेण्डे में नहीं लिया गया है और कर्नाटक और उडीसा की घटनाओं का आश्रय लेकर बजरंग दल को निशाने पर लिया जा रहा है उससे तो यही लगता है कि इस्लामी आतंकवाद से लड्ना सरकार की प्राथमिकता में नहीं है। आज देश के समक्ष जिस प्रकार इस्लामी आतंकवाद एक चुनौती बन कर खडा है ऐसे में क्या बजरंग दल पर प्रतिबन्ध लगाने से इस समस्या का समाधान हो जायेगा और देश में जेहाद की विचारधारा से प्रभावित हो रहे मुस्लिम युवक जेहाद करना छोड देंगे। ऐसा बिलकुल भी नहीं है और यह बात कांग्रेस भी जानती है और उसके सहयोगी दल भी जानते हैं फिर भी देश में एक खतरनाक खेल खेला जा रहा है देश में मानव बमों की फैक्ट्री तैयार होने का अवसर दिया जा रहा है और प्रतीक्षा की जा रही है कि कब भारत इजरायल, अफगानिस्तान, इराक और पाकिस्तान बन जाये?

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सेकुलरिज्म के बहाने आतंकवाद का समर्थन?

Posted by amitabhtri on सितम्बर 28, 2008

सेकुलरिज्म के बहाने आतंकवाद का समर्थन? अमिताभ त्रिपाठी

पिछले दिनों भारतीय जनता पार्टी के बौद्धिक प्रकोष्ठ ने आतंकवाद के विषय पर एक सार्थक चर्चा का आयोजन किया और इस कार्यक्रम में पार्टी के राष्ट्रीय महाचिव अरुण जेटली ने जो विचार रखे उसमें एक बात अत्यन्त मौलिक थी कि देश एक ऐसी स्थिति में आ गया है जहाँ देश के सबसे पुराने राजनीतिक दल काँग्रेस ने अपने वर्षों की परम्परा जो राष्ट्रवाद और सेकुलरिज्म के संतुलन पर आधारित थी उसे तिलाँजलि देकर अब सेकुलरिज्म को ही अपना लिया है और वह भी ऐसा सेकुलरिज्म जो इस्लामी कट्टरवाद की ओर झुकाव रखता है। यह बात केवल काँग्रेस के सम्बन्ध में ही सत्य नहीं है पूरे देश में विचारधारा के स्तर पर जबर्दस्त ध्रुवीकरण हो रहा है और स्वयं को मुख्यधारा के उदारवादी-वामपंथी बुद्धिजीवी कहने वाले लोग सेकुलरिज्म के नाम पर इस्लामी कट्टरवाद को प्रोत्साहन दे रहे हैं।
पिछले कुछ महीनों में देश के अनेक भागों में हुए आतंकवादी आक्रमणों के बाद यह बहस और मुखर हो गयी है विशेषकर 13 सितम्बर को दिल्ली में हुए श्रृखलाबद्ध विस्फोटों के बाद मीडिया ने इस विषय पर बहस जैसा वातावरण निर्मित किया तो पता चलने लगा कि कौन किस पाले में है? प्रिंट मीडिया के अनेक पत्रकारों ने इस विषय पर अपने विचार व्यक्त किये और दिल्ली विस्फोटों में उत्तर प्रदेश के आज़मगढ का नाम आने पर एक बहस आरम्भ हुई जिसके अनेक पहलू सामने आये। एक तो इलेक्ट्रानिक मीडिया का एक स्वरूप सामने आया जिसने काफी समय से अनुत्तरदायित्वपूर्ण पत्रकारिता का आरोप झेलने के बाद पहली बार आतंकवाद को एक अभियान के रूप में लिया और इसके अनेक पहलुओं पर विचार किया। इसी बह्स में अनेक चैनलों ने अनेक प्रकार की बहस की और सर्वाधिक आश्चर्यजनक बह्स कभी पत्रकारिता के स्तम्भ रहे और पत्रकार द्वारा संचालित चैनल का दावा करने वाले राजदीप सरदेसाई के सीएनएन-आईबीएन के चैनल पर देखने को मिली। प्रत्येक शनिवार और रविवार को विशेष कार्यक्रम प्रसारित करने वाले राजदीप सरदेसाई ने आतंकवाद पर एक विशेष सर्वेक्षण के परिणामों की व्याख्या के लिये यह कार्यक्रम आयोजित किया। सीएनएन- आईबीएन और हिन्दुस्तान टाइम्स के संयुक्त प्रयासों से किये गये इस सर्वेक्षण में जो कुछ चौंकाने वाले पहलू थे उनमें दो मुख्य थे- एक तो सर्वेक्षण के अंतर्गत दिल्ली, मुम्बई, चेन्नई, अहमदाबाद, हैदराबाद के लोगों से यह पूछना कि उनकी दृष्टि में किस मात्रा में उनकी पुलिस साम्प्रदायिक है और दूसरा काँग्रेस, भाजपा और पुलिस अधिकारी को बहस में बुलाकर उनके ऊपर विशेष राय के लिये प्रसिद्ध गीतकार जावेद अख्तर को रखना। यही नहीं 27 सितम्बर को दिल्ली में मेहरौली में हुए बम विस्फोट के बाद जब सीएनएन-आईबीएन ने अपने न्यूजरूम में इन्हीं जावेद अख्तर को बुलाया तो इससे स्पष्ट संकेत लगाना चाहिये कि इस चैनल के मन में आतंकवाद को लेकर क्या है?

