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इजरायल की निन्दा क्यों?

Posted by amitabhtri पर जनवरी 7, 2009

इजरायल ने गाजा पट्टी में हमास पर आक्रमण किया नहीं कि समस्त विश्व एकजुट होकर इस देश की निन्दा करने लगा। विश्व की सर्वोच्च विधिक संस्था में संयुक्त राष्ट्र संघ में इजरायल की निन्दा के प्रस्ताव पारित किये जाने लगे और हर ओर से प्रयास होने लगा कि किसी प्रकार हमास और इजरायल के मध्य युद्ध विराम हो जाये। भारत सरकार भी इजरायल की निन्दा करने में पीछे नहीं रही और विदेश मंत्रालय ने आधिकारिक रूप से इजरायल को आक्रांता की संज्ञा देने में कोई हिचक नहीं दिखाई। लेकिन विश्व की इजरायल के विरुद्ध प्रतिक्रिया के पीछे अनेक प्रश्न खडे होते हैं जिनका संतोषजनक उत्तर अवश्य मिलना चाहिये।

इजरायल की निन्दा करने की भारत की पुरानी परम्परा रही है और भारत ने इजरायल के निर्माण की प्रक्रिया में भी फिलीस्तीन के विभाजन की शर्त पर इजरायल के निर्माण का विरोध किया था और इसके बाद भारत ने आधिकारिक रूप से अरब इजरायल संघर्ष में अरब देशों के साथ खडे होने का निर्णय लिया और इजरायल के हर उस कार्य की निन्दा की जो उसने अपनी आत्मरक्षा में किया। इजरायल के साथ भारत की नीति सदैव दोहरी रही है। एक ओर तो अरब देशों की सहानुभूति प्राप्त करने के लिये, इस्लामी उम्मा के असंतुष्ट हो जाने के भय से और भारत में स्थित मुस्लिम समाज को तुष्ट करने के लिये भारत सरकार सदैव अंतरराष्ट्रीय मंचों पर इजरायल की निन्दा करती रही तो वहीं अनेक रणनीतिक कारणों से इजरायल को साधने के प्रयास भी गैर सरकारी स्तर पर चलते रहे। वैसे तो भारत और इजरायल के मध्य कूटनीतिक स्तर पर सम्बन्ध 1992 में पी.वी.नरसिम्हाराव की सरकार में आरम्भ हुए परंतु खुफिया और सामाजिक स्तर पर दोनों देशों के मध्य सम्बन्ध 1965 से ही आरम्भ हो गया था। इजरायल को लेकर भारत सदैव दुविधा का शिकार रहा है और इसी कारण 1992 के बाद भी इजरायल की निन्दा का दौर चलता रहा है।

अब यदि इजरायल के हमास पर किये गये वर्तमान आपरेशन पर दृष्टि डालें तो कुछ प्रश्न उभरते हैं। गाजा में हमास पर इजरायल की कार्रवाई के बाद सभी विश्लेषकों ने एक स्वर से इजरायल की कार्रवाई को बर्बर कहना आरम्भ कर दिया परंतु 1948 में अपने जन्म से लेकर आज अतक इजरायल जिस स्थिति का सामना कर रहा है उस सन्दर्भ में विश्लेषकों की राय पूरी तरह एकतरफा लगती है जो इस धारणा पर आधारित है कि इजरायल अरब संघर्ष में स्वाभाविक सहानुभूति अरब देशों या फिलीस्तीनियों के प्रति होनी चाहिये। राजनीतिक रूप से सही होने की परम्परा, छ्द्म उदारवाद और सेक्युलर दिखने की होड में इजरायल की निन्दा तथ्यों के विश्लेषण के बिना की जाती है। 1948 से लेकर आजतक इजरायल ने अरब देशों के साथ जो संघर्ष किये हैं उसकी पृष्ठभूमि जानने के लिये इतिहास में जाना होगा। 1924 में ओटोमन साम्राज्य को समाप्त कर ब्रिटिश ने इस्लामी साम्राज्यवाद की धुरी खिलाफत संस्था को ध्वस्त कर दिया और उसके बाद इस साम्राज्य को अनेक भागों में विभक्त कर मध्य पूर्व में अनेक नये देशों का निर्माण हुआ और इससे पूर्व 1917 में ब्रिटिश साम्राज्य ने विश्व भर के यहूदियों को इजरायल नामक नया देश देनी की उनकी माँग को सिद्धांत रूप में स्वीकार कर लिया था। इसके बाद फिलीस्तीन में यहूदियों को बसने की छूट दे दी गयी और द्वितीय विश्व युद्ध के उपरांत इजरायल राज्य के निर्माण का विषय संयुक्त राष्ट्र संघ को हस्तांतरित कर दिया गया जिसने अनेक बैठकों के बाद इस क्षेत्र का विभाजन स्वीकार कर इजरायल को यहूदियों के नये राज्य के रूप में स्वीकार कर लिया और 1948 में इजरायल का जन्म हुआ। इजरायल के जन्म से पूर्व फिलीस्तीन में यहूदियों के बसने की प्रक्रिया में भी फिलीस्तीनी मुसलमानों और यहूदियों में खूनी झडप होती थी और 1940 के दशक में तो यहूदियों के विरुद्ध आतंकवाद का अभियान चलाया गया। 1948 में इजरायल के जन्म के साथ ही उसे अरब देशों के प्रतिरोध का सामना करना पडा और इजरायल को तत्काल युद्ध लड्ना पडा। इसके बाद जितने भी युद्ध हुए उसमें इजरायल के अस्तित्व को स्वीकार न करने की जिद और उसका अस्तित्व समाप्त करने प्रयास हुआ। 1969 में जब इजरायल ने अरब की सभी सेनाओं को जो मिस्र के नेतृत्व में इजरायल से युद्दरत थी उन्हें इजरायल ने मात्र 6 दिनों में परास्त कर दिया तो अरब देशों और इजरायल के मध्य सम्बन्धों में नया मोड आया और मिस्र ने इजरायल के साथ सन्धि की।

वास्तव में इजरायल और फिलीस्तीन के मध्य समस्या को दो देशों के मध्य समस्या के रूप में देखा जाता और उसे राज्यक्षेत्र के विवाद से जोड्कर देखा जाता है। यह एक गलत धारणा है वास्तव में इस संघर्ष का मूल कहीं अधिक गहरा और जटिल है। मध्य पूर्व में पिछले साठ दशक में जितने भी इस्लामवादी आन्दोलनों ने जन्म लिया है उनके मूल में एक ही प्रेरणा रही है कि जेरुशलम पर नियंत्रण को लेकर अनेक शताब्दियों तक क्रुसेड और जिहाद चलता रहा (क्योंकि तीनों ही सेमेटिक धर्म इस्लाम, ईसाइयत और यहूदी तीनों ही इसे अपने लिये पवित्र मानते हैं) और अंत में पश्चिमी शक्तियों ने यहूदियों के साथ मिलकर एक षड्यंत्र कर जेरुशलम का स्थान यहूदियों को दे दिया और इस प्रक्रिया में उन्होंने इस्लाम की एकता का आधार रही खिलाफत संस्था को नष्ट कर दिया। खिलाफत को नष्ट कर इस्लामी एकता को बिखेर दिया गया और जिस इस्लाम में नेशन स्टेट की कल्पना नहीं थी उसे छोटे छोटे देशों में बाँट दिया गया और इस्लाम के पवित्र स्थल अरब और मक्का मदीना में ऐसी शक्तियाँ सत्ताशीन हो गयीं जो पश्चिमी देशों की कठपुतली सरकारें हैं और वे इस्लाम और शरियत के अनुसार शासन नहीं चला रही हैं। इस भावना के चलते मध्य पूर्व में इस्लामवादी आन्दोलनों का जन्म हुआ जो जिहाद का सहारा लेकर इसे वैश्विक इस्लामी आन्दोलन बना रहे हैं।

इजरायल और हमास के वर्तमान संघर्ष को यदि इस पृष्ठभूमि में देखें तो कुछ प्रश्न उठते हैं। विश्व के जो देश इजरायल की निन्दा करते हैं उन्हें अपनी स्थिति स्पष्ट करनी चाहिये कि क्या वे इजरायल के जन्म को अवैध मानते हैं और यदि ऐसा है तो उन्होंने इजरायल को मान्यता क्यों दे रखी है क्योंकि मुस्लिम देश उसे स्वीकार नहीं करते और इसी कारण उसे मान्यता नहीं दे रखी है। इसी कारण संयुक्त राष्ट्र संघ सहित सभी देशों को अपनी स्थिति स्पष्ट करनी चाहिये कि क्या वे इजरायल को खिलाफत के अवशेषों पर निर्मित मानते हैं और इसी कारण फिलीस्तीन और अरब देशों से सहानुभूति रखते है। क्योंकि आत्म रक्षा में इजरायल द्वारा की गयी कार्रवाई की निन्दा करना उसके अस्तित्वमान रहने के अधिकार से उसे वंचित करना है। इसलिये जो भी देश, मीडिया, विचारक और लेखक या विश्लेषक़ इजरायल की निन्दा करते हैं उन्हें छ्द्म उदारवाद और छवि निर्माण के प्रयासों से बाहर आकर इस समस्या के मूलभूत विचारों पर अपनी स्थिति स्पष्ट करनी चाहिये।

जहाँ तक हमास के विरुद्ध इजरायल के प्रतिरोध का प्रश्न है तो इजरायल ने एक बार फिर यह कदम अपने नागरिकों की रक्षा में उठाया है। हमास ने गाजा पट्टी में अपनी सरकार स्थापित करने के बाद भी इजरायल को नष्ट करने के अपने मूलभूत उद्देश्य को छोडा नहीं और पिछले अनेक वर्षों से इजरायल के भीतर राकेट दागकर निर्दोष नागरिकों को अपना निशाना बनाया। इजरायल ने अपने बेहतर प्रयासों से नागरिकों की रक्षा के प्रयास किये और राकेट की चेतावनी के लिये ठोस प्रयास किये जिससे इन राकेट हमलों में निर्दोष नागरिक अधिक मात्रा में नहीं मरे लेकिन इजरायल के इस प्रयास से हमास का आशय और अपराध कम नहीं हो जाता। इजरायल के विरुद्ध आरोप लगाया जा रहा है कि उसने गाजा में निर्दोष नागरिकों को निशाना बनाया लेकिन इन आरोपों की चर्चा करते हुए भी लोग उसी भावुकता का शिकार हो जाते हैं जिसके चलते उनकी स्वाभाविक सहानुभूति फिलीस्तीन या अरब देशों के प्रति रहती है। यह कोई पहला अवसर नहीं है इससे पूर्व 2000-1 में जब यासिर अराफात ने इजरायल के विरुद्ध एक प्रकार का आतंकवादी आन्दोलन इंतिफादा के रूप में घोषित कर दिया था तो भी यासिर अराफात की आलोचना नहीं की गयी थी और इजरायल के प्रतिरोध की तत्काल निन्दा आरम्भ कर दी गयी थी।

वास्तव में इजरायल और फिलीस्तीन का संघर्ष पूरी तरह धारणागत छवि युद्ध का शिकार हो गया है। एक ओर तो आतंकवाद के प्रतिरोध और खुफिया एजेंसियों की सन्नद्धता को लेकर अनेक देश इजरायल की विशेषज्ञता का लाभ उठाना चाहते हैं वहीं जब इजरायल के आत्म रक्षा का विषय आता है तो उसकी निन्दा आरम्भ हो जाती है। व्यावहारिक विवशताओं और छवि खराब होने के भय से इस पूरे संघर्ष की वस्तुनिष्ठ व्याख्या का साहस कोई भी नहीं करता। यह छद्म उदारवाद और सेक्युलरिज्म के एकाँगी स्वरूप का सबसे बडा उदाहरण है। एक ओर तो इस्लामवादी और वामपंथी यहूदियों के विरुद्ध षड्यंत्रकारी सिद्धांत प्रतिपादित करते हैं और आरोप लगाते हैं कि कुछ अदृश्य हाथों से वे समस्त विश्व पर शासन कर रहे हैं लेकिन बिडम्बना है कि जब इजरायल फिलीस्तीन के संघर्ष का विषय आता है तो इस्लामवादियों का जनसम्पर्क अधिक सफल होता दिखता है। आज समय आ गया है कि छद्म उदारवाद का चोला छोडकर छवि निर्माण की चिंता के बिना इजरायल फिलीस्तीन संघर्ष के मूल कारण पर चर्चा की जाये क्योंकि इस समस्या का एक ही समाधान है कि इजरायल के पडोसी यह जान जायें कि वे आतंकवाद या सैन्य तरीकों से इतिहास के हिसाब नहीं चुका सकते और इजरायल एक वास्तविकता है जो उनके मध्य रहेगा। इजरायल की विजय केवल इस क्षेत्र में शांति स्थापित नहीं करेगी वरन उन इस्लामवादी आन्दोलनों और देशों को हतोत्साहित करेंगी जो वर्तमान को अस्वीकार कर भूतकाल में जीना चाहते हैं और एक काल्पनिक विश्व का निर्माण प्रछन्न युद्ध और आतंकवाद के सहारे करना चाहते हैं।

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मुम्बई पर आक्रमण से क्या सीखें?

Posted by amitabhtri पर नवम्बर 30, 2008

मुम्बई पर आतंकवादी आक्रमण को आज चार दिन बीत गये हैं और आज कहीं जाकर मेरा कुछ लिखने का मन हो रहा है। कुछ भी न लिख पाने के पीछे दो मुख्य कारण हैं। एक तो इस घटना ने मुझे इतना दुखी और स्तब्ध कर दिया कि तीन दिन तक ठीक से सो भी नहीं सका। दूसरा कारण कुछ भी न लिखने के पीछे यह था कि प्रत्येक आतंकवादी आक्रमण के बाद चर्चायें होती हैं, मीडिया में बहस होती है, टीवी पर विशेषज्ञ आते हैं और सुझाव देते हैं और फिर यह कर्मकाण्ड कुछ दिनों बाद समाप्त हो जाता है और फिर सब कुछ सामान्य और प्रतीक्षा अगले आतंकवादी आक्रमण की होने लगती है। 26 नवम्बर को मुम्बई पर हुए आतंकवादी आक्रमण के बाद से ताज होटल में अंतिम आतंकवादी के मार गिराये जाने तक मैं पूरा घटनाक्रम टीवी पर चिपक कर देखता रहा। इस घटनाक्रम को देखते हुए एक प्रश्न मेरे मस्तिष्क में बार बार कौंध रहा था कि क्या वास्तव में इससे कोई सबक लेगा और निश्चित रूप से मुझे यही लगा कि ऐसा कुछ भी नहीं होने वाला। क्योंकि आतंकवादी आक्रमण कोई पहला नहीं है और मानवीय क्षति के सन्दर्भ में इससे भी बडी घटनायें हो चुकी हैं। तो फिर इस आतंकवादी आक्रमण के सन्दर्भ में नया क्या है? एक तो यह घटना देश के उस शहर में हुई जिसे देश की आर्थिक राजधानी माना जाता है और मुम्बई में हुई अन्य घटनाओं की अपेक्षा इस बार इसका अंतरराष्ट्रीय सन्देश अधिक था और यही वह कारण है जिसने इस आक्रमण को विश्वव्यापी स्तर पर चर्चा में ला दिया। जिस प्रकार विदेशी नागरिकों और विशेष रूप से अमेरिकी, ब्रिटिश और इजरायल और भारतीय यहूदियों को निशाना बनाया गया उसने इस बात की आशंका बढा दी कि इस आतंकवादी आक्रमण की पीछे कहीं न कहीं वैश्विक जेहादी आन्दोलन और नेटवर्क की भूमिका है।

मुम्बई पर हुए आतंकवादी आक्रमण के बाद दो तीन दिनों तक पूरे विश्व का ध्यान भारत की ओर लगा रहा कि हम इस स्थिति से कैसे निपटते हैं। मुम्बई का यह संकट समाप्त होने के उपरांत इसकी समीक्षा आरम्भ हुई है। विश्व के अनेक देशों की खुफिया एजेंसियाँ इस बात पर एकमत हैं कि इस आक्रमण के पीछे पाकिस्तान स्थित इस्लामी आतंकवादियों की भूमिका है परंतु उनका यह भी मानना है कि यह आक्रमण कुछ नये संकेत भी दे रहा है। एक तो यह कि अल कायदा अब आतंकवादी आक्रमण करने वाला आतंकवादी संगठन मात्र ही नहीं रह गया है वरन वह एक विचारधारा बन चुका है जो विश्व के अनेक क्षेत्रों में विभिन्न इस्लामी उग्रवादी संगठनों को एक छतरी के नीचे लाकर उनसे घटनाओं को अंजाम दिलाता है और निर्णय और विचार उसका होता है और घटनायें विभिन्न क्षेत्रों में सक्रिय इस्लामी उग्रवादी संगठन करते हैं। मुम्बई में हुए आतंकवादी आक्रमण से यही संकेत मिलता है कि यह योजना अल कायदा की है और इसे अंजाम देने का दायित्व भारत में अपनी पैठ जमा चुके लश्कर-ए- तोएबा को दी गयी।

मुम्बई पर हुए आतंकवादी आक्रमण से समस्त विश्व हिल गया है क्योंकि इस आक्रमण ने जेहादी इस्लामी आन्दोलन की विश्वव्यापी पहुँच को रेखाँकित किया है। अमेरिका के खुफिया एजेंसी के अधिकारी और आतंकवाद विषय के विशेषज्ञ मानते हैं कि अल कायदा अमरिका की वर्तमान स्थिति को देखते हुए किसी बडी घटना को क्रियान्वित करने की फिराक में है ताकि बुश को बिदाई दी जा सके और बराक ओबामा का स्वागत किया जा सके। इस आधार पर इस बात की आशंका व्यक्त की जा रही है कि मुम्बई का आतंकवादी आक्रमण अल कायदा की योजना का ही परिणाम है क्योंकि जिस लश्कर ने आतंकवादियों को प्रशिक्षित किया वह 1998 में ओसामा बिन लादेन द्वारा गठित किये गये इण्टरनेशनल इस्लामिक फ्रंट का घटक है।

