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सेकुलरिज्म के बहाने आतंकवाद का समर्थन?

Posted by amitabhtri on सितम्बर 28, 2008

सेकुलरिज्म के बहाने आतंकवाद का समर्थन? अमिताभ त्रिपाठी

पिछले दिनों भारतीय जनता पार्टी के बौद्धिक प्रकोष्ठ ने आतंकवाद के विषय पर एक सार्थक चर्चा का आयोजन किया और इस कार्यक्रम में पार्टी के राष्ट्रीय महाचिव अरुण जेटली ने जो विचार रखे उसमें एक बात अत्यन्त मौलिक थी कि देश एक ऐसी स्थिति में आ गया है जहाँ देश के सबसे पुराने राजनीतिक दल काँग्रेस ने अपने वर्षों की परम्परा जो राष्ट्रवाद और सेकुलरिज्म के संतुलन पर आधारित थी उसे तिलाँजलि देकर अब सेकुलरिज्म को ही अपना लिया है और वह भी ऐसा सेकुलरिज्म जो इस्लामी कट्टरवाद की ओर झुकाव रखता है। यह बात केवल काँग्रेस के सम्बन्ध में ही सत्य नहीं है पूरे देश में विचारधारा के स्तर पर जबर्दस्त ध्रुवीकरण हो रहा है और स्वयं को मुख्यधारा के उदारवादी-वामपंथी बुद्धिजीवी कहने वाले लोग सेकुलरिज्म के नाम पर इस्लामी कट्टरवाद को प्रोत्साहन दे रहे हैं।
पिछले कुछ महीनों में देश के अनेक भागों में हुए आतंकवादी आक्रमणों के बाद यह बहस और मुखर हो गयी है विशेषकर 13 सितम्बर को दिल्ली में हुए श्रृखलाबद्ध विस्फोटों के बाद मीडिया ने इस विषय पर बहस जैसा वातावरण निर्मित किया तो पता चलने लगा कि कौन किस पाले में है? प्रिंट मीडिया के अनेक पत्रकारों ने इस विषय पर अपने विचार व्यक्त किये और दिल्ली विस्फोटों में उत्तर प्रदेश के आज़मगढ का नाम आने पर एक बहस आरम्भ हुई जिसके अनेक पहलू सामने आये। एक तो इलेक्ट्रानिक मीडिया का एक स्वरूप सामने आया जिसने काफी समय से अनुत्तरदायित्वपूर्ण पत्रकारिता का आरोप झेलने के बाद पहली बार आतंकवाद को एक अभियान के रूप में लिया और इसके अनेक पहलुओं पर विचार किया। इसी बह्स में अनेक चैनलों ने अनेक प्रकार की बहस की और सर्वाधिक आश्चर्यजनक बह्स कभी पत्रकारिता के स्तम्भ रहे और पत्रकार द्वारा संचालित चैनल का दावा करने वाले राजदीप सरदेसाई के सीएनएन-आईबीएन के चैनल पर देखने को मिली। प्रत्येक शनिवार और रविवार को विशेष कार्यक्रम प्रसारित करने वाले राजदीप सरदेसाई ने आतंकवाद पर एक विशेष सर्वेक्षण के परिणामों की व्याख्या के लिये यह कार्यक्रम आयोजित किया। सीएनएन- आईबीएन और हिन्दुस्तान टाइम्स के संयुक्त प्रयासों से किये गये इस सर्वेक्षण में जो कुछ चौंकाने वाले पहलू थे उनमें दो मुख्य थे- एक तो सर्वेक्षण के अंतर्गत दिल्ली, मुम्बई, चेन्नई, अहमदाबाद, हैदराबाद के लोगों से यह पूछना कि उनकी दृष्टि में किस मात्रा में उनकी पुलिस साम्प्रदायिक है और दूसरा काँग्रेस, भाजपा और पुलिस अधिकारी को बहस में बुलाकर उनके ऊपर विशेष राय के लिये प्रसिद्ध गीतकार जावेद अख्तर को रखना। यही नहीं 27 सितम्बर को दिल्ली में मेहरौली में हुए बम विस्फोट के बाद जब सीएनएन-आईबीएन ने अपने न्यूजरूम में इन्हीं जावेद अख्तर को बुलाया तो इससे स्पष्ट संकेत लगाना चाहिये कि इस चैनल के मन में आतंकवाद को लेकर क्या है?