किस आधार पर राजदीप सरदेसाई जावेद अख्तर को देश का ऐसा चेहरा मानते हैं जो पूरी तरह निष्पक्ष है और आतंकवाद पर इनकी नसीहत किसी पक्षपात से परे है जबकि इनकी पत्नी ने कुछ ही महीनों पहले कहा था कि उन्हें मुम्बई में फ्लैट नहीं मिल पा रहा है क्योंकि इस देश में मुसलमानों के साथ भेदभाव होता है। जिस शबाना आज़मी के पास मुम्बई के विभिन्न स्थानों पर सम्पत्ति है उसे अचानक लगता है कि उन्हें इस देश में मुसलमान होने की कीमत चुकानी पड रही है और जो बात पूरी तरह निराधार भी सिद्ध होती है ऐसे शबाना आजमी के पति पूरे देश के लिये एक निष्पक्ष दार्शनिक कैसे बन गये? पूरी बह्स के बाद जब राजदीप सरदेसाई ने आतंकवाद के समाधान के लिये जावेद अख्तर से समाधान पूछा तो उनका उत्तर था कि सभी प्रकार के आतंकवाद से लडा जाना चाहिये फिर वह भीड का आतंकवाद हो, राज्य का आतंकवाद हो या फिर और कोई आतंकवाद हो। पूरी बहस में राजदीप सरदेसाई और जावेद अख्तर देश भर में हो रहे जिहादी आतंकवाद के विचारधारागत पक्ष पर चर्चा करने से बचते रहे। जब मुम्बई के पूर्व पुलिस प्रमुख एम एन सिंह ने कहा कि कडा कानून और खुफिया तंत्र भी 50 प्रतिशत ही आतंकवाद से लड सकता है और शेष 50 प्रतिशत की लडाई विचारधारा के स्तर पर लड्नी होगी। इस पर जावेद अख्तर साहब उसी पुराने तर्क पर आ गये कि यदि सिमी पर प्रतिबन्ध लगे तो बजरंग दल पर भी प्रतिबन्ध लगना चाहिये।

राजदीप सरदेसाई की बहस एक विचित्र स्थिति उत्पन्न करती है। जरा कुछ बिन्दुओं पर ध्यान दीजिये। वे आतंकवाद के विरुद्ध कौन सी सरकार बेहतर लडी यह आँकडा प्रस्तुत करते हैं और कहते हैं कि 26 प्रतिशत लोग यूपीए को बेहतर मानते हैं और 28 प्रतिशत लोग एनडीए को। अब राजदीप सरदेसाई भाजपा के राजीव प्रताप रूडी से पूछते हैं कि आप में भी जनता को अधिक विश्वास नहीं है कि आप इस समस्या से बेहतर लडे। सर्वेक्षण में 46 प्रतिशत लोग मानते है कि कोई भी वर्तमान राजनीतिक दल आतंकवाद से प्रभावी ढंग से नहीं लड रहा है। जरा विरोधाभास देखिये कि एक ओर देश के मूर्धन्य पत्रकार राजदीप सरदेसाई पुलिस का इस आधार पर सर्वेक्षण करते हैं कि वह कितनी साम्प्रदायिक है और भाजपा पर आरोप लगाते हैं कि पोटा कानून का अल्पसंख्यकों के विरुद्ध दुरुपयोग होता है तो वहीं कहते हैं कि आप भी तो आतंकवाद से बेहतर ढंग से नहीं लड पाये। लेकिन राजदीप सरदेसाई हों या जावेद अख्तर हों वे उस खतरनाक रूझान की ओर ध्यान नहीं देते कि जिस देश के 46 प्रतिशत लोगों का विश्वास अपने नेताओं से इस सन्दर्भ में उठ जाये कि वे उनकी रक्षा करने में समर्थ हैं तो इसके परिणाम आने वाले समय में क्या हो सकते हैं?

