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वैश्वीकरण और पत्रकारिता

Posted by amitabhtri पर अगस्त 30, 2008

राष्ट्रीय स्वाभिमान आन्दोलन के राष्ट्रीय संयोजक श्री के.एन.गोविन्दाचार्य की पहल पर नई दिल्ली स्थित कांस्टीट्यूशन क्लब में वैश्वीकरण का पत्रकारिता पर प्रभाव व हमारी परम्परा नामक परिसंवाद आयोजित किया गया जो वास्तव में परिसंवाद से अधिक संगोष्ठी होकर रह गया। दिन भर के इस कार्यक्रम में अनेक नामी गिरामी पत्रकारों ने भाग लिया। इनमें प्रसिद्ध पत्रकार और जनसत्ता के संपादक प्रभाष जोशी, ई टी वी दिल्ली के प्रमुख एन.के.सिंह, प्रथम प्रवक्ता पत्रिका के संपादक और पूर्व में जनसत्ता से जुडे रहे रामबहादुर राय और जी न्यूज के सलाहकार संपादक पुण्य प्रसून वाजपेयी प्रमुख नाम थे। कार्यक्रम के प्रथम सत्र में प्रभाष जोशी ने उद्घाटन सत्र में पूरे विषय की भाव भूमि रखी और तय हो गया कि वर्तमान परिस्थितियों में पत्रकारिता के मूल्यों से लेकर वैश्वीकरण के बढते प्रभावों के बीच बदलते जीवन मूल्यों और बदलते सामाजिक ताने बाने पर विचार होगा और कमोवेश हुआ भी यही। परंतु इस पूरे लेख में तीन वक्ताओं के इर्द गिर्द पूरे विषय को समेटने का प्रयास होगा और यह प्रयास भी होगा कि उनके विचारों की समीक्षा और समालोचना भी हो सके।

प्रभाष जी ने अपने पूरे सम्बोधन में दो प्रमुख विषयों को स्पर्श किया एक तो यह कि भारत में पत्रकारिता बाजारमूलक हो गयी है और इसका उद्देश्य मुनाफा कमाना हो गया है और अब यह लोकहित से सरोकार रखने के स्थान पर ब्राण्ड निर्माण के कार्य में लिप्त हो गयी है। दूसरा विषय जो वयोवृद्ध पत्रकार ने उठाया वह था सम्पादकों के स्तर में आ रही गिरावट इस सम्बन्ध में उन्होंने स्वाधीनता आन्दोलन का उदाहरण दिया कि किस प्रकार अंग्रेजों के आगे झुकने के स्थान पर स्वदेश में आठ सम्पादकों ने काला पानी की सजा झेलना अधिक पसन्द किया।

कार्यक्रम में दूसरे प्रमुख वक्ता जिन्होंने कुछ समग्रता में विषयों को स्पर्श किया वह थे राम बहादुर राय जिन्होंने पत्रकार से अधिक एक आन्दोलनकारी की भाँति अपने विचार रखे और वर्तमान समस्याओं के मूल में भारतीय संविधान को देखा।

कार्यक्रम के दूसरे सत्र में राष्ट्रीय स्वाभिमान आन्दोलन के राष्ट्रीय संयोजक के.एन. गोविन्दाचार्य ने जब अपने विचार रखे तो यह स्पष्ट हो गया कि यह कार्यक्रम उनके देश व्यापी आन्दोलन को एक हिस्सा है जिसके मूल में विचार यह है कि वे अपने विचार को अधिक प्रासंगिक और क्रियाशील कैसे बना सकते हैं? के.एन. गोविन्दाचार्य ने कोई नई बात नहीं रखी और वैश्वीकरण के दुष्प्रभावों वाले कैसेट को फिर से रिप्ले कर दिया फिर भी उन्हें पहली बार सुनने वालों के लिये यह नया था और सार्थक भी था। श्री गोविन्दाचार्य ने कुछ बातें कहीं कि वर्तमान व्यवस्था कुछ देशी और विदेशी शक्तियों के हित साधती है इसलिये इसे बदलना आवश्यक है यह बदलाव सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक तीनों स्तर पर होना चाहिये। गोविन्दाचार्य की अधिक मह्त्वपूर्ण बात यह रही कि आने वाली पीढी के सुखद भविष्य को सुनिश्चित करने के लिये आवश्यक है कि समाज में प्रत्येक व्यक्ति अपनी क्षमता के अनुसार कुछ न कुछ अवश्य करे और क्रियाहीन होकर हारकर न बैठे।