किस आधार पर राजदीप सरदेसाई जावेद अख्तर को देश का ऐसा चेहरा मानते हैं जो पूरी तरह निष्पक्ष है और आतंकवाद पर इनकी नसीहत किसी पक्षपात से परे है जबकि इनकी पत्नी ने कुछ ही महीनों पहले कहा था कि उन्हें मुम्बई में फ्लैट नहीं मिल पा रहा है क्योंकि इस देश में मुसलमानों के साथ भेदभाव होता है। जिस शबाना आज़मी के पास मुम्बई के विभिन्न स्थानों पर सम्पत्ति है उसे अचानक लगता है कि उन्हें इस देश में मुसलमान होने की कीमत चुकानी पड रही है और जो बात पूरी तरह निराधार भी सिद्ध होती है ऐसे शबाना आजमी के पति पूरे देश के लिये एक निष्पक्ष दार्शनिक कैसे बन गये? पूरी बह्स के बाद जब राजदीप सरदेसाई ने आतंकवाद के समाधान के लिये जावेद अख्तर से समाधान पूछा तो उनका उत्तर था कि सभी प्रकार के आतंकवाद से लडा जाना चाहिये फिर वह भीड का आतंकवाद हो, राज्य का आतंकवाद हो या फिर और कोई आतंकवाद हो। पूरी बहस में राजदीप सरदेसाई और जावेद अख्तर देश भर में हो रहे जिहादी आतंकवाद के विचारधारागत पक्ष पर चर्चा करने से बचते रहे। जब मुम्बई के पूर्व पुलिस प्रमुख एम एन सिंह ने कहा कि कडा कानून और खुफिया तंत्र भी 50 प्रतिशत ही आतंकवाद से लड सकता है और शेष 50 प्रतिशत की लडाई विचारधारा के स्तर पर लड्नी होगी। इस पर जावेद अख्तर साहब उसी पुराने तर्क पर आ गये कि यदि सिमी पर प्रतिबन्ध लगे तो बजरंग दल पर भी प्रतिबन्ध लगना चाहिये।

राजदीप सरदेसाई की बहस एक विचित्र स्थिति उत्पन्न करती है। जरा कुछ बिन्दुओं पर ध्यान दीजिये। वे आतंकवाद के विरुद्ध कौन सी सरकार बेहतर लडी यह आँकडा प्रस्तुत करते हैं और कहते हैं कि 26 प्रतिशत लोग यूपीए को बेहतर मानते हैं और 28 प्रतिशत लोग एनडीए को। अब राजदीप सरदेसाई भाजपा के राजीव प्रताप रूडी से पूछते हैं कि आप में भी जनता को अधिक विश्वास नहीं है कि आप इस समस्या से बेहतर लडे। सर्वेक्षण में 46 प्रतिशत लोग मानते है कि कोई भी वर्तमान राजनीतिक दल आतंकवाद से प्रभावी ढंग से नहीं लड रहा है। जरा विरोधाभास देखिये कि एक ओर देश के मूर्धन्य पत्रकार राजदीप सरदेसाई पुलिस का इस आधार पर सर्वेक्षण करते हैं कि वह कितनी साम्प्रदायिक है और भाजपा पर आरोप लगाते हैं कि पोटा कानून का अल्पसंख्यकों के विरुद्ध दुरुपयोग होता है तो वहीं कहते हैं कि आप भी तो आतंकवाद से बेहतर ढंग से नहीं लड पाये। लेकिन राजदीप सरदेसाई हों या जावेद अख्तर हों वे उस खतरनाक रूझान की ओर ध्यान नहीं देते कि जिस देश के 46 प्रतिशत लोगों का विश्वास अपने नेताओं से इस सन्दर्भ में उठ जाये कि वे उनकी रक्षा करने में समर्थ हैं तो इसके परिणाम आने वाले समय में क्या हो सकते हैं?