इससे पहले राजदीप सरदेसाई ने अपने चैनल पर कुछ सप्ताह पूर्व आतंकवाद पर ही एक बहस आयोजित की थी और किसी मानवाधिकार कार्यकर्ता के साथ किरण बेदी और अरुण जेटली को भी आमंत्रित किया था और स्वयं को उदारवादी और लोकतांत्रिक सिद्ध करते हुए पुलिस को अपराधी तक सिद्ध करने का अवसर बहस में मानवाधिकार कार्यकर्ता को दिया था। अब प्रश्न है कि पुलिस को अधिकार भी नहीं मिलने चाहिये, जिहाद पर चर्चा भी नहीं होनी चाहिये, सेकुलरिज्म के नाम पर इस्लामी कट्टरवाद को बढावा दिया जाना चाहिये, देश के बहुसंख्यक हिन्दुओं की बात उठाने वाले को आतंकवादियों के बराबर खडा किये जाने के प्रयासों को महिमामण्डित किया जाना चाहिये, मानवाधिकार के नाम पर आतंकवादियों की पैरोकारी होनी चाहिये, आतंकवाद के आरोप में पकडे गये लोगों के मामले में सेकुलरिज्म के सिद्धांत का पालन होना चाहिये। इन परिस्थितियों में कौन सा देश आतंकवाद से लड सकता है यह फार्मूला तो शायद राजदीप सरदेसाई और जावेद अख्तर के पास ही होगा।

आज सबसे दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति यह है कि हमारे चिंतन और व्यवहार में राष्ट्र के लिये कोई स्थान नहीं है और इसका स्थान उन प्रवृत्तियों ने ले लिया है जो राष्ट्र के सापेक्ष नहीं हैं। आश्चर्य का विषय है कि जिस उदारवाद का पाठ हमारे बडे पत्रकार दुनिया के सबसे बडे उदारवादी लोकतंत्र अमेरिका से पढते हैं वे क्यों भूल जाते हैं कि अमेरिका में राज्य के अस्तित्व और उसके ईसाई मूल के चरित्र पर कोई प्रश्नचिन्ह नहीं खडा किया जाता और इन दो विषयों पर पूरे देश में सहमति है इसी कारण 11 सितम्बर 2001 को आतंकवादी आक्रमण के बाद आम सहमति हो या फिर अभी आये आर्थिक संकट के मामले में सहमति हो इस बात को आगे रखा जाता है कि राज्य कैसे सुरक्षित रहे? 11 सितम्बर के आक्रमण के बाद कुछ कानूनों को लेकर उदारवादी-वामपंथियों ने अमेरिका में भी काफी हो हल्ला मचाया था पर राज्य की सुरक्षा को प्राथमिकता दी गयी न कि उदारवादी-वामपंथियों को फिर भारत में ऐसा सम्भव क्यों नहीं है? निश्चय ही इसका उत्तर अरुण जेटली की इसी बात में है कि अब काँग्रेस में राष्ट्रवाद के लिये कोई स्थान नहीं है और उसका झुकाव सेकुलरिज्म की ओर है जो इस्लामी कट्टरवाद से प्रेरित है।

लेकिन चिंता का विषय यह है कि केवल काँग्रेस ही इस भावना के वशीभूत नहीं है देश में बुद्धिजीवियों का एक बडा वर्ग सेकुलरिज्म और पोलिटिकल करेक्टनेस की ओर झुक रहा है और आतंकवाद ही नहीं राष्ट्रवाद से जुडे सभी विषयों पर विभ्रम की स्थिति उत्पन्न कर रहा है। यही कारण है कि इस्लामी आतंकवाद की चर्चा करते समय अधिकाँश पत्रकार यह भूल जाते हैं कि यह एक वैश्विक आन्दोलन का अंग है और वे इसे 1992 में अयोध्या में बाबरी ढाँचे के ध्वस्त होने से जोडकर चल रहे हैं। लेकिन यह तर्क निरा बकवास है इस देश में मुस्लिम वर्ग के साथ कोई ऐसा अन्याय नहीं हुआ है कि वह हथियार उठा ले। आज समस्त विश्व में इस अवधारणा को प्रोत्साहन दिया जा रहा है कि अमेरिका द्वारा इजरायल को दिये जा रहे समर्थन से अल कायदा जैसे संगठन उत्पन्न हुए। यदि ऐसा है तो ब्रिटेन, स्पेन, बाली में मुस्लिम समाज के साथ क्या अन्याय हुआ था? दक्षिणी थाईलैण्ड में बौद्धों ही पिछले दो वर्ष से हत्यायें क्यों हो रही हैं। आज भारत में सेकुलरिज्म के नाम पर जिस प्रकार इस्लामी आतंकवाद के लिये तर्क ढूँढे जा रहे हैं इसका स्वरूप भी वैश्विक है।

