अफजल की फांसी की माफी के मायने
Posted by amitabhtri पर अक्टूबर 4, 2006
भारत के लोकतान्त्रिक ढ़ाँचे के सर्वोच्च संस्थान संसद पर आक्रमण कर भारतीय सम्प्रभुता को चुनौती देने वाले आतंकवादियों में से एक मो. अफजल को फांसी की प्रस्तावित 20 अक्टूबर की तिथि को फिलहाल टालने के साथ ही अफजल को माफ करवाने के प्रयास भी तेज कर दिये गये हैं. अफजल को माफी दिलाने का पहला स्वर जम्मू कश्मीर के मुख्यमन्त्री की ओर से आया जब उन्होंने प्रधानमन्त्री मनमोहन सिंह को राज्य में शान्ति व्यवस्था बनाये रखने के हित में अफजल को माफ करने की माँग की. जम्मू कश्मीर के मुख्यमन्त्री गुलाम नबी आजाद की इस अपील के बाद जम्मू कश्मीर के पूर्व मुख्यमन्त्री फारूख अब्दुल्ला ने भी ऐसी ही माँग की तथा उनका साथ राज्य की सत्ताधारी पी.डी.पी की नेत्री महबूबा मुफ्ती ने भी दिया.
राज्य के कतिपय नेताओं के बयान से उत्साहित अफजल के परिजनों से देश की राजधानी आकर स्वयं राष्ट्रपति से मिलने का निर्णय लिया है. जम्मू कश्मीर के इन नेताओं और अफजल के परिजनों की यह माँग कुछ अर्थों में कार्य करती दिख रही है और कुछ अपुष्ट सूत्रों के अनुसार अफजल की फांसी की प्रस्तावित तिथि 20 अक्टूबर को फिलहाल टाल देने का निर्णय लिया जा चुका है. इस निर्णय के बाद कुछ प्रश्न अवश्य उठ खड़े हुये हैं.
जम्मू कश्मीर के मुख्यमन्त्री ने अफजल की फांसी को टालने या क्षमा करने का जो प्रमुख तर्क दिया था वह यह था कि फांसी की प्रस्तावित तिथि 20 अक्टूबर रमजान महीने का अन्तिम शुक्रवार है और इस तिथि को अफजल को फांसी देने से राज्य में कानून व्यवस्था की स्थिति तो बिगड़ेगी ही साथ ही पाकिस्तान के साथ चल रही शान्ति प्रक्रिया भी प्रभावित होगी. जम्मू कश्मीर के मुख्यमन्त्री का यह तर्क समस्त विश्व के इस्लामी आतंकवादियों की उस रणनीति की बहुत बड़ी विजय है जिसे उन्होंने पिछले कुछ वर्षों में विश्व के अनेक क्षेत्रों में अपनाया है. यह रणनीति है राज्य की संस्थाओं या जनमत निर्माण करने वाले संगठनों या व्यक्तियों को आतंकित करना या हिंसा का भय दिखाकर उन्हें अपना निर्णय बदलने पर विवश करना.
2004 में हालैण्ड के प्रसिद्ध लेखक और फिल्म निर्देशक थियो वान गाग की एम्सटर्डम में दिन दहाड़े की गई क्रूर हत्या इस रणनीति का अहम हिस्सा थी जब अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता के पक्षधर पश्चिमी विश्व को इस्लाम की आलोचना से डराकर रोका गया था. इसी प्रकार ब्रिटेन में जुलाई 2005 में परिवहन ढाँचे पर हमला कर इस्लामी आतंकवादियों ने प्रत्यक्ष रूप से इस देश को धमकाया फिर फ्रांस में दंगों के माध्यम से जनता को कम से कम क्षति पहुँचाकर सरकारी सम्पत्ति को निशाना बनाकर फ्रांस की जनता और सरकार में ईराक के सम्बन्ध में देश की भूमिका पर बहस आरम्भ करने को विवश किया था.
2003 में अमेरिका द्वारा ईराक पर किये गये हमले के बाद ईराक में अनेक देशों की सेनाओं को देश छोड़ने के लिये बाध्य करने के लिये इस्लामी आतंकी संगठनों ने अनेक देशों के नागरिकों या सैनिकों का अपहरण कर इन देशों को अपनी विदेश नीति बदलने पर विवश किया. अभी पिछले महीने फिलीस्तीन में अमेरिका के दो पत्रकारों का अपहरण कर उन्हें इस्लाम धर्म स्वीकार कर लेने की शर्त पर छोड़ दिया गया.
विश्व में इस्लामी आतंकवादियों की इस नई नीति को गम्भीरता से लिये जाने की आवश्यकता है विशेषकर उन परिस्थितियों की पृष्ठभूमि में कि इस्लामी आतंकवादियों का एजेण्डा पूरी तरह स्पष्ट है कि वे हिंसा के सहारे विभिन्न देशों की नीतियों को अपने अनुसार संचालित करना चाहते हैं.
इस्लामी आतंकवादियों के इस कार्य में सबसे बड़ा सम्बल उन राजनीतिक शक्तियों और बुद्धिजीवियों से मिलता है जो मुस्लिमों पर अत्याचार के इस्लामी आतंकवादियों के अपप्रचार को सहयोग प्रदान करते हुये आतंकवादियों के विरूद्ध कड़ी कार्रवाई का विरोध मानव अधिकारियों के नाम पर करते हैं तथा आतंकवादियों के पक्ष में सहानुभूति के वातावरण का निर्माण करते हैं. इस्लामी आतंकवाद के इस युग में सबसे बड़ी आवश्यकता आतंकवादियों की रणनीति को पूरी तरह समझकर उसमें सहयोग करने वाले तत्वों को पहचानकर उन्हें बेनकाब करने की है. मो. अफजल की फांसी की सजा की माफी का अभियान इस बात का स्पष्ट संकेत है कि भारत में भी ऐसा बौद्धिक राजनीतिक वर्ग है जो अपने निहित स्वार्थों के लिये इस्लामी आतंकवादियों के प्रति पूरी सहानुभूति रखता है. इस्लामी आतंकवादियों की यह नई रणनीति विश्वव्यापी जेहाद को नया आयाम स्वरूप प्रदान करते हुये इसका प्रतिरोध करने के लिये कुछ विशेष वैश्विक रणनीति की आवश्यकता की ओर संकेत करती है.
आतंकियों को सजा दिलाने या उनके प्रति कठोरता से पेश आने के मामले में अमेरिका और यूरोप के देशों की अपेक्षा कहीं अधिक नरम देश की छवि बना चुका भारत यदि मो. अफजल जैसे आतंकवादियों की सजा इस्लामवादियों के दबाव में टालने या क्षमा करने की नई प्रवृत्ति का विकास करता है तो निश्चय ही यह देशवासियों की पराजय और भात पर शरियत और इस्लाम का शासन स्थापित करने की आकांक्षा रखने वाले इस्लामादियों की विजय होगी.
एक उत्तर दें