इससे पहले राजदीप सरदेसाई ने अपने चैनल पर कुछ सप्ताह पूर्व आतंकवाद पर ही एक बहस आयोजित की थी और किसी मानवाधिकार कार्यकर्ता के साथ किरण बेदी और अरुण जेटली को भी आमंत्रित किया था और स्वयं को उदारवादी और लोकतांत्रिक सिद्ध करते हुए पुलिस को अपराधी तक सिद्ध करने का अवसर बहस में मानवाधिकार कार्यकर्ता को दिया था। अब प्रश्न है कि पुलिस को अधिकार भी नहीं मिलने चाहिये, जिहाद पर चर्चा भी नहीं होनी चाहिये, सेकुलरिज्म के नाम पर इस्लामी कट्टरवाद को बढावा दिया जाना चाहिये, देश के बहुसंख्यक हिन्दुओं की बात उठाने वाले को आतंकवादियों के बराबर खडा किये जाने के प्रयासों को महिमामण्डित किया जाना चाहिये, मानवाधिकार के नाम पर आतंकवादियों की पैरोकारी होनी चाहिये, आतंकवाद के आरोप में पकडे गये लोगों के मामले में सेकुलरिज्म के सिद्धांत का पालन होना चाहिये। इन परिस्थितियों में कौन सा देश आतंकवाद से लड सकता है यह फार्मूला तो शायद राजदीप सरदेसाई और जावेद अख्तर के पास ही होगा।

आज सबसे दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति यह है कि हमारे चिंतन और व्यवहार में राष्ट्र के लिये कोई स्थान नहीं है और इसका स्थान उन प्रवृत्तियों ने ले लिया है जो राष्ट्र के सापेक्ष नहीं हैं। आश्चर्य का विषय है कि जिस उदारवाद का पाठ हमारे बडे पत्रकार दुनिया के सबसे बडे उदारवादी लोकतंत्र अमेरिका से पढते हैं वे क्यों भूल जाते हैं कि अमेरिका में राज्य के अस्तित्व और उसके ईसाई मूल के चरित्र पर कोई प्रश्नचिन्ह नहीं खडा किया जाता और इन दो विषयों पर पूरे देश में सहमति है इसी कारण 11 सितम्बर 2001 को आतंकवादी आक्रमण के बाद आम सहमति हो या फिर अभी आये आर्थिक संकट के मामले में सहमति हो इस बात को आगे रखा जाता है कि राज्य कैसे सुरक्षित रहे? 11 सितम्बर के आक्रमण के बाद कुछ कानूनों को लेकर उदारवादी-वामपंथियों ने अमेरिका में भी काफी हो हल्ला मचाया था पर राज्य की सुरक्षा को प्राथमिकता दी गयी न कि उदारवादी-वामपंथियों को फिर भारत में ऐसा सम्भव क्यों नहीं है? निश्चय ही इसका उत्तर अरुण जेटली की इसी बात में है कि अब काँग्रेस में राष्ट्रवाद के लिये कोई स्थान नहीं है और उसका झुकाव सेकुलरिज्म की ओर है जो इस्लामी कट्टरवाद से प्रेरित है।

लेकिन चिंता का विषय यह है कि केवल काँग्रेस ही इस भावना के वशीभूत नहीं है देश में बुद्धिजीवियों का एक बडा वर्ग सेकुलरिज्म और पोलिटिकल करेक्टनेस की ओर झुक रहा है और आतंकवाद ही नहीं राष्ट्रवाद से जुडे सभी विषयों पर विभ्रम की स्थिति उत्पन्न कर रहा है। यही कारण है कि इस्लामी आतंकवाद की चर्चा करते समय अधिकाँश पत्रकार यह भूल जाते हैं कि यह एक वैश्विक आन्दोलन का अंग है और वे इसे 1992 में अयोध्या में बाबरी ढाँचे के ध्वस्त होने से जोडकर चल रहे हैं। लेकिन यह तर्क निरा बकवास है इस देश में मुस्लिम वर्ग के साथ कोई ऐसा अन्याय नहीं हुआ है कि वह हथियार उठा ले। आज समस्त विश्व में इस अवधारणा को प्रोत्साहन दिया जा रहा है कि अमेरिका द्वारा इजरायल को दिये जा रहे समर्थन से अल कायदा जैसे संगठन उत्पन्न हुए। यदि ऐसा है तो ब्रिटेन, स्पेन, बाली में मुस्लिम समाज के साथ क्या अन्याय हुआ था? दक्षिणी थाईलैण्ड में बौद्धों ही पिछले दो वर्ष से हत्यायें क्यों हो रही हैं। आज भारत में सेकुलरिज्म के नाम पर जिस प्रकार इस्लामी आतंकवाद के लिये तर्क ढूँढे जा रहे हैं इसका स्वरूप भी वैश्विक है।