जिस प्रकार 11 सितम्बर 2001 की घटना को विश्व भर के उदारवादी-वामपंथियों ने सीआईए और मोसाद का कार्य बताया था उसी प्रकार भारत में 2002 में गोधरा में रामसेवकों को ले जा रही साबरमती ट्रेन में इस्लामवादियों द्वारा लगायी गयी आग के लिये हिन्दू संगठनों को ही दोषी ठहरा कर षडयंत्रकारी सिद्धांत का प्रतिपादन इसी बिरादरी के भारत के लोगों ने किया । जिस प्रकार विदेशों में सक्रिय इस्लामी आतंकवादी फिलीस्तीन और इजरायल विवाद, इराक में अमेरिका सेना की उपस्थिति और ग्वांटेनामो बे में इस्लामी आतंकवादियों पर अत्याचार को आतंकवाद बढने का कारण बता रहे है उसी प्रकार भारत में 1992 में अयोध्या में बाबरी ढाँचा गिराया जाना, 2002 में गुजरात के दंगे और प्रत्येक आतंकवादी आक्रमण के बाद निर्दोष मुसलमानों को पकडा जाना और उन्हें प्रताडित किये जाने को भारत में इस्लामी आतंकवादी घटनाओं का कारण बताया जा रहा है। आज भारत में हिन्दू संगठनों को इस्लामी आतंकवाद का कारण बताया जा रहा है तो विश्व स्तर पर अमेरिका के राष्ट्रपति बुश और इजरायल को लेकिन वास्तविकता ऐसी नहीं है।

आज विश्व स्तर पर इस्लामी आतंकवाद के आन्दोलन का सहयोग बौद्धिक प्रयासों से, मानवाधिकार के प्रयासों से, मुसलमानों को उत्पीडित बताकर और षडयंत्रकारी सिद्धान्त खोजकर किया जा रहा है। पिछले वर्ष ईरान के राष्ट्रपति महमूद अहमदीनेजाद ने अपने देश में यूरोप और अन्य देशों के उन विद्वानों को आमंत्रित किया जो मानते हैं कि नाजी जर्मनी में यहूदियों का नरसंहार हुआ ही नहीं था और यह कल्पना है जिस आधार पर यहूदी समस्त विश्व को ब्लैकमेल करते हैं।

आज विश्व स्तर पर चल रहे इन प्रयासों के सन्दर्भ में हमें इस्लामी आतंकवाद की समस्या को समझना होगा। आज उदारवादी-वामपंथी बनने के प्रयास में हमारा बुद्धिजीवी समाज आतंकवादियों के हाथ का खिलौना बन रहा है।

आज जिस प्रकार सेकुलरिज्म के नाम पर भारत को कमजोर किया जा रहा है उसकी गम्भीरता को समझने का प्रयास किया जाना चाहिये। आखिर जो लोग मुस्लिम उत्पीडन का तर्क देते हैं और कहते हैं कि बाबरी ढाँचे को गिरता देखने वाली पीढी जवान हो गयी है और उसने हाथों में हथियार उठा लिये हैं या 2002 के दंगों का दर्द मुसलमान भूल नहीं पा रहे हैं तो वे ही लोग बतायें कि भारत विभाजन के समय अपनी आंखों के सामने अपनों का कत्ल देखने वाले हिन्दुओं और सिखों के नौजवानों ने हाथों में हथियार उठाने के स्थान पर अपनी नयी जिन्दगी आरम्भ की और देश के विकास में योगदान दिया। रातोंरात घाटी से भगा दिये गये, अपनों की हत्या और बलात्कार देखने के बाद भी कश्मीर के हिन्दुओं की पीढी ने हथियार नहीं उठाये और आज भी नारकीय जीवन जीकर अपने ही देश में शरणार्थी बन कर भी आतंकवादी नहीं बने क्यों? बांग्लादेश और पाकिस्तान में अल्पसंख्यकों का दर्जा पाने वाले हिन्दू पूरी तरह समाप्त होने की कगार पर आ गये पर उनकी दशा सुनकर कोई विश्व के किसी कोने में हिन्दू आत्मघाती दस्ता नहीं बना क्यों? इस प्रश्न का उत्तर ही इस्लामी आतंकवाद की समस्या का समाधान है।