इस्लामी आतंकवाद और अल कायदा विषयों के विशेषज्ञ डां रोहन गुणारत्ना के अनुसार अल कायदा अब एक विचार बन चुका है और मध्य पूर्व, एशिया, उत्तरी अफ्रीका, यूरोप और उत्तरी अमेरिका में अपनी गहरी पैठ बना चुका है। अब अल कायदा एक केन्द्रीय कमान के रूप में कार्य करने के स्थान पर विभिन्न इस्लामी उग्रवादी संगठनों को अपनी योजना और निर्णय को आउटसोर्स कर रहा है। अल कायदा ने जिस प्रकार मीडिया, इंटरनेट के सहारे मुस्लिम उत्पीडन की अवधारणा के द्वारा समस्त विश्व के मुसलमानों के मध्य एक वातावरण बना दिया है कि इस्लाम खतरे में है और उसे निशाना बनाया जा रहा है और इस प्रचार ने सामान्य मुसलमानों को ध्रुवीक्रत किया है और विशेष रूप से नयी पीढी के मुसलमानों को अधिक कट्टरपंथी और मुखर बनाने का कार्य किया है। अल कायदा के इसी अभियान का परिणाम है कि अमेरिका की विदेश नीति और इजरायल तथा अरब देशों का संघर्ष सभी मुसलमानों के मध्य न केवल चर्चा का विषय बन चुका है वरन इस्लामी आतंकवादियों के आक्रमणों को कुछ हद तक न्यायसंगत ठहराने का माध्यम भी बन चुका है।

भारत के प्रसिद्ध आतंकवाद प्रतिरोध के विशेषज्ञ बी रमन ने मुम्बई पर आतंकवादी आक्रमण के बाद अपने एक आलेख में इस बात पर आश्चर्य व्यक्त किया कि नवम्बर 2007 में उत्तर प्रदेश के न्यायालयों में श्रृखलाबद्ध विस्फोटों के बाद इसकी जिम्मेदारी लेनेवाले इंडियन मुजाहिदीन संगठन को लेकर भारत सरकार और खुफिया एजेंसियों के पास अत्यन्त कम सूचनायें हैं। जबकि इसने 2007 से 2008 के मध्य अनेक बडी घट्नायें अंजाम दी हैं। इंडियन मुजाहिदीन के कुछ लोग जब दिल्ली में हुए विस्फोटों के बाद पकडे गये तो उनका कार्य करने का ढंग, उनकी प्रेरणा और मीडिया का उनका उपयोग पूरी तरह अल कायदा से प्रभावित था और उनके पास से फिलीस्तीनी इस्लामी आतंकवादी अब्दुल्ला अज़्ज़ाम का साहित्य भी मिला था जो ओसामा बिन लादेन का गुरु है और अल कायदा उसी की जेहाद की भावना से प्रेरित है। इसी प्रकार मुम्बई पुलिस ने कुछ महीनों पूर्व जब इंडियन मुजाहिदीन के मीडिया विंग के लोगों को पकडा था तो उसमें भी अनेक तकनीक विशेषज्ञ पकडे गये थे। इंडियन मुजाहिदीन को जिस प्रकार से हल्के में लिया गया वह भारी पड सकता है क्योंकि इंडियन मुजाहिदीन के कार्य करने का तरीका पूरी तरह अल कायदा से प्रभावित है और यह इस आशंका को पुष्ट करता है कि विभिन्न देशों में विभिन्न इस्लामी संगठन सामने आ रहे हैं जो आवश्यक नहीं कि अल कायदा से सीधे सीधे निर्देश ग्रहण करते हों पर वे उसी इस्लामी जेहादी विचार को आगे बढाने के लिये कार्य कर रहे हैं।

मुम्बई में हुए आतंकवादी आक्रमण के बाद एक बात पूरी तरह स्पष्ट है कि अब इस समस्या से अनेक स्तरों पर लडना होगा। इस प्रकार के आतंकवाद से लड्ने में खुफिया विभाग की सक्षमता, आतंकवाद प्रतिरोध संस्थाओं का राजनीतिक हस्तक्षेप के बिना स्वतंत्र रूप से कार्य करने की क्षमता प्रमुख तत्व हैं पर इसके अतिरिक्त इस समस्या से विचारधारागत स्तर पर भी लडना आवश्यक है। जिस प्रकार इस्लामी आतंकवादियों ने समस्त विश्व में 48 घण्टे से अधिक समय तक टीवी पर लोगों को अपनी ताकत देखने के लिये बाध्य किया उसके दो निहितार्थ हैं एक तो इससे सामान्य लोगों में आतंकवादियों के एजेण्डे को जानने की उत्सुकता होती है और दूसरा खौफ और अराजकता फैलती है जो राज्य को कमजोर बनाता है। इसके अतिरिक्त इस प्रकार के कार्य न केवल फिदायीन बन कर जन्नत प्राप्त करने की इस्लामी आतंकवादियों की मंशा को उजागर करते हैं वरन और अधिक युवकों के मुजाहिदीन के रूप में भर्ती होने को प्रेरित करते हैं। क्योंकि ऐसे आतंकवादियो के लिये वर्ल्ड ट्रेड सेंटर के भरभराते भवन, मैरियट होटल का धू धू कर जलता दृश्य अधिक प्रेरित करता है। इस बात को समझने की आवश्यकता है और इसलिये इस्लामी जेहाद के इस आन्दोलन को उसकी समग्रता में समझ कर उसका समाधान करने की आवश्यता है।

आज इस बात पर बहस करने से कोई लाभ नहीं है कि इस्लाम शांति की शिक्षा देता है कि नहीं और इसका भी कोई मतलब नहीं है कि कितने इस्लामी संगठनों ने आतंकवाद के विरुद्ध फतवा जारी किया आज मानवता के अस्तित्व का प्रश्न है और इस अस्तित्व पर प्रश्न खडा किया है ऐसे इस्लामवादी आन्दोलन ने जो विश्व पर फिर से इस्लामी साम्राज्य स्थापित करने की आकाँक्षा लिये शरियत का शासन स्थापित करना चाहता है और इसके लिये कुरान और हदीथ का उपयोग कर रहा है। इस इस्लामवादी आन्दोलन ने प्रथम विश्व युद्ध से द्वितीय विश्व युद्ध के मध्य हुए नाजी आन्दोलन, फासीवादी आन्दोलन और शीत युद्ध में चले कम्युनिस्ट आन्दोलन से अधिनायकवादी विचार लेकर एक नया आन्दोलन खडा किया है जिसने इस्लाम के अस्तित्व पर भी प्रश्नचिन्ह लगा दिया है।

मुम्बई पर हुए आतंकवादी आक्रमण से एक सन्देश स्पष्ट है कि अब यदि समस्या को नही समझा गया और इसके जेहादी और इस्लामी पक्ष की अवहेलना की गयी तो शायद भारत को एक लोकतांत्रिक और खुले विचारों वाले देश के रूप में बचा पाना सम्भव न हो सकेगा और यही चिंता समस्त विश्व को हुई है कि कहीं इस्लामवादी आन्दोलन अब मध्य पूर्व के बाद दक्षिण एशिया में अपनी पैठ न बना ले क्योंकि पाकिस्तान, अफगानिस्तान और बांग्लादेश पहले ही इस्लामी चरमपंथियों के हाथ में खेल रहे हैं और भारत सहित दक्षिण एशिया की मुस्लिम जनसंख्या कुल जनसंख्या के 57 प्रतिशत से भी अधिक है और यदि यह क्षेत्र इस्लामी कट्टरपंथियों के हाथ में आ गया तो विश्व का नक्शा क्या होगा?

अब पाकिस्तान और बांग्लादेश को दोष देने से ही काम नहीं चलेगा और इन देशों की खुफिया एजेंसियों द्वारा जिस प्रकार भारत में इस्लामी तत्वो में घुसपैठ की गयी है उस पर कठोर कदम उठाना होगा और विभिन्न इस्लामी विचारधाराओं चाहे वह अहले हदीस. बरेलवी, देवबन्द, सलाफी, वहाबी हो इनसे सम्बन्धित मस्जिदों, मदरसों, आर्थिक स्रोतों पर नजर रखते हुए इनके इस्लामवादी आन्दोलन के साथ सम्बन्धों की जाँच करते रहनी होगी। आज पाकिस्तान और बांग्लादेश की खुफिया एजेंसियों ने भारत के हर हिस्से में अपनी पैठ कर ली है फिर वह उत्तर पूर्व हो, दक्षिण भारत हो, उत्तर भारत हो, मध्य भारत हो या पश्चिम भारत हो। मुम्बई पर हुए आतंकवादी आक्रमण ने हमें अंतिम अवसर दिया है कि हमारे राजनेता आतंकवाद को वोट बैंक की राजनीति से जोडकर देखने के बजाय समस्या की गहराई को समझें और जानें कि आतंकवाद क्या है? इसके पीछे सोच क्या है? इसे कौन सहायता दे रहा है? न कि इस्लामी आतंकवाद के समानांतर हिन्दू आतंकवाद को खडाकर स्थिति को और अधिक उलझायें।

मुम्बई पर हुए आतंकवादी आक्रमण ने अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारत की छवि को गहरा धक्का पहुँचाया है और हमारी कमजोरियों की पोल खोल दी है आज विश्व स्तर पर भारत सरकार की नरम नीतियों को लेकर लेख लिखे जा रहे हैं फिर भी लगता है कि कुछ ही दिनों में घटिया राजनीति फिर आरम्भ हो जायेगी और केन्द्र सरकार आतंकवाद को अल्पसंख्यक वोट से जोडकर बयानबाजी और आरोप प्रत्यारोप आरम्भ कर देगी।

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मुम्बई पर आक्रमण से क्या सीखें?

Posted by amitabhtri पर नवम्बर 30, 2008

मुम्बई पर आतंकवादी आक्रमण को आज चार दिन बीत गये हैं और आज कहीं जाकर मेरा कुछ लिखने का मन हो रहा है। कुछ भी न लिख पाने के पीछे दो मुख्य कारण हैं। एक तो इस घटना ने मुझे इतना दुखी और स्तब्ध कर दिया कि तीन दिन तक ठीक से सो भी नहीं सका। दूसरा कारण कुछ भी न लिखने के पीछे यह था कि प्रत्येक आतंकवादी आक्रमण के बाद चर्चायें होती हैं, मीडिया में बहस होती है, टीवी पर विशेषज्ञ आते हैं और सुझाव देते हैं और फिर यह कर्मकाण्ड कुछ दिनों बाद समाप्त हो जाता है और फिर सब कुछ सामान्य और प्रतीक्षा अगले आतंकवादी आक्रमण की होने लगती है। 26 नवम्बर को मुम्बई पर हुए आतंकवादी आक्रमण के बाद से ताज होटल में अंतिम आतंकवादी के मार गिराये जाने तक मैं पूरा घटनाक्रम टीवी पर चिपक कर देखता रहा। इस घटनाक्रम को देखते हुए एक प्रश्न मेरे मस्तिष्क में बार बार कौंध रहा था कि क्या वास्तव में इससे कोई सबक लेगा और निश्चित रूप से मुझे यही लगा कि ऐसा कुछ भी नहीं होने वाला। क्योंकि आतंकवादी आक्रमण कोई पहला नहीं है और मानवीय क्षति के सन्दर्भ में इससे भी बडी घटनायें हो चुकी हैं। तो फिर इस आतंकवादी आक्रमण के सन्दर्भ में नया क्या है? एक तो यह घटना देश के उस शहर में हुई जिसे देश की आर्थिक राजधानी माना जाता है और मुम्बई में हुई अन्य घटनाओं की अपेक्षा इस बार इसका अंतरराष्ट्रीय सन्देश अधिक था और यही वह कारण है जिसने इस आक्रमण को विश्वव्यापी स्तर पर चर्चा में ला दिया। जिस प्रकार विदेशी नागरिकों और विशेष रूप से अमेरिकी, ब्रिटिश और इजरायल और भारतीय यहूदियों को निशाना बनाया गया उसने इस बात की आशंका बढा दी कि इस आतंकवादी आक्रमण की पीछे कहीं न कहीं वैश्विक जेहादी आन्दोलन और नेटवर्क की भूमिका है।

मुम्बई पर हुए आतंकवादी आक्रमण के बाद दो तीन दिनों तक पूरे विश्व का ध्यान भारत की ओर लगा रहा कि हम इस स्थिति से कैसे निपटते हैं। मुम्बई का यह संकट समाप्त होने के उपरांत इसकी समीक्षा आरम्भ हुई है। विश्व के अनेक देशों की खुफिया एजेंसियाँ इस बात पर एकमत हैं कि इस आक्रमण के पीछे पाकिस्तान स्थित इस्लामी आतंकवादियों की भूमिका है परंतु उनका यह भी मानना है कि यह आक्रमण कुछ नये संकेत भी दे रहा है। एक तो यह कि अल कायदा अब आतंकवादी आक्रमण करने वाला आतंकवादी संगठन मात्र ही नहीं रह गया है वरन वह एक विचारधारा बन चुका है जो विश्व के अनेक क्षेत्रों में विभिन्न इस्लामी उग्रवादी संगठनों को एक छतरी के नीचे लाकर उनसे घटनाओं को अंजाम दिलाता है और निर्णय और विचार उसका होता है और घटनायें विभिन्न क्षेत्रों में सक्रिय इस्लामी उग्रवादी संगठन करते हैं। मुम्बई में हुए आतंकवादी आक्रमण से यही संकेत मिलता है कि यह योजना अल कायदा की है और इसे अंजाम देने का दायित्व भारत में अपनी पैठ जमा चुके लश्कर-ए- तोएबा को दी गयी।

मुम्बई पर हुए आतंकवादी आक्रमण से समस्त विश्व हिल गया है क्योंकि इस आक्रमण ने जेहादी इस्लामी आन्दोलन की विश्वव्यापी पहुँच को रेखाँकित किया है। अमेरिका के खुफिया एजेंसी के अधिकारी और आतंकवाद विषय के विशेषज्ञ मानते हैं कि अल कायदा अमरिका की वर्तमान स्थिति को देखते हुए किसी बडी घटना को क्रियान्वित करने की फिराक में है ताकि बुश को बिदाई दी जा सके और बराक ओबामा का स्वागत किया जा सके। इस आधार पर इस बात की आशंका व्यक्त की जा रही है कि मुम्बई का आतंकवादी आक्रमण अल कायदा की योजना का ही परिणाम है क्योंकि जिस लश्कर ने आतंकवादियों को प्रशिक्षित किया वह 1998 में ओसामा बिन लादेन द्वारा गठित किये गये इण्टरनेशनल इस्लामिक फ्रंट का घटक है।

इस्लामी आतंकवाद और अल कायदा विषयों के विशेषज्ञ डां रोहन गुणारत्ना के अनुसार अल कायदा अब एक विचार बन चुका है और मध्य पूर्व, एशिया, उत्तरी अफ्रीका, यूरोप और उत्तरी अमेरिका में अपनी गहरी पैठ बना चुका है। अब अल कायदा एक केन्द्रीय कमान के रूप में कार्य करने के स्थान पर विभिन्न इस्लामी उग्रवादी संगठनों को अपनी योजना और निर्णय को आउटसोर्स कर रहा है। अल कायदा ने जिस प्रकार मीडिया, इंटरनेट के सहारे मुस्लिम उत्पीडन की अवधारणा के द्वारा समस्त विश्व के मुसलमानों के मध्य एक वातावरण बना दिया है कि इस्लाम खतरे में है और उसे निशाना बनाया जा रहा है और इस प्रचार ने सामान्य मुसलमानों को ध्रुवीक्रत किया है और विशेष रूप से नयी पीढी के मुसलमानों को अधिक कट्टरपंथी और मुखर बनाने का कार्य किया है। अल कायदा के इसी अभियान का परिणाम है कि अमेरिका की विदेश नीति और इजरायल तथा अरब देशों का संघर्ष सभी मुसलमानों के मध्य न केवल चर्चा का विषय बन चुका है वरन इस्लामी आतंकवादियों के आक्रमणों को कुछ हद तक न्यायसंगत ठहराने का माध्यम भी बन चुका है।

भारत के प्रसिद्ध आतंकवाद प्रतिरोध के विशेषज्ञ बी रमन ने मुम्बई पर आतंकवादी आक्रमण के बाद अपने एक आलेख में इस बात पर आश्चर्य व्यक्त किया कि नवम्बर 2007 में उत्तर प्रदेश के न्यायालयों में श्रृखलाबद्ध विस्फोटों के बाद इसकी जिम्मेदारी लेनेवाले इंडियन मुजाहिदीन संगठन को लेकर भारत सरकार और खुफिया एजेंसियों के पास अत्यन्त कम सूचनायें हैं। जबकि इसने 2007 से 2008 के मध्य अनेक बडी घट्नायें अंजाम दी हैं। इंडियन मुजाहिदीन के कुछ लोग जब दिल्ली में हुए विस्फोटों के बाद पकडे गये तो उनका कार्य करने का ढंग, उनकी प्रेरणा और मीडिया का उनका उपयोग पूरी तरह अल कायदा से प्रभावित था और उनके पास से फिलीस्तीनी इस्लामी आतंकवादी अब्दुल्ला अज़्ज़ाम का साहित्य भी मिला था जो ओसामा बिन लादेन का गुरु है और अल कायदा उसी की जेहाद की भावना से प्रेरित है। इसी प्रकार मुम्बई पुलिस ने कुछ महीनों पूर्व जब इंडियन मुजाहिदीन के मीडिया विंग के लोगों को पकडा था तो उसमें भी अनेक तकनीक विशेषज्ञ पकडे गये थे। इंडियन मुजाहिदीन को जिस प्रकार से हल्के में लिया गया वह भारी पड सकता है क्योंकि इंडियन मुजाहिदीन के कार्य करने का तरीका पूरी तरह अल कायदा से प्रभावित है और यह इस आशंका को पुष्ट करता है कि विभिन्न देशों में विभिन्न इस्लामी संगठन सामने आ रहे हैं जो आवश्यक नहीं कि अल कायदा से सीधे सीधे निर्देश ग्रहण करते हों पर वे उसी इस्लामी जेहादी विचार को आगे बढाने के लिये कार्य कर रहे हैं।