जिस प्रकार 11 सितम्बर 2001 की घटना को विश्व भर के उदारवादी-वामपंथियों ने सीआईए और मोसाद का कार्य बताया था उसी प्रकार भारत में 2002 में गोधरा में रामसेवकों को ले जा रही साबरमती ट्रेन में इस्लामवादियों द्वारा लगायी गयी आग के लिये हिन्दू संगठनों को ही दोषी ठहरा कर षडयंत्रकारी सिद्धांत का प्रतिपादन इसी बिरादरी के भारत के लोगों ने किया । जिस प्रकार विदेशों में सक्रिय इस्लामी आतंकवादी फिलीस्तीन और इजरायल विवाद, इराक में अमेरिका सेना की उपस्थिति और ग्वांटेनामो बे में इस्लामी आतंकवादियों पर अत्याचार को आतंकवाद बढने का कारण बता रहे है उसी प्रकार भारत में 1992 में अयोध्या में बाबरी ढाँचा गिराया जाना, 2002 में गुजरात के दंगे और प्रत्येक आतंकवादी आक्रमण के बाद निर्दोष मुसलमानों को पकडा जाना और उन्हें प्रताडित किये जाने को भारत में इस्लामी आतंकवादी घटनाओं का कारण बताया जा रहा है। आज भारत में हिन्दू संगठनों को इस्लामी आतंकवाद का कारण बताया जा रहा है तो विश्व स्तर पर अमेरिका के राष्ट्रपति बुश और इजरायल को लेकिन वास्तविकता ऐसी नहीं है।

आज विश्व स्तर पर इस्लामी आतंकवाद के आन्दोलन का सहयोग बौद्धिक प्रयासों से, मानवाधिकार के प्रयासों से, मुसलमानों को उत्पीडित बताकर और षडयंत्रकारी सिद्धान्त खोजकर किया जा रहा है। पिछले वर्ष ईरान के राष्ट्रपति महमूद अहमदीनेजाद ने अपने देश में यूरोप और अन्य देशों के उन विद्वानों को आमंत्रित किया जो मानते हैं कि नाजी जर्मनी में यहूदियों का नरसंहार हुआ ही नहीं था और यह कल्पना है जिस आधार पर यहूदी समस्त विश्व को ब्लैकमेल करते हैं।

आज विश्व स्तर पर चल रहे इन प्रयासों के सन्दर्भ में हमें इस्लामी आतंकवाद की समस्या को समझना होगा। आज उदारवादी-वामपंथी बनने के प्रयास में हमारा बुद्धिजीवी समाज आतंकवादियों के हाथ का खिलौना बन रहा है।

आज जिस प्रकार सेकुलरिज्म के नाम पर भारत को कमजोर किया जा रहा है उसकी गम्भीरता को समझने का प्रयास किया जाना चाहिये। आखिर जो लोग मुस्लिम उत्पीडन का तर्क देते हैं और कहते हैं कि बाबरी ढाँचे को गिरता देखने वाली पीढी जवान हो गयी है और उसने हाथों में हथियार उठा लिये हैं या 2002 के दंगों का दर्द मुसलमान भूल नहीं पा रहे हैं तो वे ही लोग बतायें कि भारत विभाजन के समय अपनी आंखों के सामने अपनों का कत्ल देखने वाले हिन्दुओं और सिखों के नौजवानों ने हाथों में हथियार उठाने के स्थान पर अपनी नयी जिन्दगी आरम्भ की और देश के विकास में योगदान दिया। रातोंरात घाटी से भगा दिये गये, अपनों की हत्या और बलात्कार देखने के बाद भी कश्मीर के हिन्दुओं की पीढी ने हथियार नहीं उठाये और आज भी नारकीय जीवन जीकर अपने ही देश में शरणार्थी बन कर भी आतंकवादी नहीं बने क्यों? बांग्लादेश और पाकिस्तान में अल्पसंख्यकों का दर्जा पाने वाले हिन्दू पूरी तरह समाप्त होने की कगार पर आ गये पर उनकी दशा सुनकर कोई विश्व के किसी कोने में हिन्दू आत्मघाती दस्ता नहीं बना क्यों? इस प्रश्न का उत्तर ही इस्लामी आतंकवाद की समस्या का समाधान है।