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जयपुर विस्फोट के सन्देश

Posted by amitabhtri on मई 18, 2008

13 मई को राजस्थान की राजधानी जयपुर में हुए आतंकवादी आक्रमण के तत्काल बाद इसके मूल कारणों पर विचार करते हुए लोकमंच ने एक लेख प्रकाशित किया था और इस समस्या के मूल में जाकर इसके कारणों पर विचार करने की आवश्यकता पर बल दिया था। जयपुर विस्फोट के बाद जैसे-जैसे दिन बीत रहे हैं और सुरक्षा एजेंसियों को इस सम्बन्ध में नये सुराग मिल रहे हैं, वैसे- वैसे यह बात पुष्ट होती जा रही है कि इस्लामी आतंकवाद की इस समस्या को व्यापक सन्दर्भ में सम्पूर्ण समग्रता में देखने की आवश्यकता है।

विस्फोट के एक दिन बाद इण्डियन मुजाहिदीन नामक एक अप्रचलित इस्लामी संगठन ने इस आक्रमण का उत्तरदायित्व लेते हुये करीब 1800 शब्दों का एक बडा ई-मेल विभिन्न समाचार पत्रों और टीवी चैनलों को भेजा। देश के प्रसिद्ध अंग्रेजी समाचार पत्र हिन्दू ने इस ई-मेल के प्रमुख बिन्दुओं को अपने समाचार पत्र में स्थान दिया। वास्तव में यह ई-मेल केवल विस्फोट का दायित्व लेने तक सीमित नहीं था वरन यह भारत में हो रहे जिहाद का एक घोषणा पत्र था। इस ई-मेल में इण्डियन मुजाहिदीन ने जो प्रमुख बिन्दु उठाये हैं उसके अनुसार इस विस्फोट का उद्देश्य काफी व्यापक है।

 

 

इस संगठन के अनुसार जयपुर को निशाना बनाकर अमेरिका और ब्रिटेन जैसे देशों को यह सन्देश देने का प्रयास किया गया है कि भारत का मुसलमान वैश्विक जिहाद के साथ एकज़ुट है। दूसरा सन्देश हिन्दुओं को दिया गया है कि वे राम, सीता और हनुमान जैसे गन्दे ईश्वरों की उपासना बन्द कर दें अन्यथा उन्हें ऐसे ही आक्रमणों का सामना करना होगा। इन दो सन्देशों के बाद यह संगठन सीधे भारत में मुसलमानों के उत्पीडन की बात करता है और उसके अनुसार पिछ्ले 60 वर्षों से भारत में मुसलमानों को प्रताडित किया जा रहा है। सन्देश में 1992 में अयोध्या में बाबरी मस्जिद को गिराये जाने और 2002 में  गुजरात में हुए दंगों का उल्लेख करते हुए कहा गया है कि मस्जिद गिरने के बाद जब नरमपंथी मुसलमानों ने अयोध्या जाकर विरोध करने का प्रयास किया गया तो उन्हें गिरफ्तार कर उनका उत्पीडन किया गया। जयपुर में विस्फोट के पीछे इस संगठन ने मुख्य कारण यह बताया है कि गुजरात में नरेन्द्र मोदी को दो बार भारी बहुमत से विधानसभा में पहुँचा कर हिन्दुओं ने स्वयं को ऐसे आक्रमणों का निशाना बना लिया है। साथ ही सन्देश में कहा गया है कि भारत में हिन्दू राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, विश्व हिन्दू परिषद और शिव सेना जैसे संगठनों को आर्थिक सहायता देते हैं। इसके साथ ही कहा गया है भारत के सभी नागरिक मुजाहिदीनों के निशाने पर हैं क्योंकि वे भारत की संसद में उन नेताओं को चुनकर भेजते हैं जो मुसलमानों के उत्पीडन का समर्थन करते हैं।

इण्डियन मुजाहिदीन ने भारत को सन्देश में कुफ्रे हिन्द ( काफिरों का स्थान) कहकर सम्बोधित किया है और कहा है कि यदि इस देश में इस्लाम और मुसलमान सुरक्षित नहीं है तो इस देश के लोगों के घर में भी जल्द ही अन्धेरा हो जायेगा।

 

 

इस सन्देश के अपने मायने हैं। देश के एक अन्य अंग्रेजी समाचार पत्र मेल टुडे में इण्डियन मुजाहिदीन के इस ई-मेल पर सीमा सुरक्षा बल के पूर्व महानिदेशक प्रकाश सिंह की प्रतिक्रिया प्रकाशित की गयी है। श्री सिंह के अनुसार ऐसे मेल भेजकर इस्लामी संगठन शेष मुसलमानों को एक सन्देश देते हैं और उन्हें अपने विचारों से अवगत कराते हैं। श्री सिंह 1992 में बाबरी मस्जिद गिराये जाने या गुजरात में हुए दंगों के आधार पर ऐसे विस्फोटों को न्यायसंगत ठहराने की इस्लामी संगठनों की प्रवृत्ति की आलोचना करते हुए कहते हैं कि अतीत में घटी घटनाओं को आधार बनाकर ऐसे आक्रमणों को न्यायसंगत नहीं ठहराया जा सकता। श्री सिंह मुस्लिम उत्पीडन की अवधारणा को भी खारिज करते हुए कह्ते हैं कि देश के राजनीतिक दल इसी दबाव में आ जाते हैं और सुरक्षा एजेंसियों का मनोबल गिराते हैं उनके अनुसार यह बकवास है कि अपराध या आतंकवाद को अंजाम देने वालों के विरुद्ध कार्रवाई करते समय सेकुलर सिद्धांत का पालन किया जाये और अपराधी मुसलमान हो तो उसके बराबर ही हिन्दुओं को भी गिरफ्तार किया जाये। सीमा सुरक्षा बल का पूर्व महानिदेशक यदि ऐसे निष्कर्ष निकालता है तो और कुछ कहने की आवश्यकता रह ही नहीं जाती।