इस आलेख में केवल तीन वक्ताओं की बात इसलिये की गयी है कि इस संगोष्ठी के पीछे का जो चिंतन है वह इन तीन वक्ताओं के विचारों में ही ढूँढा जा सकता है क्योंकि ये तीनों ही एक विचारधारा के लोग हैं, तीनों ही 1977 के जयप्रकाश नारायण आन्दोलन से प्रभावित लोग हैं साथ ही उसके सूत्रधार भी रहे हैं, तीनों के व्यक्तित्व में 1975 के आपातकाल और उसके प्रतिरोध के संस्मरण हैं और कुछ हद तक ये तीनों लोग अब भी उस दौर से बाहर नहीं आ पाये हैं और उसी तर्ज पर एक और समग्र क्रांति की प्रतीक्षा और प्रयास में हैं।

प्रभाष जोशी ने अपने पत्रकारिता जीवन की सबसे बडी उपलब्धि बताई कि अब भी वे अपने ही हाथ से लिखते हैं, उनकी लेखनी में कोई कलम नहीं लगती और एक बार में ही वे लिख जाते हैं और ऐसा सीधा लिखते हैं कि लोग उसे फोटो स्टेट तक कह जाते हैं। यह उपलब्धि कुछ बातों की ओर संकेत करती है इसमें कहीं न कहीं पत्रकारिता में विकसित हो रही नयी तकनीकों का पर व्यंग्य और इन नयी तकनीकों के आत्मसात न होने की जिद है। प्रभाष जी अपनी बातें साहित्यिक अन्दाज में लाक्षणिक अन्दाज में भी कहते हैं और उनका यह विचार उनकी इसी धारा का प्रतिनिधि है। प्रभाष जी के इस वक्तव्य से वैश्वीकरण से पत्रकारिता में आ रहे दो बदलावों की ओर संकेत जाता है एक तो बाजारोन्मुख पत्रकारिता और दूसरा तकनीक प्रधान पत्रकारिता। बाजारोन्मुख पत्रकारिता वैश्वीकरण के पूरे व्याकरण की ओर संकेत करती है जिसमें व्यापक बहस की गुंजायश है कि क्या वैश्वीकरण के चलते मूल्यों में बदलाव आ रहा है। दूसरा बदलाव तकनीक का है। यही दोनों बदलाव पिछले कुछ वर्षों में पूरे समाज में भी देखने को मिल रहे हैं कि मूल्यों में और तकनीक के स्तर पर बदलाव आया है।

अब इसमें प्रश्न यह है कि इन परिस्थितियों में क्या हो सकता है? सहज है कि तकनीक को अपनाया जाये और मूल्यों के बदलाव के कारणों पर विचार हो। अपने पूरे व्याख्यान में प्रभाष जी ने समस्यायें गिनाईं पर अपने स्तर से कोई समाधान नहीं सुझाया।

इसके पीछे प्रमुख कारण यह है कि तीनों ही लोग यानी प्रभाष जी , राम बहादुर राय जी और और गोविन्दाचार्य जी इस पूरी समस्या को एक आर्थिक ईकाई के रूप में ले रहे हैं और समाधान के मूल में व्यवस्थागत परिवर्तन को मानकर चल रहे हैं परंतु इस समस्या के मूल में और समाधान में आस्थागत पक्ष को छोड दिया गया है जो कि वैश्वीकरण से मुक्ति का मंत्र है। वर्तमान सन्दर्भ में आस्था को जिस प्रकार साम्प्रदायिकता से जोडकर उस पर बहस से बचने का प्रयास हो रहा है उससे ही सारी समस्या है।