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वैश्वीकरण और पत्रकारिता

Posted by amitabhtri on अगस्त 30, 2008

राष्ट्रीय स्वाभिमान आन्दोलन के राष्ट्रीय संयोजक श्री के.एन.गोविन्दाचार्य की पहल पर नई दिल्ली स्थित कांस्टीट्यूशन क्लब में वैश्वीकरण का पत्रकारिता पर प्रभाव व हमारी परम्परा नामक परिसंवाद आयोजित किया गया जो वास्तव में परिसंवाद से अधिक संगोष्ठी होकर रह गया। दिन भर के इस कार्यक्रम में अनेक नामी गिरामी पत्रकारों ने भाग लिया। इनमें प्रसिद्ध पत्रकार और जनसत्ता के संपादक प्रभाष जोशी, ई टी वी दिल्ली के प्रमुख एन.के.सिंह, प्रथम प्रवक्ता पत्रिका के संपादक और पूर्व में जनसत्ता से जुडे रहे रामबहादुर राय और जी न्यूज के सलाहकार संपादक पुण्य प्रसून वाजपेयी प्रमुख नाम थे। कार्यक्रम के प्रथम सत्र में प्रभाष जोशी ने उद्घाटन सत्र में पूरे विषय की भाव भूमि रखी और तय हो गया कि वर्तमान परिस्थितियों में पत्रकारिता के मूल्यों से लेकर वैश्वीकरण के बढते प्रभावों के बीच बदलते जीवन मूल्यों और बदलते सामाजिक ताने बाने पर विचार होगा और कमोवेश हुआ भी यही। परंतु इस पूरे लेख में तीन वक्ताओं के इर्द गिर्द पूरे विषय को समेटने का प्रयास होगा और यह प्रयास भी होगा कि उनके विचारों की समीक्षा और समालोचना भी हो सके।

प्रभाष जी ने अपने पूरे सम्बोधन में दो प्रमुख विषयों को स्पर्श किया एक तो यह कि भारत में पत्रकारिता बाजारमूलक हो गयी है और इसका उद्देश्य मुनाफा कमाना हो गया है और अब यह लोकहित से सरोकार रखने के स्थान पर ब्राण्ड निर्माण के कार्य में लिप्त हो गयी है। दूसरा विषय जो वयोवृद्ध पत्रकार ने उठाया वह था सम्पादकों के स्तर में आ रही गिरावट इस सम्बन्ध में उन्होंने स्वाधीनता आन्दोलन का उदाहरण दिया कि किस प्रकार अंग्रेजों के आगे झुकने के स्थान पर स्वदेश में आठ सम्पादकों ने काला पानी की सजा झेलना अधिक पसन्द किया।

कार्यक्रम में दूसरे प्रमुख वक्ता जिन्होंने कुछ समग्रता में विषयों को स्पर्श किया वह थे राम बहादुर राय जिन्होंने पत्रकार से अधिक एक आन्दोलनकारी की भाँति अपने विचार रखे और वर्तमान समस्याओं के मूल में भारतीय संविधान को देखा।

कार्यक्रम के दूसरे सत्र में राष्ट्रीय स्वाभिमान आन्दोलन के राष्ट्रीय संयोजक के.एन. गोविन्दाचार्य ने जब अपने विचार रखे तो यह स्पष्ट हो गया कि यह कार्यक्रम उनके देश व्यापी आन्दोलन को एक हिस्सा है जिसके मूल में विचार यह है कि वे अपने विचार को अधिक प्रासंगिक और क्रियाशील कैसे बना सकते हैं? के.एन. गोविन्दाचार्य ने कोई नई बात नहीं रखी और वैश्वीकरण के दुष्प्रभावों वाले कैसेट को फिर से रिप्ले कर दिया फिर भी उन्हें पहली बार सुनने वालों के लिये यह नया था और सार्थक भी था। श्री गोविन्दाचार्य ने कुछ बातें कहीं कि वर्तमान व्यवस्था कुछ देशी और विदेशी शक्तियों के हित साधती है इसलिये इसे बदलना आवश्यक है यह बदलाव सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक तीनों स्तर पर होना चाहिये। गोविन्दाचार्य की अधिक मह्त्वपूर्ण बात यह रही कि आने वाली पीढी के सुखद भविष्य को सुनिश्चित करने के लिये आवश्यक है कि समाज में प्रत्येक व्यक्ति अपनी क्षमता के अनुसार कुछ न कुछ अवश्य करे और क्रियाहीन होकर हारकर न बैठे।