 

जयपुर विस्फोटों के सम्बन्ध में एक और रोचक खोज प्रसिद्ध हिन्दी समाचार चैनल जी न्यूज ने की। 17 मई को रात 10 बजे इनसाइड स्टोरी नामक अपने कार्यक्रम में चैनल ने पूरी उत्तरदायित्व से उन चार प्रमुख चेहरों की विस्तार से जानकारी दी जिनका स्केच राजस्थान पुलिस ने तैयार किया है। इनमें प्रमुख शमीम है और शेष तीन के नाम अबू फजल, इमरान उर्फ अमजद और मुख्तार इलियास हैं। इनमें से केवल मुख्तार इलियास ही बांग्लादेशी है और शेष तीनों भारत के मुसलमान है। इनमें से एक शमीम तो जयपुर से 60 किलोमीटर दूर सीकर नामक स्थान पर नगीना मस्जिद में एक मदरसे में पढाता भी था। समाचार चैनल को एक लैण्ड लाइन दूरभाष नम्बर भी मिला जिसपर शमीम बात करता था और इस चैनल के संवाददाता ने जब इस नम्बर पर बात की तो पता चला कि यह नम्बर काम करता है और दशकों से अस्तित्व में है और इस घर में रहने वाला 16-17 वर्ष का बालक शमीम का विद्यार्थी भी रहा है। अब यदि शमीम मदरसे और मस्जिद में रह कर जयपुर से 60 किलोमीटर दूर किसी के घर के फोन का प्रयोग कर सारी रणनीति बना सकता है तो फिर सुरक्षा एजेंसियों को दोष कैसे दिया जाये। शमीम उसी वलीउल्लाह का राजस्थान का प्रभारी है जिसे उत्तर प्रदेश में हुए बम धमाकों का मास्टर माइण्ड माना गया है। इसी प्रकार अबू फजल मध्य प्रदेश में सिमी का कार्यकर्ता है और 2007 से इन्दौर से फरार है। इमरान उर्फ अमजद का पूर्वी उत्तर प्रदेश से सम्बन्ध है केवल मुख्तार इलियास ही बांग्लादेशी है और भारत में हूजी के लिये काम करता है।

 

 

इन तथ्यों को देखकर क्या निष्कर्ष निकाला जाये कि गडबड कहाँ है। वास्तव में इस्लामी आतंकवाद के प्रति हमारा दृष्टिकोण इस समस्या के लिये उत्तरदायी है। इस समस्या को हम 1990 के दशक के चश्मे से देख रहे हैं और उसी अवधारणा के आधार पर आगे बढ रहे हैं कि हमारा पडोसी पाकिस्तान ऐसी घटनाओं को अंजाम दे रहा है। यह बात कुछ अंशों में सत्य है पर अब यह पूरी तरह सत्य नहीं है। इस अवधारणा पर जब सख्त कदम उठाये जाने चाहिये थे तब उठाये नहीं गये और जब पाकिस्तान में स्थित आतंकवादी शिविर ध्वस्त करने से इस समस्या का समाधान निकल सकता था तब हमने अवसर गँवा दिया और अब स्थिति वहीं तक सीमित नहीं है। आज भारत में इस्लामी आतंकवादी संगठनों का व्यापक नेटवर्क फैल चुका है और यदि इण्डियन मुजाहिदीन के सन्देश को हम अधिक ध्यान से देखें तो स्पष्ट होता है कि पिछ्ले डेढ  दशक में आतंकवाद की इस लडाई में कुछ गुणात्मक परिवर्तन आया है। एक 1993 के आसपास भारत के जिहादी गुटों की शक्ति और उनका विस्तार सीमित था और बाबरी ढाँचे के ध्वस्त होने के बाद बदले की कार्रवाई में वे मुम्बई को ही निशाना बना सके। आज 15 वर्षों के बाद भारत में उनका नेटवर्क इतना व्यापक हो गया है कि वे अब महानगरों तक सीमित नहीं रह गये हैं वरन राज्यों की राजधानियों या छोटे-छोटे नगरों में भी आतंकी आक्रमण करने की उनकी क्षमता हो गयी है। 2005 से लेकर अब तक कुल 9 श्रृखलाबद्ध विस्फोट देश में हो चुके हैं और इनमें 500 से अधिक लोग मौत की नींद सो चुके हैं।