मुम्बई में हुए आतंकवादी आक्रमण के बाद एक बात पूरी तरह स्पष्ट है कि अब इस समस्या से अनेक स्तरों पर लडना होगा। इस प्रकार के आतंकवाद से लड्ने में खुफिया विभाग की सक्षमता, आतंकवाद प्रतिरोध संस्थाओं का राजनीतिक हस्तक्षेप के बिना स्वतंत्र रूप से कार्य करने की क्षमता प्रमुख तत्व हैं पर इसके अतिरिक्त इस समस्या से विचारधारागत स्तर पर भी लडना आवश्यक है। जिस प्रकार इस्लामी आतंकवादियों ने समस्त विश्व में 48 घण्टे से अधिक समय तक टीवी पर लोगों को अपनी ताकत देखने के लिये बाध्य किया उसके दो निहितार्थ हैं एक तो इससे सामान्य लोगों में आतंकवादियों के एजेण्डे को जानने की उत्सुकता होती है और दूसरा खौफ और अराजकता फैलती है जो राज्य को कमजोर बनाता है। इसके अतिरिक्त इस प्रकार के कार्य न केवल फिदायीन बन कर जन्नत प्राप्त करने की इस्लामी आतंकवादियों की मंशा को उजागर करते हैं वरन और अधिक युवकों के मुजाहिदीन के रूप में भर्ती होने को प्रेरित करते हैं। क्योंकि ऐसे आतंकवादियो के लिये वर्ल्ड ट्रेड सेंटर के भरभराते भवन, मैरियट होटल का धू धू कर जलता दृश्य अधिक प्रेरित करता है। इस बात को समझने की आवश्यकता है और इसलिये इस्लामी जेहाद के इस आन्दोलन को उसकी समग्रता में समझ कर उसका समाधान करने की आवश्यता है।

आज इस बात पर बहस करने से कोई लाभ नहीं है कि इस्लाम शांति की शिक्षा देता है कि नहीं और इसका भी कोई मतलब नहीं है कि कितने इस्लामी संगठनों ने आतंकवाद के विरुद्ध फतवा जारी किया आज मानवता के अस्तित्व का प्रश्न है और इस अस्तित्व पर प्रश्न खडा किया है ऐसे इस्लामवादी आन्दोलन ने जो विश्व पर फिर से इस्लामी साम्राज्य स्थापित करने की आकाँक्षा लिये शरियत का शासन स्थापित करना चाहता है और इसके लिये कुरान और हदीथ का उपयोग कर रहा है। इस इस्लामवादी आन्दोलन ने प्रथम विश्व युद्ध से द्वितीय विश्व युद्ध के मध्य हुए नाजी आन्दोलन, फासीवादी आन्दोलन और शीत युद्ध में चले कम्युनिस्ट आन्दोलन से अधिनायकवादी विचार लेकर एक नया आन्दोलन खडा किया है जिसने इस्लाम के अस्तित्व पर भी प्रश्नचिन्ह लगा दिया है।

मुम्बई पर हुए आतंकवादी आक्रमण से एक सन्देश स्पष्ट है कि अब यदि समस्या को नही समझा गया और इसके जेहादी और इस्लामी पक्ष की अवहेलना की गयी तो शायद भारत को एक लोकतांत्रिक और खुले विचारों वाले देश के रूप में बचा पाना सम्भव न हो सकेगा और यही चिंता समस्त विश्व को हुई है कि कहीं इस्लामवादी आन्दोलन अब मध्य पूर्व के बाद दक्षिण एशिया में अपनी पैठ न बना ले क्योंकि पाकिस्तान, अफगानिस्तान और बांग्लादेश पहले ही इस्लामी चरमपंथियों के हाथ में खेल रहे हैं और भारत सहित दक्षिण एशिया की मुस्लिम जनसंख्या कुल जनसंख्या के 57 प्रतिशत से भी अधिक है और यदि यह क्षेत्र इस्लामी कट्टरपंथियों के हाथ में आ गया तो विश्व का नक्शा क्या होगा?

अब पाकिस्तान और बांग्लादेश को दोष देने से ही काम नहीं चलेगा और इन देशों की खुफिया एजेंसियों द्वारा जिस प्रकार भारत में इस्लामी तत्वो में घुसपैठ की गयी है उस पर कठोर कदम उठाना होगा और विभिन्न इस्लामी विचारधाराओं चाहे वह अहले हदीस. बरेलवी, देवबन्द, सलाफी, वहाबी हो इनसे सम्बन्धित मस्जिदों, मदरसों, आर्थिक स्रोतों पर नजर रखते हुए इनके इस्लामवादी आन्दोलन के साथ सम्बन्धों की जाँच करते रहनी होगी। आज पाकिस्तान और बांग्लादेश की खुफिया एजेंसियों ने भारत के हर हिस्से में अपनी पैठ कर ली है फिर वह उत्तर पूर्व हो, दक्षिण भारत हो, उत्तर भारत हो, मध्य भारत हो या पश्चिम भारत हो। मुम्बई पर हुए आतंकवादी आक्रमण ने हमें अंतिम अवसर दिया है कि हमारे राजनेता आतंकवाद को वोट बैंक की राजनीति से जोडकर देखने के बजाय समस्या की गहराई को समझें और जानें कि आतंकवाद क्या है? इसके पीछे सोच क्या है? इसे कौन सहायता दे रहा है? न कि इस्लामी आतंकवाद के समानांतर हिन्दू आतंकवाद को खडाकर स्थिति को और अधिक उलझायें।

मुम्बई पर हुए आतंकवादी आक्रमण ने अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारत की छवि को गहरा धक्का पहुँचाया है और हमारी कमजोरियों की पोल खोल दी है आज विश्व स्तर पर भारत सरकार की नरम नीतियों को लेकर लेख लिखे जा रहे हैं फिर भी लगता है कि कुछ ही दिनों में घटिया राजनीति फिर आरम्भ हो जायेगी और केन्द्र सरकार आतंकवाद को अल्पसंख्यक वोट से जोडकर बयानबाजी और आरोप प्रत्यारोप आरम्भ कर देगी।

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मालेगाँव मामले में जाँच हो रही है या कुछ और?

Posted by amitabhtri पर नवम्बर 25, 2008

29 सितम्बर 2008 को महाराष्ट्र के मालेगाँव में हुए विस्फोट के पश्चात जिस प्रकार जाँच के बहाने हिन्दू आतंकवाद की अवधारणा का सृजन करने का प्रयास हुआ है उसके अपने निहितार्थ हैं और अब तक यदि पूरे घटनाक्रम में बयानबाजी से लेकर मीडिया ट्रायल को ध्यान से देखा जाये तो यह स्पष्ट हो जाता है कि यह जाँच नहीं कुछ और है और यह कुछ और क्या है इसका निर्णय आप कुछ तथ्यों के आधार पर स्वयं करें।

29 सितम्बर को मालेगाँव विस्फोट में महाराष्ट्र एटीएस की ओर से जाँच की प्रक्रिया आरम्भ ही की गयी थी कि 5 अक्टूबर को एनसीपी के नेता शरद पवार ने घोषणा कर दी कि आतंकवादी मामलों में मुसलमानों को बदनाम किया जाता है लेकिन हिन्दू आतंकी गुटों पर कार्रवाई नहीं हो रही है। इससे दो बातें स्पष्ट हैं कि एक तो शरद पवार ने जाँच से पूर्व ही घोषित कर दिया कि मालेगाँव विस्फोट हिन्दुओं ने किया है और वे आतंकवादी हैं। इसके बाद तो जाँच मात्र औपचारिकता ही रह गयी थी जिसकी दिशा स्पष्ट थी। शरद पवार के बयान के एक सप्ताह पश्चात मालेगाँव विस्फोट मामले में साध्वी प्रज्ञा को एटीएस ने पूछताछ के लिये सम्पर्क किया। इसी के साथ महाराष्ट्र के गृहमंत्री आर.आर.पाटिल भी समाचार माध्यमों से कहते रहे कि आरोपियों के विरुद्ध ठोस साक्ष्य हैं।

इसके बाद आरम्भ हुआ जाँच की प्रक्रिया के दौरान कुछ चुनी हुई खबरों को लीक करने का दौर। सबसे पहले एटीएस ने भारत के सबसे तेज हिन्दी न्यूज चैनल को कान में बताया कि साध्वी प्रज्ञा और कर्नल पुरोहित ने अपनी पूछताछ और नार्को टेस्ट में एक धर्मगुरु और हिन्दू संगठन के बडे नेता का नाम लिया है। इसके बाद मीडिया को इस बात का लाइसेंस मिल गया कि वह किसी भी धर्माचार्य को ललकारे और उसे कटघरे में खडा कर दे। इस पूरी कसरत में स्टार न्यूज और एनडीटीवी की भूमिका अग्रणी रही।

एटीएस द्वारा धर्माचार्य का नाम लेकर संशय की स्थिति निर्माण करने के पीछे प्रयोजन कुछ भी रहा हो परंतु इस बहाने देश के कुछ बडे संतों को पूरे मामले में घसीटने का प्रयास हुआ। इसी बीच एटीएस ने मीडिया को बताया कि इस विस्फोट के आरोपियों के उन विस्फोटों से सम्बन्ध होने की जाँच की जा रही है जिसमें मुसलमान ही मारे गये हैं और यह विस्फोट हैं समझौता ट्रेन विस्फोट, मक्का मस्जिद विस्फोट, अजमेर शरीफ विस्फोट। इस विषय को इस प्रकार प्रस्तुत किया गया कि सन्देह के आधार पर सम्बन्धित एजेंसियों या राज्य सरकारों की पुलिस की जाँच को अंतिम निष्कर्ष मान कर प्रस्तुत किया और एनडीटीवी ने तो अपने कार्यक्रम हम लोग में तो बकायदा इन विस्फोटों को हिन्दू आतंकवादियों पर चस्पा करते हुए हिन्दू आतंकवाद पर बहस ही आरम्भ कर दी। अब प्रश्न यह है कि इन विस्फोटों की पूरी जाँच होने से पूर्व इसे कर्नल पुरोहित और साध्वी प्रज्ञा और दयानन्द पांडे के माथे मढने के पीछे मंतव्य क्या था? जब इन विस्फोटों की जाँच करने के लिये सम्बन्धित राज्यों की पुलिस ने कर्नल पुरोहित से सम्पर्क किया तो पता लगा कि इन विस्फोटों अर्थात समझौता एक्सप्रेस, मक्का मस्जिद विस्फोट और अजमेर विस्फोट से इन आरोपियों का कोई सम्बन्ध नहीं है। इस पूरे मामले में जिस प्रकार एटीएस ने अति सक्रियता दिखाई और जाँच को मीडिया केन्द्रित रखा उससे स्पष्ट है कि एटीएस निष्पक्ष रूप से कार्य करने को स्वतंत्र नहीं है। इस बीच एटीएस का बयान देना फिर खण्डन करने का दौर भी चलता रहा। यहाँ तक कि समझौता एक्सप्रेस में आरडीएक्स से विस्फोट करने की कहानी आयी और फिर उसका खण्डन एटीएस ने किया।

इन बयानबाजियों के बाद पूरी कहानी में मोड आया जब मालेगाँव विस्फोट के दायरे को बढा कर कुछ वर्ष पूर्व हुए बम विस्फोटों की सीबीआई जाँच को भी इसके साथ जोड दिया गया। यह प्रयास भी यही सिद्ध करता है कि अब इतनी सक्रियता क्यों? आखिर इन मामलों की जाँच पहले क्यों नहीं की गयी और यदि की गयी तो क्या अब उस जाँच पर भरोसा नहीं रह गया।

वास्तव में एटीएस और उनके राजनीतिक आकाओं के सामने एक समस्या है कि इस पूरी जाँच को ये लोग दो स्तर पर प्रयोग करना चाहते थे। एक तो देश में हिन्दू आतंकवाद का एक सुव्यवस्थित नेटवर्क दिखाने का प्रयास ताकि न्यायालय में इसे साक्ष्य बनाया जा सके और सामान्य जनता को दिखाया जा सके कि देश में हिन्दू आतंकवाद है। वास्तव में आतंकवाद की परिभाषा है और इसके अनुसार आतंकवाद के लिये एक नेट्वर्क होना चाहिये, उसकी वित्तीय सहायता होनी चाहिये, आतंकवादियों के प्रशिक्षण के लिये लोग और हथियार होने चाहिये, आतंकवादियों को हथियार मिलने चाहिये और उसे उपलब्ध कराने वाले लोग चाहिये। यही कारण है कि एटीएस ने इन तथ्यों के लिये साक्ष्य प्राप्त करने में गोपनीयता बरतने के स्थान पर मीडिया को समय समय पर लीक किया और कुछ समाचार चैनलों और समाचार पत्रों को इस आधार पर कपोलकल्पित कहानियाँ बनाने का पूरा अवसर दिया।

लेकिन इस पूरे घटनाक्रम में जो सर्वाधिक दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति है वह यह कि जिस प्रकार कुछ राजनीतिक दल और मीडिया संस्थान हिन्दू आतंकवाद की अवधारणा सृजित करने में दिन रात लगे हुए हैं उसके अपने निहितार्थ हैं।

अब कुछ समाचार चैनलों की अति सक्रियता पर दृष्टि डालें। स्टार न्यूज, एनडीटीवी और न्यूज 24 ने इस विषय में अति सक्रियता दिखाई। इसमें न्यूज 24 और एनडीटीवी की बात तो समझ में आती है कि एक तो कांग्रेस के बडे नेता का चैनल है और दूसरे का सम्बन्ध कम्युनिस्ट पार्टी से है। परंतु स्टार न्यूज की सक्रियता इस लिये महत्वपूर्ण है कि यहाँ पूरा जिम्मा इस चैनल में सबसे बडे पद पर बैठे एक सदस्य ने उठा रखा है जो एक समुदाय विशेष से हैं। इन सज्जन के बारे में बताया जाता है कि जब दिल्ली में जामिया नगर में एनकाउंटर हुआ था तो इन्होंने सभी मीडिया के लोगों को एसएमएस कर आग्रह किया था कि इस पूरे मामले में संयम रखें और जामिया नगर का नाम न लें और न ही जामिया मिलिया विश्वविद्यालय का नाम लें क्योंकि इससे स्थान और संस्थान बदनाम होता है। इसके साथ ही उनका तर्क था कि आतंकवाद का कोई धर्म नहीं होता। लेकिन यही सिद्धांत तब गायब हो गया जब मालेग़ाँव में हिन्दू आरोपी बनाये गये। ये सज्जन पूरे मामले में व्यक्तिगत रूचि लेकर न्यूज फ्लैश चलाने से लेकर स्क्रिप्ट बनाने तक का पूरा विषय स्वयं देखते हैं और पूरे चैनल को इनका निर्देश है कि मालेगाँव मामले को विशेष कवरेज दिया जाये। इन सज्जन की व्यक्तिगत रूचि थी कि साध्वी की दीक्षा को इन्होंने आतंकवाद से जोड्ने का प्रयास किया। साध्वी प्रज्ञा के गुरु को ललकारा और कहा कि वे भाग खडे हुए हैं। जबकि बाद में इन्हीं संत ने अपनी प्रेस कांफ्रेस में बताया कि वे कथाओं में व्यस्त थे और उनकी कथाओं का सीधा प्रसारण कुछ टीवी चैनल पर भी हो रहा था। इसी प्रकार इन सज्जन ने श्री श्री रविशंकर को भी इस पूरे मामले में घसीटने का प्रयास किया।

आज यदि स्टार न्यूज को ध्यान से देखा जाये तो यह बात साफ तौर पर दिखाई देती है कि इस चैनल की मालेग़ाव विस्फोट की जाँच में विशेष रूचि है। यह मामला अत्यंत संवेदनशील है कि यदि किसी चैनल के शीर्ष पद पर बैठा कोई व्यक्ति पत्रकारिता के सिद्धांतों के अतिरिक्त किसी अन्य भाव से प्रेरित है तो यह बात निश्चय ही चौंकाने वाली है।

स्टार न्यूज ने मकोका अदालत में मालेगाँव विस्फोट के 7 आरोपियों की पेशी पर जिस प्रकार स्वयं अदालत से पहले निर्णय सुना दिया और संवाददाता शीला रावल ने मकोका अदालत में साध्वी के आरोपों पर सुनवाई से पूर्व ही अपना निर्णय सुना दिया और कह दिया कि ये आरोप निराधार हैं और इन्हें सिद्ध करना साध्वी और अन्य आरोपियों के लिये आसान नहीं होगा। यह जल्दबाजी क्यों जबकि मकोका अदालत इन आरोपों पर सुनवाई मंगलवार को करेगी। सारे चैनल जब साध्वी के आरोपों पर एटीएस को घेर रहे थे उस समय स्टार न्यूज का एटीएस की पैरवी करना कुछ सन्देह पैदा करता है। आखिर स्टार न्यूज ने यही पुलिस प्रेम जामिया नगर एनकाउंटर में क्यों नहीं दिखाया था? यही नहीं यदि मीडिया का कार्य सूचनाओं को सामने लाना ही है तो एटीएस प्रमुख हेमंत करकरे के बारे में कुछ समाचार माध्यमों में सनसनीखेज तथ्य आने पर इस बारे में कोई खोज क्यों नहीं हुई कि जब वे रोजा इफ्तार में कांग्रेस की पार्टी में शामिल हुए। अपने पुत्र के सऊदी अरब के व्यवसाय में वे कांग्रेसी नेताओं के सम्पर्क का लाभ उठाते हैं और इससे भी बडी बात कि वे पहले रा ( रिसर्च एंड एनालिसिस विंग) में थे और कन्धार विमान अपहरण में अपनी लापरवाही के चलते वहाँ से हटा दिये गये थे। बाद में काफी लाबिंग के बाद वे महाराष्ट्र एटीएस के प्रमुख बने। अब सारे न्यूज चैनल जो हिन्दू आतंकवाद से सम्बन्धित सारी खोजी पत्रकारिता कर रहे हैं इस मामले में कोई खोज क्यों नहीं करते जबकि यह अत्यंत गम्भीर तथ्य हैं।

मालेगाँव विस्फोट की पूरी जाँच ने भारत में एक नये युग का पदार्पण किया है और इससे देश में राजनीतिक, बौद्धिक और मानवाधिकार के स्तर पर एक स्पष्ट ध्रवीकरण देखने को मिल रहा है। आज देश में सेक्युलरिज्म के नाम पर राजनीति कर रहे दल, कुछ मीडिया संस्थान, मानवाधिकार संगठन और बुद्धिजीवी लोग पूरी तरह मुस्लिम परस्त और एकांगी हो गये हैं। इस जाँच ने एक बडा जटिल सवाल खडा किया है कि हिन्दू जिसका इस विश्व में केवल एक देश है और बहुसंख्यक होकर भी अपने देश में बेबस है तो वह क्या करे? आखिर बिडम्बना देखिये कि देश में जेहाद के नाम पर इस्लाम और अल्लाह के नाम पर इस्लामी आतंकवादी मन्दिरों, संसद और बाजारों में आक्रमण करते हैं और निर्दोष हिन्दुओं का खून बहाते हैं और फिर सरकार इस्लामी आतंकवाद से लड्ने के स्थान पर हिन्दुओं को अपमानित, लाँक्षित और प्रताडित करती है। इस विषम स्थिति का क्या करें कि दोनों ओर से हिन्दुओं को ही मरना है आतंकवादी आक्रमण मुसलमान करें, जेहाद वे करें, चिल्ला चिल्ला कर कहें कि हम इस्लाम और अल्लाह के नाम पर हिन्दुओं को मार रहे हैं तो मुस्लिम समाज को खुश करने के लिये और इस्लाम की छवि सुधारने के लिये हिन्दुओं को प्रताडित किया जाये। ऐसा न्याय और आतंकवाद के विरुद्ध ऐसी लडाई विश्व के किसी कोने में न तो लडी गयी और न भविष्य में लडी जायेगी। अमेरिका और यूरोप ने अपने देशों पर हुए आक्रमणों के बाद इस्लामी आतंकवाद का उत्तर ईसाई आतंकवाद की अवधारणा सृजित कर नहीं दिया और न ही इजरायल ने इस्लामी आतंकवाद के समानान्तर यहूदी आतंकवाद को सृजित किया फिर भारत में ऐसा आत्मघाती कदम क्यों?