इस आलेख में केवल तीन वक्ताओं की बात इसलिये की गयी है कि इस संगोष्ठी के पीछे का जो चिंतन है वह इन तीन वक्ताओं के विचारों में ही ढूँढा जा सकता है क्योंकि ये तीनों ही एक विचारधारा के लोग हैं, तीनों ही 1977 के जयप्रकाश नारायण आन्दोलन से प्रभावित लोग हैं साथ ही उसके सूत्रधार भी रहे हैं, तीनों के व्यक्तित्व में 1975 के आपातकाल और उसके प्रतिरोध के संस्मरण हैं और कुछ हद तक ये तीनों लोग अब भी उस दौर से बाहर नहीं आ पाये हैं और उसी तर्ज पर एक और समग्र क्रांति की प्रतीक्षा और प्रयास में हैं।

प्रभाष जोशी ने अपने पत्रकारिता जीवन की सबसे बडी उपलब्धि बताई कि अब भी वे अपने ही हाथ से लिखते हैं, उनकी लेखनी में कोई कलम नहीं लगती और एक बार में ही वे लिख जाते हैं और ऐसा सीधा लिखते हैं कि लोग उसे फोटो स्टेट तक कह जाते हैं। यह उपलब्धि कुछ बातों की ओर संकेत करती है इसमें कहीं न कहीं पत्रकारिता में विकसित हो रही नयी तकनीकों का पर व्यंग्य और इन नयी तकनीकों के आत्मसात न होने की जिद है। प्रभाष जी अपनी बातें साहित्यिक अन्दाज में लाक्षणिक अन्दाज में भी कहते हैं और उनका यह विचार उनकी इसी धारा का प्रतिनिधि है। प्रभाष जी के इस वक्तव्य से वैश्वीकरण से पत्रकारिता में आ रहे दो बदलावों की ओर संकेत जाता है एक तो बाजारोन्मुख पत्रकारिता और दूसरा तकनीक प्रधान पत्रकारिता। बाजारोन्मुख पत्रकारिता वैश्वीकरण के पूरे व्याकरण की ओर संकेत करती है जिसमें व्यापक बहस की गुंजायश है कि क्या वैश्वीकरण के चलते मूल्यों में बदलाव आ रहा है। दूसरा बदलाव तकनीक का है। यही दोनों बदलाव पिछले कुछ वर्षों में पूरे समाज में भी देखने को मिल रहे हैं कि मूल्यों में और तकनीक के स्तर पर बदलाव आया है।

अब इसमें प्रश्न यह है कि इन परिस्थितियों में क्या हो सकता है? सहज है कि तकनीक को अपनाया जाये और मूल्यों के बदलाव के कारणों पर विचार हो। अपने पूरे व्याख्यान में प्रभाष जी ने समस्यायें गिनाईं पर अपने स्तर से कोई समाधान नहीं सुझाया।

इसके पीछे प्रमुख कारण यह है कि तीनों ही लोग यानी प्रभाष जी , राम बहादुर राय जी और और गोविन्दाचार्य जी इस पूरी समस्या को एक आर्थिक ईकाई के रूप में ले रहे हैं और समाधान के मूल में व्यवस्थागत परिवर्तन को मानकर चल रहे हैं परंतु इस समस्या के मूल में और समाधान में आस्थागत पक्ष को छोड दिया गया है जो कि वैश्वीकरण से मुक्ति का मंत्र है। वर्तमान सन्दर्भ में आस्था को जिस प्रकार साम्प्रदायिकता से जोडकर उस पर बहस से बचने का प्रयास हो रहा है उससे ही सारी समस्या है।