 

 

इन 15 वर्षों में ऐसा क्या परिवर्तन हुआ कि हम जिहाद की इस भावना को समझने में असफल रहे हैं। वास्तव में जिहादवाद ने एक वैश्विक स्वरूप ग्रहण कर लिया है और इस्लामी आतंकवादियों का उद्देश्य इस्लामी उम्मा के साथ एकाकार हो चुका है। अब देश की विदेश नीति, अमेरिका के साथ उसके सम्बन्ध, ईरान के सम्बन्ध में उसकी नीति, इजरायल के साथ सम्बन्धों का स्वरूप इस्लामी आतंकवादियों की रणनीति का आधार बनता है। जयपुर में हुए आतंकवादी आक्रमण की निन्दा कुछ इस्लामी संगठनों ने की है परंतु उन्होंने फिर सरकार को सावधान किया है कि यदि मुसलमानों की शिकायतों पर उचित ध्यान नहीं दिया गया और सुरक्षा एजेंसियाँ निर्दोष मुसलमानों को निशाना बनाती रहीं तो ऐसी घटनाओं को रोका नहीं जा सकेगा। यह सशर्त निन्दा एक व्यापक वैश्विक रूझान की ओर संकेत करती है। आज समस्त विश्व में इस्लामी संगठन आतंकवाद की निन्दा भी करते हैं और मुस्लिम उत्पीडन की एक काल्पनिक अवधारणा को प्रश्रय भी देते हैं। विश्व के जिन भी देशों में आतंकवाद प्रभावी है वहाँ की सरकार की मुस्लिम और इस्लाम विरोधी नीतियों को इसका उत्तरदायी बताया जाता है। परंतु यह कितना वास्तविक है इसकी जाँच कभी नहीं की गयी।

 

 

इण्डियन मुजाहिदीन ने अपने सन्देश में जिस प्रकार गुजरात में मोदी की दूसरी बार विजय और भारतीय संसद में उन नेताओं की विजय जो मुस्लिम उत्पीडन में सहायक हैं उसको आक्रमण का कारण बताया गया है वह भी वैश्विक जिहाद की ही एक प्रवृत्ति का संकेत है। अमेरिका ने जब इराक पर आक्रमण किया और वहाँ बहुराष्ट्रीय सेनायें तैनात कर दीं तो अनेक देशों के जनमत को प्रभावित करने के लिये और देशों को अपनी नीतियाँ बदलवाने के लिये इस्लामी आतंकवादियों ने विस्फोटों का सहारा लिया। स्पेन में मैड्रिड में रेल विस्फ़ोट के बाद हुए चुनावों में तत्कालीन सरकार पराजित हुई और जनता ने मतदान उस दल के पक्ष में किया जो इराक से स्पेन के सैनिकों को वापस बुलाने की पक्षधर थी। इसी प्रकार अनेक देशों के पत्रकारों का अपहरण करके भी इस्लामी आतंकवादी देशों की नीतियों को प्रभावित करने में सफल रहे हैं। यह नजारा हम 1999-2000 में देश ही चुके हैं जब भारत के एक विमान का अपहरण कर कुछ दुर्दांत आतंकवादियों को छुडा लिया गया था। उसमें से एक आतंकवादी मसूद अजहर ने छूटने के बाद पाकिस्तान में जैश-ए-मोहम्मद का निर्माण किया और उसी संगठन ने 13 दिसम्बर 2001 को भारत की संसद पर आक्रमण किया। ये तथ्य इस बात की ओर संकेत करते हैं कि आज इस्लामी आतंकवाद का स्वरूप वैश्विक हो गया है और इस समस्या को उसी परिदृश्य में देखने की आवश्यकता है।

 

 