परिवर्तन तो प्रकृति का नियम है जो विचार समाज के बदलते स्वरूप के साथ अपने को आत्मसात नहीं करता वही कट्टरपंथी या फण्डामेंटलिस्ट कहा जाता है इसी कारण यदि आज प्रछन्न भोगवादी संस्कृति वैश्वीकरण के मूल में समाज में अपनी पकड बना रही है तो इसके पीछे हमारे द्वारा ही प्रदान की गयी शून्यता है जो हमने तथाकथित सेकुलरिज्म के नाम पर आस्था और धर्म को छोडकर समाज को प्रदान की है। आज कोई भी पत्रकार अपने जीवन में हिन्दू संस्कृति के मूल्यों, परम्पराओं और मान्यताओं के आधार पर आचरण नहीं कर सकता क्योंकि ऐसा करने पर उसे तथाकथित कुलीन बिरादरी का प्रमाणपत्र नहीं मिलेगा और उसके लिये सेकुलर होने का अर्थ धर्मविरोधी होना ही है। यही बात हर बौद्धिक व्यक्ति के सम्बन्ध में भी लागू होती है। अपनी आस्थाओं को छोडकर हमने समाज में एक शून्यता का वातावरण दिया जिसकी पूर्ति आज वैश्वीकरण के विचार और आचरण से हो रही है।

रामबहादुर राय जी ने देश की सभी समस्याओं का कारण भारत के संविधान को बताया परंतु यह भी स्थाई समाधान नहीं है आखिर कौन सा संविधान देश में आयेगा और वह संविधान किस मात्रा में वर्तमान संविधान से भिन्न होगा। क्या आज यह साहस किसी में है कि वह स्वामी विवेकानन्द की भाँति अमेरिका की छाती पर चढकर उसके धर्म की सारहीनता सिद्ध कर सके और उसे बता सके कि वैश्वीकरण का विचार स्वतंत्रता और समानता के भाव का विरोधी है। आज वैश्वीकरण के विरोध के नाम पर नये विचारों और नयी तकनीक से आतंक और पलायन का भाव रखने वाले लोग बडी मात्रा में इस आवाज में शामिल हो रहे हैं जिससे यह पूरा अभियान एक विभ्रम की स्थिति का निर्माण कर रहा है। वैश्वीकरण एक आधुनिक धर्म है जो सेकुलरिज्म के नाम पर नास्तिक और आस्थाहीन होने की प्रवृत्ति का परिणाम है। परंतु आज वैश्वीकरण के नाम पर चल रही बहस को पूरी तरह आर्थिक आधार पर चलाया जा रहा है और इसके समाधान भी आर्थिक और राजनीतिक आधार पर खोजे जा रहे हैं ऐसे में इस पूरे आन्दोलन के एक विचारधारा विरोधी दूसरी विचारधारा हो जाने के अवसर अधिक हैं।

श्री गोविन्दाचार्य जी ने अपने पूरे वक्तव्य में वैश्वीकरण के समाधान के रूप में लोभ, मोह और क्रोध से परे रहने की बात की परंतु यह तो तभी सम्भव है जब जीवन में आस्था और साधना हो और इसके लिये आवश्यक है कि नयी पीढी का जीवन धर्म प्रेरित हो और बहस इस बात पर हो कि समाज के प्रत्येक क्षेत्र में धर्म का शासन हो और इस क्रम में सेकुलरिज्म की पश्चिमी अवधारणा और धर्म की भारत की परम्परा पर बहस हो। गोविन्द जी की बात से स्पष्ट था कि वे समाज में बढ्ती सामाजिक संवेदनहीनता हो अनुभव कर रहे हैं पर इसका भाव तो तभी आयेगा जब जीवन में धर्म होगा। आज विश्व के सभी प्रयोग असफल हो चुके हैं और वैश्वीकरण विचार के रूप में एक अंतिम पश्चिमी प्रयास है पर हमें याद रखना चाहिये कि इसमें तकनीक भी एक पक्ष है है और मार्केटिंग भी एक तकनीक है और वैश्वीकरण के इस पक्ष को स्वीकार करना चाहिये और इसके विचार से उपजी प्रछन्न भोगवादी संस्कृति को अपने धर्म के शस्त्र से काटना चाहिये।