परिवर्तन तो प्रकृति का नियम है जो विचार समाज के बदलते स्वरूप के साथ अपने को आत्मसात नहीं करता वही कट्टरपंथी या फण्डामेंटलिस्ट कहा जाता है इसी कारण यदि आज प्रछन्न भोगवादी संस्कृति वैश्वीकरण के मूल में समाज में अपनी पकड बना रही है तो इसके पीछे हमारे द्वारा ही प्रदान की गयी शून्यता है जो हमने तथाकथित सेकुलरिज्म के नाम पर आस्था और धर्म को छोडकर समाज को प्रदान की है। आज कोई भी पत्रकार अपने जीवन में हिन्दू संस्कृति के मूल्यों, परम्पराओं और मान्यताओं के आधार पर आचरण नहीं कर सकता क्योंकि ऐसा करने पर उसे तथाकथित कुलीन बिरादरी का प्रमाणपत्र नहीं मिलेगा और उसके लिये सेकुलर होने का अर्थ धर्मविरोधी होना ही है। यही बात हर बौद्धिक व्यक्ति के सम्बन्ध में भी लागू होती है। अपनी आस्थाओं को छोडकर हमने समाज में एक शून्यता का वातावरण दिया जिसकी पूर्ति आज वैश्वीकरण के विचार और आचरण से हो रही है।

रामबहादुर राय जी ने देश की सभी समस्याओं का कारण भारत के संविधान को बताया परंतु यह भी स्थाई समाधान नहीं है आखिर कौन सा संविधान देश में आयेगा और वह संविधान किस मात्रा में वर्तमान संविधान से भिन्न होगा। क्या आज यह साहस किसी में है कि वह स्वामी विवेकानन्द की भाँति अमेरिका की छाती पर चढकर उसके धर्म की सारहीनता सिद्ध कर सके और उसे बता सके कि वैश्वीकरण का विचार स्वतंत्रता और समानता के भाव का विरोधी है। आज वैश्वीकरण के विरोध के नाम पर नये विचारों और नयी तकनीक से आतंक और पलायन का भाव रखने वाले लोग बडी मात्रा में इस आवाज में शामिल हो रहे हैं जिससे यह पूरा अभियान एक विभ्रम की स्थिति का निर्माण कर रहा है। वैश्वीकरण एक आधुनिक धर्म है जो सेकुलरिज्म के नाम पर नास्तिक और आस्थाहीन होने की प्रवृत्ति का परिणाम है। परंतु आज वैश्वीकरण के नाम पर चल रही बहस को पूरी तरह आर्थिक आधार पर चलाया जा रहा है और इसके समाधान भी आर्थिक और राजनीतिक आधार पर खोजे जा रहे हैं ऐसे में इस पूरे आन्दोलन के एक विचारधारा विरोधी दूसरी विचारधारा हो जाने के अवसर अधिक हैं।

श्री गोविन्दाचार्य जी ने अपने पूरे वक्तव्य में वैश्वीकरण के समाधान के रूप में लोभ, मोह और क्रोध से परे रहने की बात की परंतु यह तो तभी सम्भव है जब जीवन में आस्था और साधना हो और इसके लिये आवश्यक है कि नयी पीढी का जीवन धर्म प्रेरित हो और बहस इस बात पर हो कि समाज के प्रत्येक क्षेत्र में धर्म का शासन हो और इस क्रम में सेकुलरिज्म की पश्चिमी अवधारणा और धर्म की भारत की परम्परा पर बहस हो। गोविन्द जी की बात से स्पष्ट था कि वे समाज में बढ्ती सामाजिक संवेदनहीनता हो अनुभव कर रहे हैं पर इसका भाव तो तभी आयेगा जब जीवन में धर्म होगा। आज विश्व के सभी प्रयोग असफल हो चुके हैं और वैश्वीकरण विचार के रूप में एक अंतिम पश्चिमी प्रयास है पर हमें याद रखना चाहिये कि इसमें तकनीक भी एक पक्ष है है और मार्केटिंग भी एक तकनीक है और वैश्वीकरण के इस पक्ष को स्वीकार करना चाहिये और इसके विचार से उपजी प्रछन्न भोगवादी संस्कृति को अपने धर्म के शस्त्र से काटना चाहिये।

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