आज इस विषय पर बहस होनी चाहिये कि सेक्युलर दल और मीडिया ऐसा केवल वोट बैंक की राजनीति के चलते कर रहे हैं या फिर इसके पीछे कोई अंतरराष्ट्रीय षड्यंत्र है। अभी एक दिन पूर्व कुछ समाचार पत्रों ने समाचार प्रकाशित किया कि खुफिया एजेंसियाँ उन संतों और संगठनों पर नजर रखे हुए हैं जिनमे इजरायल के साथ अच्छे सम्बन्ध हैं क्योंकि उन्हें शक है कि कहीं एक लोग इजरायल की खुफिया एजेंसी मोसाद से तो नहीं जुडे हैं। अर्थात भारत को एक सक्षम, सशक्त और सम्पन्न बनाने के गैर सरकारी प्रयासों के लिये समाज में शंका का भाव उत्पन्न किया जा रहा है।

जिस देश में सेक्युलरिज्म के नाम पर कोयम्बटूर बम धमाकों के आरोपी को सरकार के आदेश पर जेल में पंच सितारा सुविधायें दी जाती हैं। जिस देश में फिलीस्तीनी नेता और सैकडों यहूदियों को इंतिफादा में मरवाने वाले यासिर अराफात के नाम पर केरल के विधानसभा चुनावों में वोट माँगे जाते हैं उसी देश में खुफिया एजेंसियों को आदेश दिया जाता है कि इजरायल के साथ सम्बन्ध रखने वालों पर नजर रखी जाये।

मालेगाँव विस्फोट की जाँच को इसके व्यापक दायरे में समझने की आवश्यकता है यह विषय वोट बैंक की राजनीति से भी बडा है और ऐसा प्रतीत होता है कि शरियत के आधार पर विश्व पर शासन करने की आकाँक्षा से प्रेरित इस्लामवादी आन्दोलन ने भारत की व्यवस्था में अपनी जडें जमा ली हैं और व्यवस्था उनका सहयोग कर रही है और देश में हर उस प्रयास और संस्था को कमजोर करने का प्रयास हो रहा है जो इस्लामवादी और जेहादी आन्दोलन को चुनौती दे सकता है।

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हिन्दू होना अपराध हो गया?

Posted by amitabhtri पर नवम्बर 12, 2008

आज जब मैं यह लेख लिखने बैठा तो मुझे पहली बार आभास हुआ कि 1975 में आपातकाल के समय देश में क्या वातावरण रहा होगा? देश की स्वतंत्रता के श्रेय का पेटेंट कराने वाला देश का सबसे पुराना राजनीतिक दल जब देश की अखण्डता और एकता की बात करता है तो यह सबसे बडा मजाक लगता है और ऐसा लगता है कि ये शब्द या तो इनके लिये मायने खो चुके हैं या फिर इनके लिये देश की अखण्डता और एकता का अर्थ हिन्दुओं का अपमान और तिरस्कार है। 29 सितम्बर को मालेगाँव धमाके की जाँच को लेकर जो रवैया केन्द्र सरकार उसके सहयोगियों और मीडिया ने अपना रखा है उससे तो लगता है कि हिन्दू हित की बात करने से किसी को भी भी आतंकवादी सिद्ध किया जा सकता है। उसके लिये केवल किसी हिन्दू संगठन से जुडा होना, देश की स्वतंत्रता का मूल्याँकन करते हुए काँग्रेस की भूमिका की समीक्षा करते दिखना चाहिये और हिन्दू स्वाभिमान की बात करते हुए दिखाई देना चाहिये। मालेगाँव धमाके की जाँच के बाद से देश में अघोषित आपातकाल का वातावरण बना दिया गया है और एटीएस मीडिया के साथ मिलकर न्यायालय से पहले ही किसी को भी अभियुक्त सिद्ध कर दे रहा है, किसी भी संत, राजनेता का नाम सन्देह के दायरे में लाकर खडा कर दे रहा है। परंतु उसके बाद सूचना असत्य होने पर किसी भी प्रकार का खेद प्रकाश नहीं किया जा रहा है। इस पूरे प्रकरण में जिस प्रकार मीडिया का उपयोग एटीएस ने किया है वह और भी चिंताजनक है। भारत में मीडिया और राजनीतिक दल जिस प्रकार राजनीतिक रूप से सही होने के सिद्धांत का पालन केवल मुस्लिम समाज की भावनाओं के लिये करते हैं वह और भी चिंताजनक है। देश में पिछले वर्षों में अनेक आतंकवादी आक्रमण हुए और सभी आक्रमणों में इस्लामी संगठन लिप्त पाये गये फिर भी जाँच एजेंसियों ने कभी भी मीडिया को ऐसे उपयोग नहीं किया और न हि मीडिया संगठनों ने इस प्रकार साहस पूर्वक खडे होकर मस्जिदों में इमामों या मुस्लिम धर्मगुरुओं के ऊपर कोई कहानी बनाई। आखिर ऐसा क्यों? अभी कुछ दिन पहले पहले आजमग़ढ में एक मुस्लिम सम्मेलन में भारत के प्रथम गृहमंत्री सरदार बल्लभभाई पटेल को नाथूराम गोड्से के बाद दूसरा आतंकवादी घोषित किया गया परंतु किसी टीवी चैनल ने इस सम्मेलन का लाइव नहीं किया क्यों? इसी प्रकार जब भी आतंकवादी आक्रमणों की जाँच के सिलसिले में किसी मस्जिद के इमाम या मौलवी से पूछताछ होने को हुई तो मुस्लिम समाज सड्कों पर उतरा लेकिन जनता को सच्चाई बताने का दावा करने वाले मीडिया संगठनों ने ऐसे स्थलों पर अपने संवाददाताओं को भेजना भी उचित नहीं समझा क्यों? इसका सीधा उत्तर है कि मीडिया भी जानता है कि कौन हिंसक प्रतिरोध कर सकता है और कौन सिर नीचे करके अपने धर्म का अपमान सहन कर सकता है।

जब से मालेगाँव विस्फोट की जाँच आरम्भ हुई है एक प्रकार का प्रचार युद्ध चलाया जा रहा है और इसमें मीडिया जाने अनजाने उपयोग हो रहा है। जिस दिन विस्फोट के सम्बन्ध में साध्वी प्रज्ञा को गिरफ्तार किया गया उसी दिन कांग्रेस के नेता राजीव शुक्ला के टीवी चैनल न्यूज 24 पर एक विशेष कार्यक्रम प्रसारित हुआ और साध्वी को हिन्दू आतंकवादी घोषित कर दिया गया। यह वही चैनल है जो मालेग़ाँव विस्फोट से पूर्व किसी भी आतंकवादी आक्रमण के बाद यही कहता था कि आतंकवाद का कोई धर्म नहीं होता। इसके बाद इंडिया टीवी ने प्रज्ञा साध्वी के गुरु द्वारा दिये गये दीक्षा मंत्र को आतंक का मंत्र घोषित करना आरम्भ कर दिया। इसी बीच साध्वी प्रज्ञा और कर्नल पुरोहित के नार्को टेस्ट और ब्रेन मैपिंग के बाद आज तक ने दहाड दहाड कर आवाज लगाई कि हरियाणा का आनन्द मन्दिर ही वह स्थान है जहाँ आतंकी हमले की साजिश रची गयी। संवाददाता एक ओर मन्दिर के अहाते में खडा होकर कह रहा था कि यही वह जगह है जहाँ मालेगाँव विस्फोट की साजिश रची गयी तो वहीं कुछ सेकण्ड बाद हरियाणा पुलिस का बयान आ रहा था कि इस प्रदेश में अनेक आनन्द मन्दिर हैं और यह पता नहीं कि एटीएस किस आनन्द मन्दिर की बात कर रही है। अब प्रश्न यह है कि ऐसे गैर जिम्मेदार समाचारों को क्या नाम दिया जाये।

मीडिया के गैरजिम्मेदारान रवैये का सबसे बडा उदाहरण तो यह है कि उत्तर प्रदेश में एटीएस के आते ही जिस प्रकार धर्मगुरु शब्द का प्रयोग कर सभी धर्मगुरुओं का मीडिया ट्रायल किया गया और यह क्रम दो दिनों तक चलता रहा और कभी किसी स्वामी का नाम तो कभी किसी स्वामी का नाम चटखारे ले लेकर लिया जाता रहा वह आखिर किस मानसिकता का परिचायक है। यह पहला अवसर नहीं है जब मीडिया ने किसी व्यक्ति या संस्था की अवमानना की हो और बेशर्मी से कभी यह भी न कहा हो कि उससे भूल हुई या उसे खेद है। मैं इस सम्बन्ध में क्रिकेट का एक उदाहरण देना चाहता हूं कि किस प्रकार 2000-1 में भारत को एकमात्र विश्व कप दिलाने वाले कप्तान कपिल देव के ऊपर क्रिकेट खिलाडी मनोज प्रभाकर द्वारा लगाये गये मैच फिक्सिंग के आरोप को लेकर मीडिया ने उनका मीडिया ट्रायल किया था और बाद में उनके आरोपमुक्त होने पर कभी यह भी नहीं सोचा कि ऐसी घटनाओं की पुनरावृत्ति न हो। आज वही कपिल देव और 1983 विश्व कप मीडिया का सबसे बडा बिकाऊ माल है।

इसी प्रकार एक उदाहरण प्रसिद्ध समाचार चैनल स्टार न्यूज चैनल से सम्बन्धित है जब काँची के शंकराचार्य की गिरफ्तारी के बाद इस चैनल की संवाददाता शीला रावल ने काँची मठ से रिपोर्ट दी कि शंकराचार्य ने जाँच एजेंसियों से समक्ष रोते हुए अपनी भूल मानकर हत्या में संलिप्त्ता मान ली है यदि यह समाचार उस समय सही था तो शंकराचार्य को न्यायालय से सजा क्यों नहीं दी? लेकिन इस चैनल ने शंकराचार्य के रिहा होने पर यह याद भी नहीं किया होगा कि उसकी ओर से ऐसा कोई समाचार प्रसारित हुआ था। इसी प्रकार कितने ही उदाहरण हैं जब हिन्दू धर्मगुरुओं का उपहास किया गया, उनके ऊपर आरोप लगाये गये, उन्हें असम्मानित ढंग से सम्बोधित किया गया पर ऐसा साहस न तो कभी इस्लाम के सम्बन्ध में किया गया और न ही ईसाई धर्म के सम्बन्ध में। आखिर यह कैसा सेक्युलरिज्म है जो कहता है कि हिन्दू को बिना आरोप दोषी सिद्द कर दो और मुसलमानों के सम्बन्ध में कहो कि किसी समुदाय विशेष ने ऐसा किया वैसा किया।

आज देश में यदि मीडिया या राजनेता एकाँगी सेक्युलरिज्म का पालन कर रहे हैं तो उसके पीछे केवल यही कारण है कि हिन्दू की स्थिति एक गाय की तरह है जो मक्खी हटाने के लिये केवल पूँछ का प्रयोग करती है और सींग का उपयोग करना तो उसे आता ही नहीं।

मालेगाँव विस्फोट की जाँच भारतीय समाज और राजनीति के लिये एक टर्निंग प्वाइंट है। इस जाँच के दौरान मुझे व्यक्तिगत रूप से अनेक प्रदेशों का दौरा करने का अवसर मिला और इसमें से कुछ वे प्रदेश भी हैं जहाँ विधानसभा चुनाव प्रस्तावित हैं। इन प्रदेशों में सामान्य लोगों से बातचीत में जो बात उभर कर आयी वह दीर्घगामी स्तर पर उन नेताओं के लिये शुभ नहीं है जो मुस्लिम वोट के लिये हिन्दुओं को अपमानित करने के बाद भी हिन्दुओं के वोट की आस लगाये हैं। मध्य प्रदेश में मैं कुछ क्षणों के लिये एक नाई की दूकान पर ठहरा और प्रज्ञा मामले में पूछने लगा तो उसकी सहज सामान्य बात सुनकर सोचने को विवश हुआ कि यदि हमारी राजनीति देश में ऐसा विभाजन कर रही है तो इसका परिणाम क्या होगा? उस नाई ने सहज रूप में कहा कि देखिये देश तो पूरी तरह विभाजित हो चुका है और कांग्रेस मुसलमानों की पार्टी है और भाजपा हिन्दुओं की। मैने पूछा कि ऐसा उसे क्यों लगता है तो उसका उत्तर किसी बडे विशेषज्ञ या मँजे हुए की भाँति था कि देश में पिछले अनेक वर्षों में कितने ही आतंकवादी विस्फोट हुए हैं पर किसी भी मामले में आरोपी पकडे नहीं गये और यदि पकडे भी गये तो उन्हें जेल में बैठा कर रखा गया और अब चुनाव को देखकर कांग्रेस साध्वी प्रज्ञा को मोहरा बना रही है। यही भाव मुझे सर्वत्र दिखाई दिया। और तो और अनेक सम्पन्न और सम्भ्रांत लोग तो साध्वी प्रज्ञा को साहस का प्रतीक मानकर उसका अभिनन्दन करते हैं और इसे हिन्दू शौर्य का प्रकटीकरण मानने से संकोच नहीं करते।

अनेक प्रदेशों में ग्रामीण क्षेत्रों में भी दौरा करते हुए मैने यही पाया कि पिछले चार वर्षों में जिस प्रकार केन्द्र सरकार ने आतंकवाद के प्रति नरमी दिखाई उसे वोटबैंक से जोडकर देखा जा रहा है और अब अचानक सरकार जिस प्रकार हिन्दू आतंकवाद की अवधारणा का सृजन कर इस्लामी आतंकवाद को संतुलित करने का प्रयास कर रही है उससे देश में साम्प्रदायिक विभाजन और ध्रुवीकरण अधिक तीव्र हो गया है। आज आतंकवाद पर चर्चा केवल शहरों या महानगरों तक सीमित नहीं है। हर दो तीन गाँवों के आसपास छोटा बडा बाजार है और इन बाजारों में युवा उसी प्रकार एकत्र होता है जैसे नगरों में और उन्हीं विषयों पर चर्चा करता है जैसा नगर के युवक करते हैं। उसकी चर्चा क्रिकेट, फिल्म, देश की आंतरिक और विदेश नीति, अमेरिका के राष्ट्रपति चुनाव से लेकर ओसामा बिन लादेन, तालिबान और देश में पनप रहे आतंकवाद तक होती है। देश में आ रहे इस परिवर्तन को हमारे राजनेता समझने में असफल हैं और देश को नगर और गाँव के रूप में विभाजित कर इस बात की खुशफहमी पाले बैठे हैं कि गाँव की भोली जनता अब भी उनके तर्कों से भी प्रभावित होती है और उसका अपना कोई वैचारिक आधार नहीं है। यही परिवर्तन पिछले कुछ वर्षों में कांग्रेस की लगातार हो रही पराजय का कारण है और अब जिस प्रकार कांग्रेस ने मुस्लिम वोट प्राप्त करने के लिये न्यूनतम राजनीतिक हथखण्डे अपनाये हैं उससे उसकी छवि में काफी गिरावट आयी है।

पिछ्ले कुछ वर्षों में देश में हिन्दुओं की धर्म और संस्कृति के प्रति बढ रही आकाँक्षा को नजरअन्दाज किया गया है। 1990 के दशक से हुए आर्थिक उदारीकरण और वैश्वीकरण के बाद जिस प्रकार सूचना की अबाध प्राप्ति होने लगी और विदेशों में बसे हिन्दुओं को अपनी जडों और अपनी नयी पीढी को संस्कारित करने की प्रवृत्ति बढी तो अनिवासी हिन्दुओं में भारत की हिन्दू पहचान को लेकर जो उत्सुकता बढी उससे भारत में बसे हिन्दुओं में पिछली पीढी की अपेक्षा हीन भावना कम हो गयी और यही कारण है कि भारत की नयी पीढी का रूझान एक ऐसे राष्ट्रवाद के प्रति है जो कांग्रेसी राष्ट्रवाद नहीं वरन हिन्दुत्व आधारित राष्ट्रवाद है।

मीडिया और अधिकाँश राजनीतिक दल यदि इस बदलाव को अनुभव कर पाते तो शायद वे देश के साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण को कुछ हद तक रोक पाते लेकिन कांग्रेस सहित तमाम सेक्युलर दल यह भूल 1991 के बाद से लगातार करते आ रहे हैं। पहले राम मन्दिर आन्दोलन को समझने की भूल, फिर गोधरा काँड के बाद हुए दंगों को समझने की भूल और अब आतंकवाद के इस्लामी स्वरूप को समझकर उसका समाधान न कर पाने की भूल दीर्घगामी स्तर पर अत्यंत खतरनाक सिद्ध होने वाली है।