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फतवा और आतंकवाद साथ- साथ

Posted by amitabhtri पर अप्रैल 13, 2008

पिछ्ले दिनों जब उत्तर प्रदेश में सहारनपुर स्थित प्रमुख इस्लामी संस्था दारूल उलूम देवबन्द ने आतंकवाद की भर्त्सना करने जैसा दिखने वाला एक बडा सम्मेलन आयोजित किया और उसमें आतंकवाद और इस्लाम के मध्य परस्पर किसी भी सम्बन्ध से इंकार करते हुए भी अनेक ऐसी बातें कहीं जो इन मौलवियों या इस्लामी धर्मगुरुओं की नीयत पर प्रश्न खडा करने के लिये पर्याप्त था। इन बातों में सबसे प्रमुख बात यह थी कि आतंकवाद के नाम पर सरकार और सुरक्षा एजेंसियाँ निर्दोष मुसलमानों को निशाना बना रही हैं और उन्हें हिरासत में लिया जा रहा है। इसी क्रम में इस सम्मेलन में कहा गया कि मदरसों को भी नाहक परेशान किया जा रहा है। इस उलेमा सम्मेलन की काफी चर्चा हुई और अनेक लोगों ने इसे अत्यंत सकारात्मक पहल घोषित किया। भारतीय जनता पार्टी के नेता और एक प्रमुख हिन्दी दैनिक में वरिष्ठ स्तम्भकार ने तो इस सम्मेलन को नरमपंथी इस्लाम के विकास की दिशा में एक ऐतिहासिक कदम की सन्ज्ञा तक दे डाली तो वहीं कुछ अन्य लेखकों ने इस मामले पर काफी सधी टिप्पणी की।

 

इस विषय पर लोकमंच में प्रकाशित किये गये आलेख में उलेमा सम्मेलन को लेकर कुछ प्रश्न खडे किये गये थे और इस सम्मेलन के प्रस्तावों और इसमें हुई चर्चा के आधार पर आशंका प्रकट की गयी थी कि ऐसे प्रयास एक सोची समझी रणनीति का अंग हैं जिसका प्रमुख उद्देश्य समाज में इस्लामवाद के प्रतिरोध की शक्ति को कुन्द करना है और इस पूरी बहस में आतंकवाद की प्रेरणास्रोत विचारधारा पर चर्चा होने से रोकना है। यह विषय इस समय फिर से लाने के पीछे कुछ प्रमुख कारण हैं।

 

मार्च महीने से लेकर इस अप्रैल महीने तक भारत में अनेक इस्लामी आतंकवादी नेटवर्क या आतंकवादी गिरफ्तार किये गये हैं।  इसमें सबसे उल्लेखनीय गिरफ्तारी सिमी के सदस्यों की है। मार्च के महीने में इन्दौर में सिमी के कुछ सदस्यों की गिरफ्तारी के बाद एक के बाद एक राज खुलते गये और अंततोगत्वा मध्य प्रदेश के एक क्षेत्र चोरल में सिमी के आतंकवादी प्रशिक्षण शिविर का भी पता चला और यह भी पता लगा कि यहाँ छोटे बच्चों को भी सशस्त्र प्रशिक्षण प्रदान किया जाता था और उन बच्चों को शिविर में देखभाल के लिये महिलाओं का एक बल शाहीन बल के नाम से गठित गिया गया था। सिमी के पकडे गये सदस्यों में इस संगठन का मुखिया सफदर नागौरी  भी शामिल है जिसका 11 जुलाई को मुम्बई के ट्रेन धमाकों के सिलसिले में मुम्बई के सिमी को जेल से पत्र लिखने का मामला भी काफी चर्चा में आया और इससे इन धमाकों में सिमी के लिप्त होने की पुष्टि भी हो गयी। मध्य प्रदेश से ही पकडे गये सिमी के सद्स्यों से पता चला कि हैदराबाद में मक्का मस्जिद में हुए धमाकों के तार भी सिमी से जुडे हैं।

 