लेकिन भारत में क्या हो रहा है। आज यह बात किसी से छुपी नहीं है कि जिहादी एक इस्लामी एजेण्डे पर काम कर रहे हैं और उनका उद्देश्य कुरान और शरियत के आधार पर एक नयी विश्व व्यवस्था का निर्माण करना है और इसके लिये उन्होंने वैश्विक आधार पर मुस्लिम उत्पीडन की एक काल्पनिक अवधारणा का सृजन किया है और इस अवधारणा ने बडी मात्रा में ऐसे मुस्लिम बुद्धिजीवियों को भी आकर्षित किया है जो इस्लाम की हिंसक व्याख्या से सहमत न होते हुए भी मुस्लिम उत्पीडन की अवधारणा का समर्थन करते हैं और इस्लामी आतंकवाद की निन्दा सशर्त करते हैं। भारत में प्रमुख राजनीतिक दल कांग्रेस और वामपंथी इसी धारणा के शिकार हैं और भारत में इस्लामी आतंकवाद को हिन्दू कट्टरपंथ की प्रतिक्रिया मानते हैं। इस धारणा के चलते दोनों ही दल समस्या के मूल को समझने में असफल हैं। जुलाई 2005 को जब मुम्बई में लोकल रेल में धमाके हुए और 187 लोग मारे गये और इससे भी अधिक लोग घायल हुए तो कांग्रेस के अनेक नेताओं ने खुलेआम कहा कि ऐसे घटनायें इसलिये हुई हैं कि पिछ्ले कुछ वर्षों में देश में एक समुदाय विशेष की भावनाओं का ध्यान नहीं रखा गया है। कुछ नेताओं ने तो टीवी चैनल पर आकर कहा कि जब आप किसी की मस्जिद गिरायेंगे और उनकी महिलाओं और बच्चों का कत्ल करेंगे तो क्या आपके विरुद्ध प्रतिक्रिया नहीं होगी। इसी प्रकार जयपुर में हुए विस्फोटों के बाद कांग्रेस के प्रवक्ता शकील अहमद ने आतंकवाद के विषय में चर्चा करते हुए भाजपा के नेता लालकृष्ण आडवाणी की तुलना आतंकवादियों से कर दी और कहा कि वे देश में साम्प्रदायिक सद्भाव का वातावरण बिगाड कर वही काम कर रहे हैं जो आतंकवादी चाहते हैं। इसी प्रकार प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने अनुरोध किया कि राजनीतिक दल आतंकवाद को साम्प्रदायिक रंग न दें। अब ऐसी प्रतिक्रिया से क्या लगता है कि सरकार और कांग्रेस इस्लामी आतंकवाद को युद्ध मानने को तैयार ही नहीं है। क्योंकि यदि इसे युद्ध माना जाता तो शत्रु को पहचान कर उसे नाम दिया जाता और उसके विरुद्ध युद्ध की घोषणा की जाती। लेकिन ऐसा प्रतीत होता है कि इस विषय को पूरी तरह राजनीतिक सन्दर्भ में लिया जा रहा है।

 

 

2005 से लेकर अब तक हुए 9 श्रृखलाबद्ध विस्फोट एक ही कहानी कहते हैं कि भारत में मुसलमानों का एक वर्ग वैश्विक जिहाद की विचारधारा और उसके नेटवर्क से गहराई से जुड गया है और वह इस बात का संकेत भी दे रहा है कि अब ऐसे आक्रमणों के लिये पडोसी देशों को दोष देकर अपने कर्तव्य की इतिश्री कर लेने के छोटे रास्ते से बचा जाये और भारत के देशी मुसलमानों के बीच पल रही इस नयी विचारधारा को पर प्रहार किया जाये। देश में एक समुदाय विशेष के तुष्टीकरण की नीतियों के चलते राष्ट्रीय सुरक्षा के साथ जो समझौते किये गये हैं उसका परिणाम हमारे सामने है। जब बांग्लादेशी घुसपैठी भारत की सीमा में प्रवेश कर रहे थे उन्हें वोट बैंक माना गया, जब पाकिस्तान के आईएसआई एजेण्ट खुलेआम भारत में आकर अपनी अगली रणनीति पर काम कर रहे थे तो उन पर लगाम नहीं लगाई गयी। आज जब विश्व की परिस्थितियों में परिवर्तन आ गया और जिहाद एक वैश्विक स्वरूप धारण कर विचार के स्तर पर मुस्लिम जनसंख्या को प्रभावित और प्रेरित कर रहा है तो हम फिर भूल कर रहे हैं और डेढ दशक पुरानी भाषा में पाकिस्तान को दोष दे रहे हैं। जिस प्रकार इस्लामी आतंकवादी देश में अपना विस्तार करने में सफल हो रहे हैं और धार्मिक राजनीतिक अपील से देश में मुसलमानों को अपनी ओर आकर्षित कर रहे हैं वह एक खतरनाक संकेत है। जिस प्रकार पिछ्ले तीन वर्षों में वे अपने मन मुताबिक विभिन्न स्थानों पर आक्रमण करने में सफल रहे हैं उससे तो यही लगता है कि वे दिनोंदिन अपना नेटवर्क व्यापक ही करते जायेंगे और देश के छोटे कस्बों को भी शीघ्र ही अपना निशाना बनायेंगे।

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