आज देश में मीडिया, सेक्युलर दलों को इस बात पर शोध करना चाहिये कि इनके सेक्युलरिज्म के प्रचार के बाद भी हिन्दुत्ववादी संगठनों का समाज पर क्यों बढ्ता जा रहा है। इस पर गम्भीर शोध की आवश्यकता है न कि खीझ में आकर उन्हें गाली देकर बदनाम करने की। आज यदि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, विहिप या भाजपा का विस्तार हो रहा है और उन्हें साम्प्रदायिक और देश की एकता के लिये खतरनाक बताने के बाद भी जनता का विश्वास उनके साथ है तो निश्चित ही इसके पीछे कोई ठोस कारण होगा। आज यदि मीडिया और सेक्युलर दल इस कारण के मूल में जाने का प्रयास करते तो उन्हें सार्थक उत्तर मिलते कि किस प्रकार देश में बहुसंख्यक अपने ही देश में डरा और सहमा है। उसकी अतीन्द्रिय मानसिकता में मुस्लिम शासन की 600 वर्ष की पराधीनता और अफगानिस्तान में तालिबान शासन की भयावह तस्वीर गहरी जड जमा चुकी है। विश्व पर शासन की आकाँक्षा लिये कट्टरपंथी इस्लाम का आन्दोलन उसके लिये दुस्वप्न सा लगता है और अपने ही देश में धिम्मी होने का भय किसी भी प्रकार नहीं जाता और ऐसे में सेक्युलरिज्म के नाम पर जब हिन्दू लाँछित और अपमानित होता है तो उसका भय और भी बढ्ता है।

जिस देश में प्रधानमंत्री को मुस्लिम के आरोपी बनाये जाने पर या सन्देह के आरोप में आस्ट्रेलिया में हिरासत में लेने पर रात भर नींद नहीं आती उसी प्रधानमंत्री की ओर से कोई बयान तब नहीं आता जब उडीसा में 40 वर्षों से आदिवासियों की सेवा कर रहे हिन्दू संत की 84 वर्ष की अवस्था में हत्या कर दी जाती है। क्या भारत के कांग्रेसी प्रधानमंत्री की संवेदना भी सेक्युलर है जो तभी विचलित होती है जब मुसलमान या ईसाई को दर्द होता है। जिस देश में करोडों रूपये हज सब्सिडी पर दिये जाते हैं उसी देश में हिन्दुओं को जम्मू में अपनी तीर्थयात्रा के लिये भूमि के लिये संघर्ष करना पड्ता है। जिस देश में संसद पर आक्रमण के लिये मृत्युदण्ड प्राप्त आतंकवादी को फाँसी नहीं होती और उसका खुलेमाम बचाव किया जाता है वहीं मालेग़ाँव विस्फोट के लिये आरोपी बनायी गयी साध्वी को मीडिया द्वारा दोषी सिद्ध होने से पहले ही आतंकवादी ठहरा दिया जाता है। केन्द्र सरकार के घटक दल खुलेआम इस्लामी आतंकवादी संगठन सिमी के पक्ष में बोलते हैं और बांग्लादेशी घुसपैठियों को देश की नागरिकता देने की वकालत करते हैं और विद्या भारती द्वारा संचालित विद्यालयों के पाठ्यक्रम को प्रतिबन्धित करने की बात करते हैं क्योंकि वे शिवाजी, राणाप्रताप को आदर्श पुरुष बताते हैं। रामविलास पासवान का तर्क है कि विद्याभारती के विद्यालय गान्धी के स्वाधीनता आन्दोलन में भूमिका पर प्रश्न खडे करते हैं इसलिये इस पर प्रतिबन्ध लगना चाहिये। अर्थात देश में विचारों की स्वतंत्रता पर आघात होगा।
इतना तो स्पष्ट है कि हिन्दू धर्म और संस्कृति एक बार फिर अत्यंत कठिन दौर से गुजर रहा है जब सेक्युलरिज्म के नाम पर हिन्दू होना अपराध ठहराने का प्रयास किया जा रहा है।

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कांग्रेस को भारी पड सकती है हिन्दू आतंकवाद की अवधारणा

Posted by amitabhtri पर अक्टूबर 26, 2008

यह कोई संयोग है या फिर सोचा समझा प्रयास कि जिस दिन सेंसेक्स इतना नीचे चला गया कि शेयर बाजार में छोटा निवेश करने वालों की दीपावाली अभिशप्त हो गयी और प्रधानमंत्री, वित्त मंत्री, आर.बी.आई के गवर्नर के तमाम आश्वासनों के बाद भी शेयर बाजार के गिराव थमा नहीं और सर्वत्र हाहाकार मच रहा था कि अचानक महाराष्ट्र के एण्टी टेररिस्ट स्क्वेड ने 29 सितम्बर को मालेग़ाँव में हुए बम विस्फोट की गुत्थी सुलझा लेने का दावा करते हुए इस मामले में पहली बार किसी हिन्दू को गिरफ्तार किया। आतंकवादी घटना में हिन्दू की गिरफ्तारी उतनी चौंकाने वाले नहीं है जितनी उसकी टाइमिंग। अभी कुछ दिन पहले ही केन्द्रीय कैबिनेट की एक विशेष बैठक आयोजित कर बजरंग दल पर प्रतिबन्ध लगाने की चर्चा की गयी और पर्याप्त साक्ष्यों के अभाव में सरकार के अनेक घटक दलों की जबर्दस्त माँग के बाद भी सरकार ऐसा नहीं कर पायी। इसके बाद राष्ट्रीय एकता परिषद की बैठक बुलायी गयी और उस बैठक में साम्प्रदायिकता को विशेष मुद्दा बनाया गया और बैठक में कुछ सदस्यों ने बजरंग दल और विश्व हिन्दू परिषद पर प्रतिबन्ध लगाने की माँग दुहरायी। राष्ट्रीय एकता परिषद की बैठक से पूर्व लेखक ने बैठक के पीछे छुपी मंशा पर सवाल उठाये थे।

वास्तव में देश में बढ रहे इस्लामी आतंकवाद को लेकर जिस प्रकार एक ऐसा माहौल बन रहा है कि उसमें घटनायें करने वाले मुस्लिम ही हैं तो ऐसे में सेकुलरिज्म का दम्भ भरने वाले राजनीतिक दलों के सामने यह गम्भीर प्रश्न खडा हो गया है कि वह इस्लामी आतंकवाद के विरुद्ध इस लडाई को सेकुलर सिद्दांतों के दायरे में रह कर कैसे लडें? दूसरा धर्मसंकट इन दलों के समक्ष मुस्लिम वोटबैंक है। 2006 में जब मुम्बई में लोकल रेल व्यवस्था को निशाना बनाया गया था और बडी संख्या में मुम्बई की मुस्लिम बस्तियों और मुस्लिम उलेमाओं को पुलिस ने निशाने पर लिया था और पूछताछ की थी तो मुस्लिम नेताओं, बुद्धिजीवियों और धर्मगुरुओं ने मिलकर संसद भवन में एनेक्सी में आतंकवाद विरोधी सम्मेलन का आयोजन किया और केन्द्र सरकार के प्रतिनिधियों के बीच आतंकवाद के नाम पर इस्लाम को बदनाम करने और निर्दोष मुसलमानों को फँसाने की प्रवृत्ति की आलोचना की और सरकार से आश्वासन लिया कि सरकार आतंकवाद के मुद्दे पर मुस्लिम भावनाओं का आदर करेगी। यह पहला अवसर था जब भारत के स्थानीय मुस्लिम समाज की भूमिका आतंकवादी घटनाओं में सामने आयी थी। इसके बाद से आतंकवाद को लेकर सेकुलरिज्म के सिद्धांतों के अनुपालन और संतुलन साधने के प्रयासों के तहत हिन्दू आतंकवाद का आभास सृजित कर एक नयी अवधारणा स्थापित करने का प्रयास आरम्भ हो गया। यदि 2006 के बाद हुई आतंकवादी घटनाओं के पश्चात सेकुलरपंथी राजनेताओं और राजनीतिक दलों के बयानों पर दृष्टि डाली जाये तो स्पष्ट होता है कि अनेक बार आतंकवादी घटनाओं की निष्पक्ष जाँच और हिन्दू संगठनों के षडयंत्र का कोण भी इनके बयानों में आने लगा। इसी के साथ अनेक मुस्लिम संगठन तो खुलकर कहने लगे कि ऐसे आतंकवादी आक्रमण हिन्दू संगठनों द्वारा इस्लाम को बदनाम करने के लिये प्रायोजित किये जा रहे हैं।

जैसे-जैसे देश में आतंकवादी आक्रमण बढते रहे आतंकवाद के विरुद्द कार्रवाई में सेकुलरिज्म के सिद्धांत का पालन करने के लिये और संतुलन साधने के लिये हिन्दू आतंकवाद का आभास सृजित किया जाने लगा। यही नहीं तो इस्लामी आतंकवाद के समानान्तर एक हिन्दू आतंकवाद की अवधारणा को पुष्ट करने के लिये हिन्दूवादी संगठनों के एक व्यापक नेटवर्क की बात की जाने लगी जो सुनियोजित ढंग से आतंकवाद फैलाने के लिये उसी प्रकार कार्य कर रहे हैं जैसे सिमी या अन्य इस्लामी आतंकवादी संगठन। इसके लिये देश के कुछ जाने माने टीवी चैनलों ने तो प्रचार का एक अभियान चलाया है और अपनी झूठी और खोखली दलीलों के द्वारा सिद्ध करने का प्रयास कर रहे हैं कि हिन्दूवादी संगठनों के प्रयासों से देश में आतंकवाद का एक नेटवर्क चल रहा है जिसमें महाराष्ट्र का एक सैन्य स्कूल बम बनाने का प्रशिक्षण दे रहा है। सीएनएन- आईबीएन ने कुछ दिनों पहले इसे खोजी पत्रकारिता का नाम देकर कुछ वर्षों पूर्व नान्देड में हुए बम विस्फोट से लेकर पिछले माह कानपुर में हुए बम विस्फोट तक पूरे घटनाक्रम को एक सुनियोजित नेटवर्क का हिस्सा बताकर हिन्दू आतंकवाद को मालेगाँव से पहले ही पुष्ट कर दिया था।

मालेग़ाँव के मामले में एक साध्वी सहित कुछ लोगों की गिरफ्तारी के मामले पर भी कांग्रेस के एक वरिष्ठ नेता के समाचार चैनल पर जिस तरह समाचार से अधिक कांग्रेस का एजेण्डा चलाया जा रहा है उससे स्पष्ट है कि यह पूरा मामला केवल जाँच एजेंसियों तक सीमित नहीं है और इसे लेकर एक प्रकार का प्रचार युद्ध चलाया जा रहा है। जिस प्रकार न्यूज 24 ने साध्वी की गिरफ्तारी के साथ ही चैनल पर हिन्दू आतंकवाद बनाम इस्लामी आतंकवाद की बहस चलायी और सभी समाचार चैनलों मे अग्रणी भूमिका निभाकर स्वयं ही न्यायाधीश बन कर फैसला सुना दिया उससे स्पष्ट है कि यह पूरा खेल कांग्रेस के इशारे पर हो रहा है।

एंटी टेररिस्ट स्कवेड अभी तक जिन तथ्यों के साथ सामने आया है उस पर कुछ प्रश्न खडे होते हैं। आखिर अभी तक साध्वी और उनके साथ गिरफ्तार लोगों के ऊपर मकोका के तहत मामला क्यों दर्ज नहीं किया गया है और यह मामला भारतीय दण्ड संहिता के अंतर्गत ही क्यों बनाया गया है जबकि आतंकवादियों के विरुद्ध मकोका के अंतर्गत मामला बनता है। इससे स्पष्ट है कि संगठित अपराध की श्रेणी में यह मामला नहीं आता। आज एक और तथ्य सामने आया है जो प्रमाणित करता है कि मालेगाँव विस्फोट में आरडीएक्स के प्रयोग को लेकर महाराष्ट्र पुलिस और केन्द्रीय एजेंसियों के बयान विरोधाभासी हैं। महाराष्ट्र पुलिस का दावा है कि वह घटनास्थल पर पहले पहुँची इस कारण उसने जो नमूने एकत्र किये उसमें आरडीएक्स था तो वहीं महाराष्ट्र पुलिस यह भी कहती है कि विस्फोट के बाद नमूनों के साथ छेड्छाड हुई तो वहीं केन्द्रीय एजेंसियाँ यह मानने को कतई तैयार नहीं हैं कि इस विस्फोट में आरडीएक्स का प्रयोग हुआ उनके अनुसार इसमें उच्चस्तर का विस्फोटक प्रयोग हुआ था न कि आरडीएक्स। इसी के साथ केन्द्रीय एजेंसियों ने स्पष्ट कर दिया है कि मालेग़ाँव और नान्देड तथा कानपुर में हुए विस्फोटों में कोई समानता नहीं है। अर्थात केन्द्रीय एजेंसियाँ इस बात की जाँच करने के बाद कि देश में हिन्दू आतंकवाद का नेटवर्क है इस सम्बन्ध में कोई प्रमाण नहीं जुटा सकी हैं। अब क्या सीएनएन-आईबीएन अपने दुष्प्रचार के लिये क्षमा याचना करेगा?

साध्वी के मामले में एटीएस के अनेक दावे कमजोर ही हैं और ऐसा प्रतीत होता है कि महाराष्ट्र सरकार और केंन्द्र सरकार की रुचि इस विषय़ में अधिक थी कि मालेगाँव विस्फोट के तार किसी न किसी प्रकार हिन्दूवादी संगठनों से जुडें और यह सिद्ध किया जा सके कि ये संगठन आतंकवाद का एक नेटवर्क चला रहे हैं और इसी आधार पर इन संगठनों को प्रतिबन्धित कर मुस्लिम समाज को यह सन्देश दिया जा सके कि हमें आपकी चिंता है और हम आतंकवाद को लेकर संतुलन की राजनीति करते हुए सेकुलरिज्म के सिद्धांत का पालन कर रहे हैं। यह अत्यंत हास्यास्पद स्थिति सरकार और जाँच एजेंसियों के लिये है कि वे अब तक साध्वी और उनके साथियों को लेकर आधे दर्जन से अधिक संगठनों के नाम गिना चुके हैं परंतु अभी तक एक भी ऐसा ठोस प्रमाण सामने नहीं ला सके हैं कि इन संगठनों का आतंकवादी गतिविधियों में कोई हाथ है। पहले हिन्दू जागरण मंच का सदस्य बताया गया, फिर दुर्गा वाहिनी, फिर अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद , फिर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की शाखा में जाने वाला बताया गया अब पुलिस कह रही है कि इन्होंने अलग संगठन बनाया था। एटीएस ने भोपाल और ग्वालियर में सभी सम्बन्धित संगठनों के लोगों से पूछताछ की जो साध्वी के निकट थे परंतु अभी तक पुलिस को ऐसा कोई साक्ष्य हाथ नहीं लगा है जो यह सिद्ध कर सके कि हिन्दूवादी संगठन आतंकवाद का प्रशिक्षण देते हैं या फिर आतंकवादी नेटवर्क चला रहे हैं।

एटीएस ने साध्वी और उनकी तीन साथियों को इस आधार पर गिरफ्तार किया है कि विस्फोट में प्रयुक्त हुई मोटरसाइकिल साध्वी के नाम थी और साध्वी ने विस्फोट से पूर्व साथी आरोपियों के साथ करीब सात घण्टे मोबाइल पर बात की थी जो कि प्रमाण है। अब ये प्रमाण कितने ठोस हैं इसका पता तो न्यायालय में चार्जशीट दाखिल होने पर लग जायेगा। लेकिन इस पूरे अभियान से एक बात निश्चित है कि हिन्दू आतंकवाद का आभास सृजित करने का प्रयास कांग्रेस उसके सहयोगी दल और उसके सहयोगी टीवी चैनल ने किया है और इस प्रचार युद्ध में अपनी पीठ भले ही ठोंक लें परंतु जिस प्रकार आतंकवाद की लडाई को कांग्रेस और उसके सहयोगी दलों ने भोथरा करने का प्रयास किया है वह अक्षम्य अपराध है।

कांग्रेस के लिये मीडिया प्रबन्धन करने वालों के लिये यह एक बुरी खबर है कि ब्लाग पर या विभिन्न समाचार पत्रों में इस घटना पर टिप्पणी करने वालों का तेवर यह बताता है कि इस विषय पर युवा और बुद्धिजीवी समाज जिस प्रकार ध्रुवीक्रत है वैसा पहले कभी नहीं था। कांग्रेस शायद अब भी एक विशेष मानसिकता में जी रही है जहाँ उसे लगता है कि देश उसके बपौती है और देशवासियों के विचारों पर भी उसका नियंत्रण है। इसी भावना के बशीभूत होकर कांग्रेस के एक बडे नेता के न्यूज चैनल न्यूज 24 पर आतंकवाद पर बहस के दौरान कांग्रेसी नेता राशिद अल्वी बार बार बासी तर्क दे रहे थे कि स्वाधीनता संग्राम में कांग्रेस का योगदान रहा है और कुछ दल विशेष अंग्रेजों का साथ दे रहे थे। यह तर्क सुनकर हँसी ही आ सकती है कि एक ओर तो कांग्रेस के राजकुमार तकनीक और युवा भारत की बात करते हैं तो वहीं दूसरी ओर कांग्रेस के नेता अब भी स्वाधीनता पूर्व मानसिकता में जी रहे हैं। आज सूचना क्रांति के बाद लोगों को यह अकल आ गयी है कि वे वास्तविकता और प्रोपेगेण्डा में विभेद कर सकें। 11 सितम्बर 2001 को अमेरिका के वर्ल्ड ट्रेड सेंटर की गिरती इमारतों के बाद समस्त विश्व में इस्लामी आतंकवाद को लेकर जो बहस चली है उसके बाद किसी भी युवक को यह बताने की आवश्यकता नहीं है को आतंकवाद का धर्म, स्वरूप और उसकी आकाँक्षायें क्या है? आज शायद कांग्रेस और उसके सहयोगी भूल गये हैं कि देश की 60 प्रतिशत से अधिक जनसंख्या 30 या उससे नीचे आयु की है और उसने 1990 के दशक के परिवर्तनों के मध्य अपनी को जवान किया है। उसने आर्थिक उदारीकरण देखा है, सूचना क्रांति के बाद विश्व तक अपनी पहुँच देखी है, उसने कश्मीर से जेहाद के नाम पर भगाये गये हिन्दुओं की त्रासदी देखी है और देखा है राम जन्मभूमि आन्दोलन जिसने भारत की राजनीति की दिशा बदल दी।