पिछ्ले वर्ष कर्नाटक में आतंकवादी प्रशिक्षण होने का समाचार एक चौंकाने वाली घटना थी और अब मध्य प्रदेश में ऐसे शिविर के मिलने से एक बात स्पष्ट हो गयी है कि भारत में आतंकवाद का आधारभूत ढाँचा अब निर्णायक स्थिति में पहुँच गया है और इस सम्स्या पर समग्रता से विचार करने की आवश्यकता है। समग्रता से तात्पर्य है कि इस समस्या के पीछे के विचारधारागत स्रोत को पहचानने की आवश्यकता है। क्या इस सम्बन्ध में सार्थक प्रयास हो रहे हैं। दुर्भाग्यवश इसका उत्तर नकारात्मक है। ऐसा इसलिये है कि भारत में बहुत कम संख्या में लोग ऐसे हैं जो इस समस्या को कानून व्यवस्था से परे कहीं अधिक व्यापक सन्दर्भ में देखना चाह्ते हैं। यह बात सत्य है कि इस्लाम के नाम पर चल रहे आतंकवाद को पूरी तरह इस्लाम धर्म से नहीं जोडा जा सकता परंतु यह भी सत्य है कि इसके पीछे की प्रेरणास्रोत विचारधारा पूरी तरह इस्लाम से प्रेरणा ग्रहण करती है और इसका उद्देश्य भले ही विश्व में शक्ति के आधार पर इस्लाम की सर्वोच्चता स्थापित करना और विश्व का संचालन शरियत या इस्लामी कानून के आधार पर सुनिश्चित करना हो इस राजनीतिक इस्लाम की अवधारणा से इस्लामी धर्म के विद्वान और धर्मगुरु भी असहमत नहीं दिखते। यही विषय सर्वाधिक चिंता का कारण है और इसी कारण अंतर्धार्मिक बह्सों या आडम्बरी फतवों से इस समस्या का समाधान सम्भव नहीं है।

 

अभी कुछ दिनों पूर्व मुझे किसी मित्र ने मुम्बई स्थित इस्लामिक रिसर्च फाउण्डेशन और उसके प्रमुख डा. जाकिर नाइक के सम्बन्ध में बताया। उनके सम्बन्ध में अधिक जानने की जिज्ञासा से जब इण्टरनेट पर ढूँढा तो मुझे कुछ विषयों पर घोर आश्चर्य हुआ और उनके कुछ विचार इतने असहिण्णु दिखे कि उनमें और इस्लामवादी आतंकवादियों के एजेण्डे में विशेष अंतर नहीं दिखा। वीडियो की प्रसिद्ध साइट यू-ट्यूब पर डा. जाकिर नाइक का एक वीडियो है जो प्रसिद्ध इस्लामी चैनल Q TV के प्रश्नोत्तर पर आधारित है इस वीडियो में डा जाकिर नाइक स्पष्ट रूप से कहते हैं कि इस्लाम को छोडकर शेष सभी धर्म गलत हैं और वे गलत सीख देते हैं इसी कारण इस्लामी देशों में गैर मुस्लिम धर्मों का प्रचार या उनके उपासना स्थल बनाने की आज्ञा नहीं दी जा सकती। इस सम्बन्ध में तर्क के लिये उन्होंने एक उदाहरण दिया है जो अत्यंत रोचक है उनके अनुसार यदि किसी विद्यालय के प्रधानाचार्य के पास तीन व्यक्ति गणित का अध्यापक बनने आयें और प्रधानाचार्य उससे प्रश्न पूछे कि दो और दो कितने होते हैं और उनमें से एक का उत्तर हो चार, दूसरा कहे पाँच और तीसरा कहे छह तो प्रधानाचार्य उसी को अध्यापक नियुक्त करेगा जो उत्तर में दो और दो चार कहेगा न कि पाँच और छ्ह कहने वाले को। नाइक के अनुसार शेष दो को लगता है कि दो और दो पाँच और छह होता है पर प्रधानाचार्य को पता है कि यह गलत है इसलिये वह गलत शिक्षा अपने छात्रों को नहीं लेने देगा। जाकिर नाइक के अनुसार यही फार्मूला धर्म के मामले में भी है। गैर इस्लामी धर्मों को लगता है कि उनकी शिक्षायें ठीक हैं परंतु इस्लाम के अनुयायी जानते हैं कि वे गलत हैं और यदि किसी का दीन( धर्म) सही है तो वह सिर्फ इस्लाम है। यही कारण है कि इस्लामी देशों में अपने धर्म का प्रचार करने या उपासना स्थल बनाने की छूट गैर मुसलमानों को नहीं है।

 

 

डा. जाकिर नाइक को इन दिनों अंतरधार्मिक विमर्श के सम्बन्ध में और तुलनात्मक धार्मिक अध्ययन का विशेषज्ञ माना जाता है जो इसी विषय पर विश्व के अनेक देशों में व्याख्यान देते हैं। ऐसे व्यक्ति के विचार यदि इतने असहिण्णु हैं जो इस्लामी सर्वोच्चता के सिद्धांत से परिपूर्ण है उससे इस बात कि अपेक्षा भला कैसे की जा सकती है कि वह ऐसे प्रयासों से विश्व में सहिण्णुता की स्थिति निर्माण करने में सहायक हो सकेगा।