आज वही पीढी निर्णायक स्थिति में है जिसके विचार अपने से पहली की पीढी के बन्धक नहीं है। इस पीढी ने अपनी पिछली पीढी के विपरीत सब कुछ अपने परिश्रम से खडा किया है और इसलिये उसे स्वयं पर भरोसा है और वह व्यक्ति के विचारों के आधार पर उसका आकलन करती है न कि किसी खानदान का वारिस होने के आधार पर।

समाज में जो मूलभूत परिवर्तन हुआ है उसके प्रति पूरी तरह लापरवाह कांग्रेस और उसके सेक्यूलर सहयोगी हिन्दू आतंकवाद का आभास सृजित कर इसका आरोप हिन्दू संगठनों पर मढना चाहते हैं परंतु शायद वे लोग भूल जाते हैं कि हिन्दुत्व का विचार केवल किसी संगठन तक सीमित नहीं है। इसका सीधा सम्बन्ध युवा भारत के सपने से है। आज देश विदेश में ऐसे लोगों की संख्या अत्यंत नगण्य है जो इस्लामी आतंकवाद को संतुलित करने के लिये हिन्दू आतंकवाद की अवधारणा का समर्थन करेंगे। इसका उदाहरण हमें पिछले गुजरात विधानसभा में मिल चुका है जब कांग्रेस अध्यक्षा श्रीमती सोनिया गाँधी द्वारा गुजरात के मुख्यमन्त्री नरेन्द्र मोदी को मौत का सौदागर कहने और कांग्रेस के कुछ नेताओं द्वारा हिन्दू आतंकवाद की बात करने के कारण इस पार्टी को मुँह की खानी पडी। एक बार फिर चुनावों से पहले कांग्रेस हिन्दू आतंकवाद की अवधारणा को सृजित कर रही है। क्योंकि कांग्रेस को लगता है कि देश में हिन्दुओं का एक बडा वर्ग है जो उसकी सेक्युलरिज्म की परिभाषा से सहमत है। कांग्रेस ऐसे हिन्दुओं और मुसलमानों को साधने के प्रयास में एक खतरनाक खेल खेल रही है जिसका परिणाम देश में साम्प्रदायिक विभाजन के रूप में सामने आयेगा।

मालेगाँव विस्फोट को लेकर जाँच एजेंसियाँ तो अपना कार्य कर रही हैं और शीघ्र ही सत्य सामने आ जायेगा परंतु जिस प्रकार कांग्रेस इस्लामी लाबी के दबाव में आकर कार्य कर रही है वह देश के भविष्य़ के लिये शुभ संकेत नहीं है। क्योंकि हिन्दू आतंकवाद की बात करके कांग्रेस और उसके सहयोगी दल भले ही अस्थाई तौर पर प्रसन्न हो लें परंतु अभी बहस में अनेक प्रश्न उठेंगे और सेक्युलरिज्म का एकांगी स्वरूप, मानवाधिकार संगठनों का अल्पसंख्यक परस्त चेहरा भी बह्स का अंग बनेंगे।

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डिजिटल मीडिया का भविष्य़

Posted by amitabhtri पर अक्टूबर 21, 2008

पिछले दिनों दिल्ली में वेब दुनिया से जुडे लोगों के लिये एक अंतरराष्ट्रीय स्तर का आयोजन हुआ और इंटरनेट और डिजिटल मीडिया से जुडे जिस भी व्यक्ति या संस्थान ने उस अवसर को गँवाया उसने निश्चय ही कुछ गँवाया। 16 अक्टूबर से 18 अक्टूबर तक डिज़िटल एम्पावरमेण्ट फाउण्डॆशन के तत्वावधान में दक्षिण एशिया के स्तर पर मंथन पुरस्कारों का आयोजन किया गया और इसमें तीन दिनों तक पुरस्कार की श्रेणी में शामिल किये गये संस्थानों और व्यक्तियों सहित अनेक गैर सरकारी संगठनों, व्यावसायिक कम्पनियों ने अपने अनुभव लोगों के साथ बाँटे। इस पूरे आयोजन से जो निष्कर्ष मूल रूप में निकल कर आया वह मुख्य रूप से यह था कि डिजिटल युग आ चुका है जो व्यापक स्तर पर परिवर्तन करने जा रहा है और यह परिवर्तन सोच के स्तर से कार्य करने के स्तर सहित जीवन के नय क्षेत्रों को भी प्रभावित करने जा रहा है। पूरे आयोजन में उन लोगों को पुरस्कारों की श्रेणी में शामिल किया गया था जिन्होंने डिजिटल मीडिया में कुछ नये प्रयोग किये हैं और इस श्रेणी में लोकमंच के सहायक शशि सिंह को उनके संयुक्त उपक्रम पोड भारती के लिये सांस्कृतिक और मनोरंजन श्रेणी में चुना गया था जो उन्होंने हिन्दी ब्लागिंग के आरम्भिक पुरोधाओं में से एक देवाशीष चक्रवर्ती के साथ आरम्भ किया है। पोड भारती डिजिटल मीडिया के एक आयाम पोडकास्टिंग का प्रयोग है। हालाँकि पोड भारती को यह पुरस्कार नहीं मिल सका पर दक्षिण एशिया स्तर के किसी आयोजन और भारी प्रतिस्पर्धा के मध्य अपना स्थान बना पाना भी एक विशेष उपलब्धि रही।

तीन दिनों के इस आयोजन में जो कुछ विषय विशेष रूप से उभर कर आये उनमें से एक यह था कि डिजिटल मीडिया को एक प्रभावी और सक्षम माध्यम मान कर प्रशासन जनता के साथ निचले स्तर पर सम्पर्क स्थापित करने के लिये इस माध्यम को विश्व स्तर पर अपनाने को कटिबद्ध हो रहा है। 1990 के दशक से आरम्भ हुई सूचना क्रांति को अब जनोपयोगी बनाने की दिशा में चिंतन आरम्भ हो गया है और डिजिटल विभाजन जो कि साधन सम्पन्न और बिना साधन वालों के मध्य है उसे पाटने का प्रयास किया जा रहा है। तीन दिन के इस कार्यक्रम में जिन भी गैर सरकारी संस्थानों और व्यावसायिक कम्पनियों ने अपने विचार और कार्यक्रमों का उल्लेख किया उससे एक बात स्पष्ट थी कि अब इस तकनीक को हर स्तर पर आगे ले जाने के प्रयास हो रहे हैं और उनमें व्यावसायिक के साथ साथ जनोपयोगी प्रयास भी हैं। डिजिटल मीडिया के विस्तार से सूचना एक उद्योग में परिणत हो जायेगा और सम्भवतः भारत में मनोरंजन के पश्चात सबसे बडा कोई उद्योग पनपने जा रहा है तो वह सूचना उद्योग है।

इस पूरे आयोजन से कुछ उत्साहजनक संकेत भी मिले जैसे कि सूचना के व्यापक सम्भावना वाले उद्योग को देखते हुए विश्व स्तर पर कम्प्यूटर बनाने वाले कम्पनियाँ इस बात पर गम्भीरता से विचार कर रही हैं कि किस प्रकार 100 डालर की राशि वाला कम्प्यूटर लोगों को उपलब्ध कराया जा सके ताकि डिजिटल क्रांति से नीचे स्तर तक भी लोगों को अपने साथ जोडा जा सके और सूचना उद्योग अधिक व्यापक हो सके। इस सम्बन्ध में प्रशासनिक स्तर पर शासन को अधिक पारदर्शी और जनोन्मुख करने के लिये विकासशील देशों की सरकारें अपने आँकडों और डिजिटल स्वरूप देने और गैर सरकारी संगठनों की सहायता से शिक्षा, स्वास्थ्य जैसे बुनियादी ढाँचों को सशक्त करने के लिये डिजिटल क्रांति की ओर बडी आशा भरी निगाहों से देख रहे हैं। तीन दिन के इस आयोजन मे जिस प्रकार कुछ राज्यों की सरकारों और गैर सरकारी संगठनों ने अपने कार्य दिखाये उससे यह विश्वास किया जा सकता है कि यदि तकनीक का आधारभूत ढाँचा सामान्य लोगों की पहुँच में आ जाये को इस तकनीक के सहारे शिक्षा और स्वास्थ्य की दिशा में अच्छी प्रगति हो सकती है। जैसे आन्ध्र प्रदेश राज्य की ओर से पालिटेक्निक संस्थानों के पाठ्यक्रम को जिस प्रकार 14,000 अध्यापकों ने 100 दिनों के भीतर तैयार कर उसे अधिक सहज और जनोन्मुखी बनाने के साथ एक साथ हजारों अध्यापकों को तकनीक के साथ जोड दिया उससे यह सम्भावना बलवती होती है कि सूचना क्रांति के उपयोग से कुछ क्रांतिकारी परिणाम भी आ सकते हैं। इसी प्रकार कर्नाटक के एक छोटे से गाँव में कुछ बच्चों के साथ प्रयोग हो रहा है कि किस प्रकार गणित के फोबिया से उन्हें मुक्ति दिलाकर विषय को सहज बनाया जा सके। हमारे समक्ष ज्ञान दर्शन और इग्नू का उदाहरण है किस प्रकार तकनीक के उपयोग से शिक्षा को जन जन तक कुछ हद तक पहुँचाया जा सकता है।

डिजिटल मीडिया के भविष्य़ को देखते हुए अनेक व्यावसायिक कम्पनियाँ विज्ञान और गणित जैसे विषयों को चित्रों के द्वारा और अधिक सही ढँग से समझाने के प्रयास में लगी हैं और इस सम्बन्ध में उन्हें डिजिटल क्रांति के दौर में आधारभूत ढाँचों और तकनीक से सस्ते होने और अधिक लोगों तक पहुँच पाने की अपेक्षा है।

पूरे आयोजन में जो एक बात अधिक उत्साहजनक थी वो यह कि अब डिजिटल क्रांति को अपने अपने कारणों से अधिक से अधिक लोगों तक पहुँचाने का प्रयास आने वाले दिनों में किया जायेगा और शिक्षा, स्वास्थ्य, प्रशासन और जनता के अधिकारों के लिये कार्य करने वाले संगठनों की माँग सूचना क्रांति के दूसरे चरण में बढने वाली है जब सामग्री या कंटेंट को लेकर व्यापक प्रयास हो रहा है।

तीन दिन के इस आयोजन में पूरा समय इस बात पर दिया गया कि किस प्रकार कंटेंट सृजित किया जाये क्योंकि डिज़िटल मीडिया और सूचना क्रांति के पास सबसे बडा संकट कंटेन को लेकर है क्योंकि तकनीक को लोगों तक पहुँचा कर उसे बाजारोन्मुखी तब तक नहीं बनाया जा सकता जब तक तकनीक प्रयोग करने वाले के लिये कोई उपयोगी जानकारी उस तक न पहुँच पा रही हो। परंतु सूचना क्रांति के इस चरण का सर्वाधिक लाभ यह है कि कंटेन्ट या सामग्री को लेकर सारी मारामारी स्थानीय स्तर तक पहुँचने की है। सूचना क्रांति के इस दूसरे चरण में स्थानीय भाषाओं, स्थानीय संस्कृतियों और अधिक जनसंख्या वाले समूहों का बोलबाला होने वाला है।

डिजिटल मीडिया का नया स्वरूप पत्रकारिता को भी प्रभावित करने वाला है। अब इंटरनेट पर टेलीविजन, मोबाइल पर टेलीविजन के साथ फिल्मों का प्रीमियर भी मोबाइल सेट पर अति शीघ्र ही हो सकेगा। लेकिन इन सबके मध्य डिजिटल मीडिया के समक्ष सबसे बडा संकट अब भी सामग्री का है और विविधता का दावा करने वाले और अपने संसाधनों का बडा अंश सामग्री के लिये व्यय करने वाली बडी बडी कम्पनियाँ भी अभी भी उन्नत सामग्री के अभाव से ग्रस्त हैं और इसका इस बडा कारण अब भी भारत में लेखक या बुद्धिजीवी वर्ग का तकनीक से भागना रहा है। जो लोग तकनीक के प्रसार की इस बात के लिये आलोचना करते हैं कि यह ऊटपटाँग चीजें परोस रहा है उन्हें डिजिटल मीडिया में सामग्री को लेकर छाए इस शून्य का लाभ उठाना चाहिये परंतु अधिकतर लोग तकनीक सीखने के स्थान पर उसे कोसने में अधिक सहजता अनुभव करते हैं। लेकिन आने वाले दिनों में सामग्री का भी एक बडा बाजार बनेगा और साथ ही अनुवाद का भी।

सूचना क्रांति के इस नये दौर में पत्रकारिता का क्या स्वरूप होगा यह भी एक प्रश्न है। आज भी भारत में विशेषकर हिन्दी पत्रकारिता रूढिवादी है और तकनीक को स्वीकार करने को तैयार नहीं है। 40 से अधिक या 50 के आस पास की अवस्था के पत्रकार अब भी ब्लागिंग और इंटरनेट के मह्त्व को स्वीकार कर पाने का साहस नहीं कर पा रहे हैं और यही कारण है कि अनेक पत्रकार अज्ञानतावश वेब आधारित पत्रकारिता को ड्रायिंग रूम की अनैतिक पत्रकारिता भी कहने में नहीं हिचकते पर शायद वे भूल जाते हैं को वेब केवल एक तकनीकी परिवर्तन है और पत्रकारिता का मूल भाव कि तथ्यों का वास्तविक मूल्याँकन करने की परिपाटी वही है। भारत में तो वेब आधारित पत्रकारिता और ब्लागिंग तो पिछले कुछ वर्षों में आयी है पर पश्चिम में तो यह एक वैकल्पिक पत्रकारिता का स्वरूप ले चुकी है और तथाकथित मुख्यधारा की पत्रकारिता भी इसके सन्दर्भों का हवाला देती है और इसे प्रामाणिक मानती है।

डिजिटल मीडिया के प्रभाव से पत्रकारिता में स्थानीय वैश्विकता की नयी प्रवृत्ति का समावेश होगा अर्थात विश्व के किसी भी कोने में बैठा कोई व्यक्ति अपनी स्थानीयता से जुड सकेगा और साथ ही स्थानीय व्यक्ति विश्व की गतिविधियों से जुड सकेगा। हिन्दी पत्रकारिता इसी परिवर्तन के सन्दर्भ में रूढिवादी है और वह केवल स्थानीय विषयों को उठाने को अधिक समर्पित और जमीन से जुडी आदर्श पत्रकारिता मान कर चलती है। डिजिटल मीडिया के इस दौर में लोगों की वैश्विक पहुँच और आकाँक्षा हो गयी है और इन दोनों में संतुलन बनाने का प्रयास आगे इस युग में हिन्दी पत्रकारिता को करना सीखना होगा। उदाहरण के लिये यदि झारखण्ड और छत्तीसगढ के गाँवों में और बिहार की बाढ की वास्तविकता विदेशों में बैठा भारतीय या देश के अन्य हिस्से में बैठा भारतीय जानना चाहता है तो वहीं भारत का व्यक्ति सूचना क्रांति के चलते विश्व से जुड गया है और वह यह जानने को भी उत्सुक है कि अमेरिका में राष्ट्रपति चुनाव में क्या चल रहा है, या फिर
अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कौन से घटनाक्रम हैं जो भारत को प्रभावित करते हैं। हिन्दी पत्रकारिता में अब भी नयी प्रवृत्ति को अपनाने का प्रयास करने के स्थान पर उसकी आलोचना करने की प्रवृत्ति अधिक दिख रही है। इसका एक कारण यह भी हो सकता है कि हिन्दी पत्रकारिता में नयी पीढी अभी अपना स्थान नहीं बना पायी है।

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दक्षिण एशिया पर अल कायदा का साया

Posted by amitabhtri पर अक्टूबर 15, 2008

पाकिस्तान की सूचना मंत्री शेरी रहमान ने जब अपने देश की संसद में इस बात की आशंका व्यक्त की कि अल कायदा, तालिबान के साथ मिलकर अफगानिस्तान और कश्मीर में सक्रिय जेहादी तत्व पाकिस्तान को अस्थिर कर उसका शासन अपने हाथ में लेने का षडयन्त्र रच रहे हैं तो इस सनसनीखेज बयान को भारत में विश्लेषकों द्वारा अधिक महत्व नहीं दिया गया। परंतु यह बात अतयंत महत्व की है और यह बयान उस कठोर वास्तविकता की ओर संकेत करता है जिस ओर पाकिस्तान ही नहीं अफगानिस्तान और भारत सहित सम्पूर्ण दक्षिण एशिया बढ रहा है।

पाकिस्तान की सरकार के एक महत्वपूर्ण मंत्री की ओर से ऐसे बयान आने के पीछे दो तात्कालिक कारण हैं एक तो पिछले माह जिस प्रकार पाकिस्तान की राजधानी के अति सुरक्षा क्षेत्र में प्रधानमंत्री निवास और संसद भवन तक तालिबान और अल कायदा के संयुक्त प्रयासों से एक महत्वपूर्ण होटल को निशाना बना कर उसे पूरी तरह बर्बाद कर दिया गया और इस प्रयास में लगभग एक टन विस्फोटक का प्रयोग किया गया। यह एक ऐसी घटना थी जो संकेत करती है कि पाकिस्तान में आतंकवादी संगठन किस प्रकार संसाधन सम्पन्न और संस्थात्मक हो चुके हैं।

इसी के साथ एक और पृष्ठभूमि शेरी रहमान के बयान के पीछे है। अल कायदा का मीडिया प्रकोष्ठ काफी दिनों से चुप था और आतंकवाद और अल कायदा पर पैनी नजर रखने वाले अंतरराष्ट्रीय विशेषज्ञ भी इस बात से आश्चर्यचकित थे कि 11 सितम्बर को प्रति वर्ष कर्मकाण्ड के तौर पर वीडियो या आडियो टेप जारी करने वाला अल कायदा इस बार चुप क्यों रहा? इसके पीछे एक प्रमुख कारण यह माना जा रहा था कि अल कायदा का मीडिया प्रकोष्ठ जिसे अल सहाब कहते हैं उसका प्रमुख और अमेरिका का धर्मांतरित नागरिक गदाहन उर्फ अज्जाम अल अमेरिकी इस वर्ष के आरम्भ में पाकिस्तान के उत्तरी वजीरिस्तान में हुए एक बम हमले में मारा गया था जो अमेरिका नीत गठबन्धन सेना ने किया था। उस हमले के बाद अल कायदा के अल सहाब की निष्क्रियता से मान लिया गया कि अल कायदा का प्रचार तंत्र टूट चुका है। परंतु इन आशंकाओं के विपरीत गदाहन ने अल कायदा के सन्देश प्रकाशित करने वाली वेबसाइट पर 4 अक्टूबर को एक सन्देश प्रकाशित किया और इस सन्देश में अफगानिस्तान और पाकिस्तान सहित भारत को भी शामिल करते हुए पूरे दक्षिण एशिया के मुजाहिदीनों का आह्वान करते हुए कहा कि इस पूरे क्षेत्र में जेहाद की गति को तीव्र करें।

इस सन्देश में भारत और कश्मीर का भी उल्लेख किया गया है और क्रूसेडर, यहूदी शत्रुओं के साथ उनके सहयोगियों का उल्लेख करते हुए पाकिस्तान की सरकार और खुफिया एजेंसी पर आरोप लगाया गया है कि वह अमेरिका और उसके सहयोगियों के कहने पर कश्मीर में जेहाद को कमजोर कर रही है। इसके साथ ही काबुल में भी जेहाद को असफल करने का आरोप क्रूसेडर और हिन्दू भारत पर लगाया है। इस पूरे सन्देश में भारत का उल्लेख विशेष रूप से कश्मीर में जेहाद के सन्दर्भ में किया गया है पर कश्मीर के साथ इस बार भारत का अलग से उल्लेख कर हिन्दू भारत पर विजय का यह पहला कदम बताया गया है। सन्देश में पाकिस्तान की कश्मीर सम्बन्धी नीतियों का उल्लेख करते हुए पाकिस्तान के आतंकवादी संगठन तहरीके तालिबान को सतर्क किया गया है कि पाकिस्तान की सरकार उसे बरगलाकर उसके साथ युद्ध विराम करना चाहती है और इस सम्बन्ध में सरकार का तर्क है कि उत्तर पश्चिमी प्रांत में विद्रोहियों और आतंकवादियों से निपटने में सेना को लगाने से कश्मीर से सेना हटानी पड रही है जिससे कश्मीर का जेहाद प्रभावित हो रहा है। इसलिये तहरीके तालिबान को पाकिस्तान सरकार के साथ किसी भी प्रकार का भी समझौता करने से सावधान किया गया है।

अल कायदा के इस नवीनतम सन्देश में अमेरिका में आई आर्थिक मन्दी का भी उल्लेख किया गया है और इसे जेहाद की बडी विजय मानते हुए मुजाहिदीनों का आह्ववान किया गया है कि यह जेहाद का उचित अवसर है कि जब झूठे देवताओं की पूजा करने वालों से विश्व को मुक्ति दिलायी जा सकेगी और नयी विश्व व्यवस्था के निर्माण का मार्ग प्रशस्त हो सकेगा।

इस सन्देश में पाकिस्तान के पूर्व राष्ट्रपति परवेज मुशर्रफ का त्यागपत्र और नये राष्ट्रपति असिफ अली जरदारी का भी उल्लेख है और नये सेनाध्यक्ष परवेज कियानी का भी नाम लिया गया है। परंतु इस सन्देश का जो सबसे मह्त्वपूर्ण पक्ष है वह है पूरे दक्षिण एशिया के लिये जेहाद की बात करना।

वास्तव में यह बात सुन कर आश्चर्य हो सकता है कि शायद अल कायदा ने अपनी प्राथमिकतायें बदल दी हैं और अब मध्य पूर्व, अरब देशों और अमेरिका और यूरोप के स्थान पर उसका निशाना दक्षिण एशिया बन गया है। परंतु ऐसा नहीं है। अल कायदा के मुख्य सरगना ओसामा बिन लादेन ने जब 1998 में इंटरनेशनल इस्लामिक फ्रंट की स्थापना की थी और ईसाइयों तथा यहूदियों के विरुद्ध विश्वस्तर पर जेहाद के लिये मुसलमानों का आह्वान किया था तभी से यह संगठन एक सोची समझी केन्द्रित योजना के साथ चल रहा है। अल कायदा ने अपने अंतिम लक्ष्य खिलाफत की स्थापना के लिये और विश्व स्तर पर मध्यकालीन इस्लामिक साम्राज्य प्राप्त करने के लिये सर्वप्रथम अफगानिस्तान में अपना राज्य स्थापित किया फिर संस्थात्मक ढंग से शरियत के शासन को चर्चा का विषय बनाया। 11 सितम्बर 2001 को अमेरिका पर आक्रमण कर जेहाद का वैश्वीकरण किया और फिर योजनाबद्ध ढंग से समस्त विश्व में स्थानीय स्तर पर इस्लामी राज्य प्राप्त करने के लिये चल रहे आन्दोलनों को एक नेटवर्क के अधीन लाने का प्रयास किया और इस प्रयास में उसे यूरोप अरब और उत्तरी अफ्रीका के अनेक देशों में सफलता भी मिली जहाँ अनेक इस्लामी उग्रवादी संगठन इंटरनेशनल इस्लामिक फ्रंट का हिस्सा बन गये।

अफगानिस्तान से भगाये जाने के बाद अल कायदा के शीर्ष नेतृत्व ने पाकिस्तान और अफगानिस्तान की सीमा पर कबाइली क्षेत्रों में शरण ली और दो विशेष योजनाओं पर कार्य आरम्भ किया। एक तो अगले दशक के लिये अल कायदा का नेतृत्व विकसित करना और अफगानिस्तान के बाद दूसरे किसी राज्य की तलाश करना जिस पर नियंत्रण स्थापित कर अपने इस्लामीकरण के एजेण्डे के साथ विचारधारा को भी आगे बढाया जा सके। इस दिशा में काम करते हुए अल कायदा और तालिबान ने पाकिस्तान के उत्तर पश्चिमी प्रांत और अफगानिस्तान के कुछ क्षेत्रों में अपना प्रभाव बढाना आरम्भ किया और इस दौरान उसकी ओर से आतंकवादी घटनाओं को भी अंजाम दिया जाता रहा। 2005 में स्पेन की राजधानी मैड्रिड में धमाका और फिर 2006 में लन्दन में धमाका करने में यह नेटवर्क सफल रहा। इसके अतिरिक्त अनेक बडे षडयंत्र असफल भी किये जाते रहे। अफगानिस्तान से पाकिस्तान में छुपने के बाद अल कायदा का जेहाद स्पष्ट रूप ले रहा है और अब यह उन अरब देशों के शासकों को भी निशाना बना रहा है जो उसकी नजर में इस्लामी आधार पर शासन नहीं चला रहे हैं।

वास्तव में अल कायदा के प्रमुख ओसामा बिन लादेन और अयमान अल जवाहिरी जिस मुस्लिम ब्रदरहुड के संस्थापक सैयद कुत्ब, उसके भाई मोहम्मद कुत्ब और फिलीस्तीनी इस्लामी चिंतक अब्दुल्ला अज्जाम से प्रेरणा लेते हैं उनके जेहाद की व्याख्या पूरी तरह इस्लाम के शुद्धीकरण और शरियत आधारित शासन के लिये युद्धात्मक जेहाद की आज्ञा देता है और इसके लिये उन मुसलमानों के साथ भी जेहाद जायज है जो विशुद्ध इस्लाम के आदेश का पालन नहीं करते। इसी प्रयास का परिणाम है कि पाकिस्तान के उत्तर पश्चिमी सीमा प्रांत में अपना नियंत्रण स्थापित करने के बाद अल कायदा और तालिबान ने पाकिस्तान की सरकार के विरुद्ध जेहाद तीव्र कर दिया है।

अल कायदा ने अपने एजेण्डे के आधार पर जो योजना बनाई है उसके आधार पर वह सफल हो रहा है। अल कायदा न केवल जेहाद के नाम पर विश्व भर के एक बडे वर्ग के मुसलमानों को ईराक, अफगानिस्तान और लड्ने के लिये प्रेरित कर सका है वरन सूचना क्रांति का भरपूर उपयोग कर विश्व स्तर पर मुस्लिम उत्पीडन की एक काल्पनिक अवधारणा का सृजन कर उसे भरपूर प्रचारित भी किया है और इस प्रचार के चलते अल कायदा ने विश्व भर में मुसलमान बुद्धिजीवियो, वामपंथी विचारकों और युवा मुसलमानों के मन में एक वैश्विक चिंतन का बीजारोपण किया है जो स्थानीय समस्याओं को वैश्विक सन्दर्भ से जोड कर मुस्लिम उत्पीडन की अवधारणा का समर्थन करता है।

पाकिस्तान की सरकार की वरिष्ठ मंत्री ने जब जेहादी तत्वों से पाकिस्तान की स्थिरता को खतरा बताया तो इसके पीछे यही भाव छुपा था।

पाकिस्तान में स्थित अल कायदा नेतृत्व के प्रचार का प्रभाव समस्त दक्षिण एशिया पर पड्ने लगा है। भारत में इंडियन मुजाहिदीन ने जिस प्रकार विस्फोटों से पहले ईमेल भेजकर प्रचार का नया हथकण्डा अपनाया था उसकी समानता अल कायदा की इसी रणनीति से की जा सकती है। भारत में पुलिस ने जिस प्रकार साफ़्टवेयर इंजीनियर को इस प्रचार अभियान के सदस्यों के रूप में चिन्हित किया है उससे तो इस बात में सन्देह ही नहीं रह जाता कि पढे लिखे मुस्लिम युवक अल कायदा के विचारों से प्रभावित हो रहे हैं। अपने नवीनतम सन्देश में जिस प्रकार अल कायदा ने दक्षिण एशिया में मुजाहिदीनों को जेहाद के लिये प्रेरित किया है उससे स्पष्ट है कि अल कायदा के निशाने पर अब पूरा दक्षिण एशिया है।
यह पहला अवसर नहीं है जब अल कायदा ने खुलकर जेहाद के सन्दर्भ में भारत, हिन्दू और कश्मीर का उल्लेख किया है। इससे पूर्व ओसामा बिन लादेन और अयमान अल जवाहिरी अनेक बार हिन्दू, भारत और कश्मीर का उल्लेख कर चुके हैं।

समस्त विश्व में जेहाद के आधार पर खिलाफत साम्राज्य का स्वप्न देख रहे अल कायदा की योजनाओं के बारे में कभी समग्र स्तर पर चिंतन नहीं किया गया। विशेष कर भारत में इस विषय पर कभी चिंतन ही नहीं हुआ और पहले 11 सितम्बर 2001 के अमेरिका पर हुए आक्रमण को अल कायदा बनाम अमेरिका का संघर्ष माना गया और इस बात पर अभिमान किया जाता रहा कि भारत का एक भी मुसलमान जेहाद के लिये कभी लड्ने नहीं गया परंतु अल कायदा के प्रयासों से मुस्लिम चिंतन में, उग्रवादी संगठनों की कार्यशैली में और स्थानीय मुस्लिम उग्रवाद के व्यापक जेहादी स्वप्न के साथ जुड कर वैश्विक स्तर पर एजेंडे को लेकर आ रही समानता की अवहेलना की गयी।

पाकिस्तान की सरकार की महत्वपूर्ण मंत्री शेरी रहमान का यह आकलन इस सन्दर्भ में भी ध्यान देने योग्य है कि भारत के प्रधानमंत्री डा मनमोहन सिंह के साथ बातचीत में अमेरिका के राष्ट्रपति जार्ज डब्लू बुश ने कहा था कि पाकिस्तान के राष्ट्रपति असिफ अली जरदारी के ऊपर आतंकवाद के सम्बन्ध में अधिक विश्वास न करें क्योंकि वह अत्यंत कमजोर हैं और आतंकवाद को रोक पाना उनके वश में नहीं है। यह बात पूरी तरह सत्य है और इसका उदाहरण हमारे समक्ष है कि किस प्रकार कश्मीर के मामले पर अमेरिका के दबाव में उन्होंने कुछ और बयान दिया और कश्मीर और पाकिस्तान के दबाव के चलते फिर उस बयान से मुकर गये।

पाकिस्तान की स्थितियाँ इस प्रकार की हैं कि वहाँ कश्मीर में जेहाद का मुद्दा अब हुक्मरानों के हाथ से फिसलकर पूरी तरह जेहादियों के हाथ में आ गया है वह फिर इस्लामी आतंकवादी संगठन हों, पाकिस्तान की सेना के जेहाद परस्त तत्व हों या फिर आईएसआई के जेहादी तत्व सब मिल कर पाकिस्तान में समानांतर शक्ति बन गये हैं। इन तत्वों की अल कायदा और तालिबान से सहानुभूति है और यही कारण है कि पाकिस्तान सरकार आतंकवाद से आधे अधूरे मन से लड रही है।

दक्षिण एशिया में जेहादी तत्वों के मंसूबों को देखते हुए इस पूरे अभियान के लिये नये सिरे से रणनीति बनाने की आवश्यकता है। कुछ लोग इस बात को लेकर अत्यंत उत्साहित हैं कि अमेरिका के राष्ट्रपति पद के चुनाव में यदि बराक ओबामा कि विजय होती है तो वे पाकिस्तान और अफगानिस्तान में अल कायदा और तालिबान के सफाये के लिये विशेष प्रयास करेंगे परंतु हमें यह कदापि नहीं भूलना चाहिये कि अमेरिका के राष्ट्रपति का प्रयास अपने देश पर पाकिस्तान या अफगानिस्तान की धरती से होने वाले किसी बडे आक्रमण को रोकना होगा न कि दक्षिण एशिया में जेहाद की विचारधारा को पनपने से रोकना होगा। इस कार्य के लिये हमें अब कोई दीर्घगामी रणनीति अपनानी होगी। यदि अल कायदा के प्रचार अभियान को नहीं रोका जा सका तो भारत में मुसलमानों के एक बडे वर्ग को जेहाद में लिप्त होने से नहीं रोका जा सकेगा।

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हम आतंकवाद से नहीं बजरंग दल से लडेंगे

Posted by amitabhtri पर अक्टूबर 12, 2008

हम आतंकवाद से नहीं बजरंग दल से लडेंगे
अमिताभ त्रिपाठी

भारत के प्रधानमंत्री द्वारा डा मनमोहन सिंह द्वारा प्रस्तावित राष्ट्रीय एकता परिषद की बैठक को लेकर विवाद सा उठता दिख रहा है। राष्ट्रीय एकता परिषद के एजेण्डे को लेकर सत्ता पक्ष और विपक्ष के बीच वाद विवाद का जो दौर चल रहा है उसमें विपक्ष की ओर से भारतीय जनता पार्टी के नेता और गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी ने जो प्रश्न उठाया है वह अत्यंत सटीक है। नरेन्द्र मोदी ने राष्ट्रीय एकता परिषद की बैठक में आतंकवाद को एजेण्डे में शामिल न करने पर आश्चर्य व्यक्त किया है। वहीं सत्तारूढ यूपीए के घटकों राष्ट्रीय जनता दल और लोकजनशक्ति ने बजरंग दल और विश्व हिन्दू परिषद पर प्रतिबन्ध लगाने की माँग राष्ट्रीय एकता परिषद की बैठक में उठाने की बात की है। इन दोनों ही पक्षों को सुनने के बाद एक बात अत्यंत ही आश्चर्यजनक लगती है कि आखिर राष्ट्रीय एकता परिषद के बैठक बुलाने की आवश्यकता क्यों आन पडी और इसके पीछे असली मंतव्य क्या है?

इस सम्बन्ध में यदि उडीसा के मामले को लेकर पिछले दिनों कैबिनेट की हुई बैठक का सन्दर्भ लिया जाये तो बात कुछ हद तक स्पष्ट हो जाती है। कैबिनेट की बैठक के बारे में जोर शोर से प्रचारित किया गया कि इस बैठक में हिन्दूवादी संगठन बजरंग दल पर प्रतिबन्ध लगाने के सम्बन्ध में कोई अन्तिम निर्णय हो सकता है। कैबिनेट की उस बैठक में इस विषय पर चर्चा भी हुई और कानून मंत्री तथा गृहमंत्री की ओर से बैठक में उपस्थित सदस्यों को बताया गया कि बजरंग दल के विरुद्ध इस बात के पर्याप्त साक्ष्य नहीं हैं कि उस पर प्रतिबन्ध को न्यायालय में न्यायसंगत ठहराया जा सके। अब राष्ट्रीय एकता परिषद की बैठक से पूर्व हिन्दूवादी संगठनों पर प्रतिबन्ध की माँग और देश भर में हो रही इस्लामी आतंकवाद की घटनाओं को चर्चा से परे रखना कुछ विशेष मानसिकता की ओर संकेत करता है।

पिछले अनेक वर्षों से देश में इस्लामी आतंकवाद ताण्डव मचा रहा है और भारत में 2004 के बाद से जितनी भी आतंकवाद की घटनायें या बडे बम विस्फोट हुए हैं उनमें भारत के देशी मुसलमानों का हाथ रहा है और फिर वह सिमी हो या फिर नवनिर्मित इंडियन मुजाहिदीन। आज देश में मुसलमानों की युवा पीढी का एक ऐसा वर्ग निर्मित हो गया जो कुरान और अल्लाह का हवाला देकर निर्दोष हिन्दुओं को मूर्ति पूजा करने की सजा दे रहा है और इस विस्फोटों को अल्लाह के लिये किया जाने वाला जेहाद बता रहा है। ऐसे में यह आवश्यक हो जाता है कि भारत सरकार और देश के राजनीतिक दलों की इस आधार पर समीक्षा की जाये कि वे इस नयी उभरती समस्या के समाधान के लिये कितने उद्यत हैं। दुर्भाग्यवश जब हम इस सम्बन्ध में सोचते हैं तो हमें अत्यंत निराशा का सामना करना पडता है। आतंकवाद की इस पूरी समस्या से लड्ने के लिये एक समन्वित रणनीति अपनाने के स्थान पर इसे वोट बैंक के तराजू में तोला जा रहा है।