 

इन्हीं महोदय ने मुम्बई में ही एक हिन्दू और इस्लाम के मध्य समानताओं के विषय पर एक व्याख्यान का आयोजन किया जिसका पूरा वीडियो यू-ट्यूब पर उपलब्ध है। इस पूरे व्याख्यान में केवल एक बार कुछ मिनटों के लिये आर्य समाज के तीन विद्वानों को वैदिक ऋचाओं के पाठ के लिये मंच पर स्थान दिया गया और उसके उपरांत दोनों धर्मों की समानता पर डा जाकिर नाइक का एकपक्षीय भाषण होता रहा परंतु उनके भाषण का लब्बोलुआब यही रहा कि यदि हिन्दू इस्लाम की भाँति अल्लाह को सर्वोच्च ईश्वर स्वीकार करे तो ही दोनों धर्मों में सद्भाव सम्भव है। यह सन्दर्भ इसलिये मह्त्वपूर्ण है कि इस्लाम के नाम पर आतंकवाद करने वाले भी यही तर्क देते हैं कि उनका उद्देश्य गलत दीन का पालन कर रहे लोगों को अल्लाह के सही रास्ते पर लाना है। यही तर्क यदि इस्लाम के जानकार और विद्वान भी देते हैं कि इस्लाम के अतिरिक्त शेष धर्म अन्धकारमय हैं तो चिंता होती है कि इन दोनों की सोच में अंतर नहीं है अंतर है तो केवल उद्देश्य प्राप्त करने के तरीके में। एक इतना असहिण्णु है कि उसकी बात न मानने वाले को मौत के घाट उतार देता है और दूसरा यह कह कर लानत भेजता है कि तुम गलत रास्ते पर हो और सही रास्ता हमारा है।

विश्व के अनेक देशों में और विशेषकर यूरोप में जब अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर इस्लाम के तथाकथित प्रतीकों पर भी चर्चा का दौर आरम्भ हो गया है और इस विषय को लेकर इस्लाम में कुछ बेचैनी भी अनुभव की जा रही है तो भी भारत में यह विषय अब भी बह्स की परिधि से बाहर है और पिछ्ले महीने देश की राजधानी में बुद्धिजीवियों के मध्य एक घटना घटित हुई जिस पर विशेष संज्ञान नहीं लिया गया परंतु यह घटना हमारी लेख की इस विषयवस्तु को पुष्ट ही करती है कि जब भी आतंकवाद के नाम पर वामपंथियों या इस्लामवादियों द्वारा कोई बहस आयोजित की जाती है तो वह पूरे विषय के मूल स्रोत पर चर्चा करने के स्थान पर इस विषय पर केन्द्रित हो जाती है कि किस प्रकार मुसलमानों का उत्पीडन आतंकवाद को प्रेरित करता है। आज समस्त विश्व में मुस्लिम उत्पीडन की एक मिथ्या अवधारणा को सृजित किया गया है और इसके इर्द-गिर्द इस्लामी आतंकवाद को न्यायसंगत ठहराया जा रहा है।

 

पिछ्ले महीने 2 मार्च को राष्ट्रीय राजधानी स्थित उर्दू प्रेस क्लब में आतंकवाद और फासिज्म: एक ही सिक्के के दो पहलू विषय पर परिचर्चा आयोजित की गयी और इसमें प्रमुख मानवाधिकार कार्यकर्त्री और लेखिका अरुन्धती राय, संसद पर आक्रमण के दोषी रहे और फिर साक्ष्यों के अभाव में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा बरी किये गये गिलानी, प्रसिद्ध टी वी पत्रकार मनोज रघुवंशी सहित अनेक मुस्लिम वक्ता भी थे। उस कार्यक्रम में भाग लेने गये विश्व हिन्दू परिषद के एक नेता सुरेन्द्र जैन ने आँखो देखा हाल बताया कि अरुन्धती राय और गिलानी ने भारत सरकार को जमकर कोसा और निष्कर्ष निकाला कि भारत में कानून व्यवस्था जैसी कोई चीज नहीं है और घोर अराजकता का माहौल है।

 

पत्रकार मनोज रघुवंशी ने मुस्लिम उत्पीडन के नाम पर इस्लामी आतंकवाद तो न्यायसंगत ठहराने की प्रवृत्ति की आलोचना की तो पूरे सभाकक्ष में शोर मचने लगा। इसके बाद हसनैन नामक एक वक्ता बोलने के लिये उठे और उन्होंने श्री राम और सीता पर अभद्र टिप्पणियाँ की और श्री राम को युद्ध प्रेमी सिद्ध कर दिया। इनके बाद जब विश्व हिन्दू परिषद के नेता सुरेन्द्र जैन बोलने आये तो उन्होंने श्री राम पर की गयी टिप्पणियों पर आपत्ति जताते हुए कहा कि यदि इसी प्रकार की टिप्पणियाँ आपके पैगम्बर पर की जायें तो आपको कैसा लगेगा। इसके बाद तो सभाकक्ष में जम कर बवाल हो गया और मंच पर तथा दर्शकों में से लोगों ने वक्ता को घेर लिया और हाथापाई की नौबत आ गयी। किसी ने वक्ता को धमकाते हुए कहा कि 6 दिसम्बर से अब तक 10 हिन्दुओं को मार चुका हूँ और 11वाँ नम्बर तेरा है। मंच पर 13 से 15 लोगों ने वक्ता को घेर लिया और काफी देर बाद पुलिस आयी और विश्व हिन्दू परिषद के नेता को सुरक्षित निकाल ले जा पाई।

 

इस घटना के भी निहितार्थ हैं। इस्लाम के धर्मगुरु या विद्वान जब व्याख्यान देते हैं तो इस अजीब तर्क पर जोर देते हैं कि इस्लाम का आकलन उसके धर्मग्रंथों के आधार पर किया जाना चाहिये न कि उसके अनुयायियों के आधार पर क्योंकि अनुयायी प्रायः धर्म को सही नहीं समझते और उनका आचरण धर्म के विपरीत होता है। इस धारणा को अंग्रेजी में Apologetic कहते हैं इसके लिये हिन्दी में कोई समानान्तर शब्द नहीं है परंतु ये वही लोग हैं जो अपने तर्कों के आधार पर इस्लामी आतंकवाद को इस्लाम से अस्पृक्त भी करते हैं और आतंकवाद को मुस्लिम उत्पीडन की अवधारणा के आधार पर न्यायसंगत भी ठहराते हैं। यह प्रवृत्ति कितनी खतरनाक है इसका पता उपर्युक्त उदाहरण से बखूबी चलता है कि बुद्धिजीवी माने जाने वाले मुसलमान भी दूसरे धर्मों के महापुरुषों का सम्मान नहीं करते और उनपर टिप्पणी करना अपना लोकतांत्रिक अधिकार मानते हैं और वही अधिकार जब उनके शीर्ष पुरुषों के सम्बन्ध में प्रयोग किया जाता है तो इसे ईशनिन्दा मानकर हिंसा पर उतारू हो जाते हैं। यह अवधारणा किस ओर संकेत करती है और ऐसे लोग इस्लामी आतंकवाद की आग बुझाने में कितने सक्षम होंगे इसका निष्कर्ष पाठक ही निकालें तो श्रेयस्कर होगा।

 

आजकी सबसे बडी आवश्यकता इस्लामी आतंकवाद को व्यापक सन्दर्भ में समझने और उसके पीछे की मूल प्रेरणा को पहचानने की है। क्योंकि यह कानून और व्यवस्था का प्रश्न नहीं है इसके पीछे एक सोच है और जब तक उस सोच पर प्रहार नहीं होगा तब तक आतंकवाद से मुक्ति प्राप्त कर लेने से भी इस्लामी सर्वोच्चता और शरियत लागू करने की सोच से प्रेरित इस्लामवाद पर विजय नहीं प्राप्त की जा सकती क्योंकि इस्लामवादी केवल आतंकवादी नहीं हैं वे भी हैं जो इसी उद्देश्य को शांतिपूर्ण तरीके से प्राप्त करना चाह्ते हैं। ऐसे तत्वों से भी सावधान रहने की आवश्यकता है।    

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