पिछले कुछ वर्षों में देश में आतंकवादियों की रणनीति और प्रेरणा दोनों में अंतर आया है। अभी कुछ वर्षों पूर्व तक हमारे राजनेता, पत्रकार और सुरक्षा विशेषज्ञ इस बात की दुहाई देते नहीं थकते थे कि भारत के मुसलमान अत्यंत सहिष्णु हैं और सूफी परम्परा के हैं इस कारण विश्व भर में जेहाद के नाम पर चल रहे इस्लामवादी आन्दोलन का प्रभाव भारत के मुसलमानों पर नहीं पडेगा और भारत निश्चय ही मध्य पूर्व में इजरायल के विरुद्ध चल रहे आतंकवाद या इंतिफादा से पूरी तरह असम्पर्कित रहेगा। यही कारण है कि भारत का बौद्धिक समाज और राजनीतिक नेतृत्व 11 सितम्बर को अमेरिका पर हुए इस्लामी आतंकवादी आक्रमण के बाद भी इस अपेक्षा में बैठा रहा कि भारत में मुसलमानों के साथ होने वाले व्यवहार, सेक्युलरिज्म के प्रति उनकी समझ और लोकतन्त्र में उनकी आस्था और नरमपंथी इस्लाम की उनकी परम्परा के चलते इस वैश्विक जेहादी आन्दोलन के प्रति उनका झुकाव नहीं होगा।

इसी भावना के चलते 2004 से पहले तक भारत में होने वाले आतंकवादी आक्रमणों के लिये पडोसी पाकिस्तान के कुछ इस्लामी आतंकवादी संगठनों और खुफिया एजेंसी आईएसाआई को दोषी ठहराया जाता था और यह बात तथ्यात्मक भी थी कि सीमा पार से लोग आतंकवादी घटनाओं के लिये भारत आते थे और उन्हें स्थानीय स्तर पर कुछ सहयोग मिलता था परंतु योजना से क्रियान्वयन तक सभी कुछ सीमा पार के तत्वों का होता था। परंतु अचानक 2004 के बाद भारत में सीमा पार के इस आतंकवाद ने इस्लामी आतंकवाद का स्वरूप ग्रहण कर लिया और भारत स्थित अनेक इस्लामी संगठनों ने पिछले अनेक वर्षों से चल रहे इस्लामी आन्दोलन को आतंकवाद में परिवर्तित कर दिया और सिमी तथा इंडियन मुजाहिदीन जैसे संगठन खुलकर आतंकवादी घटनाओं को अंजाम देने लगे।

आज देश के समक्ष यह अत्यंत बडी चुनौती है कि इस समस्या के मूल को समझकर उसका समाधान तलाशा जाये। इस लेखक ने अपने अनेक पिछले आलेखों में इस बात का उल्लेख किया है कि विश्व स्तर पर जेहाद के नाम पर एक इस्लामवादी आन्दोलन चलाया जा रहा है जिसकी प्रेरणा समस्त विश्व में समय समय पर जेहाद के सन्दर्भ में इस्लाम की व्याख्या करते हुए विश्व पर इस्लामी सर्वोच्चता स्थापित करने के लिये संचालित हुए आन्दोलनों से ली गयी है। भारत में ऐसे इस्लामी आन्दोलनों के प्रयास 18वीं शताब्दी से ही होते रहे हैं। इसी प्रकार मध्य पूर्व और अरब देशों में 18वीं शताब्दी में वहाबी आन्दोलन , फिर बीसवीं शताब्दी में मिस्र में मुस्लिम ब्रदरहुड संगठन जिसकी नींव सैयद कुत्ब ने रखी और उनकी भाई मुहम्मद कुत्ब ने उस परम्परा को आगे बढाते हुए उस विचारधारा को आगे बढाया और उसी परम्परा का आखिरी नाम फिलीस्तीन का अब्दुल्ला अज़्ज़ाम है जिसकी प्रेरणा से आज अल कायदा और ओसामा बिन लादेन का विश्वव्यापी जेहादी इस्लामी आतंकवादी आन्दोलन चल रहा है।

भारत में इस सन्दर्भ में जेहाद का अध्ययन करने का कभी प्रयास नहीं हुआ। जिस समय ओसामा बिन लादेन ने इंटरनेशनल इस्लामिक फ्रंट की स्थापना कर ईसाइयों और यहूदियों फिर हिन्दुओं के विरुद्ध जेहाद की घोषणा भी नहीं की थी उससे बहुत पहले भारत के इस्लामी संगठन सिमी ने 1986 में भारत को मुक्त कराकर इसे इस्लामी राष्ट्र का स्वरूप देने का संकल्प करते हुए सम्मेलन आयोजित किया था। आज यही संकल्प वैश्विक जेहाद के साथ जुड गया है जो विश्व स्तर पर शरियत और कुरान पर आधारित नयी विश्व व्यवस्था की स्थापना करना चाहता है। आज भारत में इस बात पर चर्चा करने का प्रयास ही नहीं हो रहा है कि अल कायदा और ओसामा बिन लादेन के विचारों से प्रभावित होने वाले मुस्लिम युवकों को इस विचारधारा से अलग थलग कैसे किया जाये। इंडियन मुजाहिदीन के मीडिया प्रकोष्ठ के लोगों के सामने आने के बाद यह पूरी तरह स्पष्ट हो गया है कि भारत में मुसलमानों का एक वर्ग तेजी से जेहाद के विचारों से प्रभावित हो रहा है। आज अत्यंत दुर्भाग्य का विषय है कि जिस प्रकार यह विचार तेजी से मुस्लिम युवकों में फैल रहा है और बडे सम्पन्न युवक जेहाद के नाम पर अपने ही देश के लोगों का खून बहाने को अपना धर्म मान बैठे हैं तो ऐसे में आश्चर्य नहीं कि आने वाले दिनों में हमें मध्यपूर्व के देशों और अफगानिस्तान और पडोसी पाकिस्तान की भाँति मानव बम के जरिये होते विस्फोट देखने को मिलें।

आज जब समस्त विश्व में इस बात पर विचार हो रहा है कि जेहाद के इस वैश्विक आन्दोलन को सभ्य समाज और वर्तमान विश्व व्यवस्था के विरुद्ध एक युद्ध माना जाये और इस सम्बन्ध में विभिन्न देशों में इस बात के प्रयास हो रहे हैं कि जेहाद के इस आन्दोलन से सामान्य शांतिप्रिय मुस्लिम समुदाय को किस प्रकार अलग थलग रखते हुए जेहाद की इस विचारधारा को वैचारिक स्तर पर परास्त किया जाये और इस सम्बन्ध में मुस्लिम समुदाय को उत्तरदायी बनाने के भी प्रयास हो रहे हैं तो वहीं भारत में अब भी इस समस्या को वोट बैंक की राजनीति से जोड्कर इसके समाधान के किसी भी प्रयास को अवरुद्ध किया जा रहा है।

इस सम्बन्ध में सबसे बडा उदाहरण पिछले दिनों राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली में जामिया नगर में बाटला हाउस में आतंकवादियों के साथ हुई पुलिस की मुठभेड के बाद उसे फर्जी सिद्ध करने को और अपने ही साथी पुलिसकर्मी को मरवा देने के आरोप दिल्ली पुलिस पर लगे। यह आरोप देश की प्रमुख सेक्युलर कही जाने वाली पार्टियों ने लगाये और इस मुठभेड की न्यायिक जाँच की माँग तक कर डाली।

यही नहीं तो देश का ध्यान इस्लामी आतंकवाद की समस्या से हटाने के गैर जिम्मेदाराना और दूरगामी स्तर पर खतरनाक परिणामों से परिपूर्ण प्रयास के अंतर्गत देश में हिन्दू आतंकवाद का एक समानांतर आभास विकसित करने का प्रयास किया जा रहा है और राष्ट्रीय एकता परिषद की बैठक उसी आभास को वास्तविक स्वरूप देने का सुनियोजित प्रयास है। इस्लामी आतंकवाद के समानांतर हिन्दू आतंकवाद और सिमी के समानांतर बजरंग दल का आभासी दृष्टिकोण कितना खोखला है इसका पता इसी बात से चलता है कि अब तक हिन्दू आतंकवाद जैसी किसी अवधारणा को सिद्ध करने के लिये कोई कानूनी साक्ष्य सरकार के पास नहीं है और न ही बजरंग दल को प्रतिबन्धित करने के लिये ही प्रमाण हैं। फिर यह प्रयास क्यो? केवल मुस्लिम वोट बैंक को संतुष्ट रखने का प्रयास और देशवासियों का ध्यान इस्लामी आतंकवाद से हटाने के लिये।

परंतु यह दृष्टिकोण कितना घातक है इसका पता हमें बाद में चलेगा। ठीक उसी प्रकार जिस प्रकार घाटी से हिन्दुओं को योजनाबद्ध ढंग से भगाने के इस्लामी एजेंडे को लम्बे समय तक कुछ गुमराह नौजवानों का उग्रवाद कहा जाता रहा। आज उसी प्रकार भारत में इस्लामी आतंकवाद को 1992 में बाबरी ढाँचा के ध्वँस से उपजा मान कर प्रचारित किया जा रहा है। भारत के राजनीतिक दल और बौद्धिक समाज के लोग जिस प्रकार इस्लामी आतंकवाद का समाधान करने और जेहाद की वैश्विक विचारधारा से देश के मुसलमानों को जुड्ने से रोकने के लिये कोई ठोस रणनीति अपनाने के स्थान पर मुस्लिम उत्पीडन की काल्पनिक अवधारणा को प्रोत्साहन दे रहे हैं, आतंकवादियों के मानवाधिकार के नाम पर पुलिस को कटघरे में खडा कर रहे हैं, आतंकवाद को न्यायसंगत ठहराने के लिये तर्क देर रहे हैं उससे जेहाद के आधार पर चल रहे इस इस्लामवादी आन्दोलन को और सहारा ही मिलेगा और यह सशक्त हो जायेगा।

जिस प्रकार राष्ट्रीय एकता परिषद की बैठक में आतंकवाद के विषय को एजेण्डे में नहीं लिया गया है और कर्नाटक और उडीसा की घटनाओं का आश्रय लेकर बजरंग दल को निशाने पर लिया जा रहा है उससे तो यही लगता है कि इस्लामी आतंकवाद से लड्ना सरकार की प्राथमिकता में नहीं है। आज देश के समक्ष जिस प्रकार इस्लामी आतंकवाद एक चुनौती बन कर खडा है ऐसे में क्या बजरंग दल पर प्रतिबन्ध लगाने से इस समस्या का समाधान हो जायेगा और देश में जेहाद की विचारधारा से प्रभावित हो रहे मुस्लिम युवक जेहाद करना छोड देंगे। ऐसा बिलकुल भी नहीं है और यह बात कांग्रेस भी जानती है और उसके सहयोगी दल भी जानते हैं फिर भी देश में एक खतरनाक खेल खेला जा रहा है देश में मानव बमों की फैक्ट्री तैयार होने का अवसर दिया जा रहा है और प्रतीक्षा की जा रही है कि कब भारत इजरायल, अफगानिस्तान, इराक और पाकिस्तान बन जाये?

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सेकुलरिज्म के बहाने आतंकवाद का समर्थन?

Posted by amitabhtri पर सितम्बर 28, 2008

सेकुलरिज्म के बहाने आतंकवाद का समर्थन? अमिताभ त्रिपाठी

पिछले दिनों भारतीय जनता पार्टी के बौद्धिक प्रकोष्ठ ने आतंकवाद के विषय पर एक सार्थक चर्चा का आयोजन किया और इस कार्यक्रम में पार्टी के राष्ट्रीय महाचिव अरुण जेटली ने जो विचार रखे उसमें एक बात अत्यन्त मौलिक थी कि देश एक ऐसी स्थिति में आ गया है जहाँ देश के सबसे पुराने राजनीतिक दल काँग्रेस ने अपने वर्षों की परम्परा जो राष्ट्रवाद और सेकुलरिज्म के संतुलन पर आधारित थी उसे तिलाँजलि देकर अब सेकुलरिज्म को ही अपना लिया है और वह भी ऐसा सेकुलरिज्म जो इस्लामी कट्टरवाद की ओर झुकाव रखता है। यह बात केवल काँग्रेस के सम्बन्ध में ही सत्य नहीं है पूरे देश में विचारधारा के स्तर पर जबर्दस्त ध्रुवीकरण हो रहा है और स्वयं को मुख्यधारा के उदारवादी-वामपंथी बुद्धिजीवी कहने वाले लोग सेकुलरिज्म के नाम पर इस्लामी कट्टरवाद को प्रोत्साहन दे रहे हैं।
पिछले कुछ महीनों में देश के अनेक भागों में हुए आतंकवादी आक्रमणों के बाद यह बहस और मुखर हो गयी है विशेषकर 13 सितम्बर को दिल्ली में हुए श्रृखलाबद्ध विस्फोटों के बाद मीडिया ने इस विषय पर बहस जैसा वातावरण निर्मित किया तो पता चलने लगा कि कौन किस पाले में है? प्रिंट मीडिया के अनेक पत्रकारों ने इस विषय पर अपने विचार व्यक्त किये और दिल्ली विस्फोटों में उत्तर प्रदेश के आज़मगढ का नाम आने पर एक बहस आरम्भ हुई जिसके अनेक पहलू सामने आये। एक तो इलेक्ट्रानिक मीडिया का एक स्वरूप सामने आया जिसने काफी समय से अनुत्तरदायित्वपूर्ण पत्रकारिता का आरोप झेलने के बाद पहली बार आतंकवाद को एक अभियान के रूप में लिया और इसके अनेक पहलुओं पर विचार किया। इसी बह्स में अनेक चैनलों ने अनेक प्रकार की बहस की और सर्वाधिक आश्चर्यजनक बह्स कभी पत्रकारिता के स्तम्भ रहे और पत्रकार द्वारा संचालित चैनल का दावा करने वाले राजदीप सरदेसाई के सीएनएन-आईबीएन के चैनल पर देखने को मिली। प्रत्येक शनिवार और रविवार को विशेष कार्यक्रम प्रसारित करने वाले राजदीप सरदेसाई ने आतंकवाद पर एक विशेष सर्वेक्षण के परिणामों की व्याख्या के लिये यह कार्यक्रम आयोजित किया। सीएनएन- आईबीएन और हिन्दुस्तान टाइम्स के संयुक्त प्रयासों से किये गये इस सर्वेक्षण में जो कुछ चौंकाने वाले पहलू थे उनमें दो मुख्य थे- एक तो सर्वेक्षण के अंतर्गत दिल्ली, मुम्बई, चेन्नई, अहमदाबाद, हैदराबाद के लोगों से यह पूछना कि उनकी दृष्टि में किस मात्रा में उनकी पुलिस साम्प्रदायिक है और दूसरा काँग्रेस, भाजपा और पुलिस अधिकारी को बहस में बुलाकर उनके ऊपर विशेष राय के लिये प्रसिद्ध गीतकार जावेद अख्तर को रखना। यही नहीं 27 सितम्बर को दिल्ली में मेहरौली में हुए बम विस्फोट के बाद जब सीएनएन-आईबीएन ने अपने न्यूजरूम में इन्हीं जावेद अख्तर को बुलाया तो इससे स्पष्ट संकेत लगाना चाहिये कि इस चैनल के मन में आतंकवाद को लेकर क्या है?

किस आधार पर राजदीप सरदेसाई जावेद अख्तर को देश का ऐसा चेहरा मानते हैं जो पूरी तरह निष्पक्ष है और आतंकवाद पर इनकी नसीहत किसी पक्षपात से परे है जबकि इनकी पत्नी ने कुछ ही महीनों पहले कहा था कि उन्हें मुम्बई में फ्लैट नहीं मिल पा रहा है क्योंकि इस देश में मुसलमानों के साथ भेदभाव होता है। जिस शबाना आज़मी के पास मुम्बई के विभिन्न स्थानों पर सम्पत्ति है उसे अचानक लगता है कि उन्हें इस देश में मुसलमान होने की कीमत चुकानी पड रही है और जो बात पूरी तरह निराधार भी सिद्ध होती है ऐसे शबाना आजमी के पति पूरे देश के लिये एक निष्पक्ष दार्शनिक कैसे बन गये? पूरी बह्स के बाद जब राजदीप सरदेसाई ने आतंकवाद के समाधान के लिये जावेद अख्तर से समाधान पूछा तो उनका उत्तर था कि सभी प्रकार के आतंकवाद से लडा जाना चाहिये फिर वह भीड का आतंकवाद हो, राज्य का आतंकवाद हो या फिर और कोई आतंकवाद हो। पूरी बहस में राजदीप सरदेसाई और जावेद अख्तर देश भर में हो रहे जिहादी आतंकवाद के विचारधारागत पक्ष पर चर्चा करने से बचते रहे। जब मुम्बई के पूर्व पुलिस प्रमुख एम एन सिंह ने कहा कि कडा कानून और खुफिया तंत्र भी 50 प्रतिशत ही आतंकवाद से लड सकता है और शेष 50 प्रतिशत की लडाई विचारधारा के स्तर पर लड्नी होगी। इस पर जावेद अख्तर साहब उसी पुराने तर्क पर आ गये कि यदि सिमी पर प्रतिबन्ध लगे तो बजरंग दल पर भी प्रतिबन्ध लगना चाहिये।

राजदीप सरदेसाई की बहस एक विचित्र स्थिति उत्पन्न करती है। जरा कुछ बिन्दुओं पर ध्यान दीजिये। वे आतंकवाद के विरुद्ध कौन सी सरकार बेहतर लडी यह आँकडा प्रस्तुत करते हैं और कहते हैं कि 26 प्रतिशत लोग यूपीए को बेहतर मानते हैं और 28 प्रतिशत लोग एनडीए को। अब राजदीप सरदेसाई भाजपा के राजीव प्रताप रूडी से पूछते हैं कि आप में भी जनता को अधिक विश्वास नहीं है कि आप इस समस्या से बेहतर लडे। सर्वेक्षण में 46 प्रतिशत लोग मानते है कि कोई भी वर्तमान राजनीतिक दल आतंकवाद से प्रभावी ढंग से नहीं लड रहा है। जरा विरोधाभास देखिये कि एक ओर देश के मूर्धन्य पत्रकार राजदीप सरदेसाई पुलिस का इस आधार पर सर्वेक्षण करते हैं कि वह कितनी साम्प्रदायिक है और भाजपा पर आरोप लगाते हैं कि पोटा कानून का अल्पसंख्यकों के विरुद्ध दुरुपयोग होता है तो वहीं कहते हैं कि आप भी तो आतंकवाद से बेहतर ढंग से नहीं लड पाये। लेकिन राजदीप सरदेसाई हों या जावेद अख्तर हों वे उस खतरनाक रूझान की ओर ध्यान नहीं देते कि जिस देश के 46 प्रतिशत लोगों का विश्वास अपने नेताओं से इस सन्दर्भ में उठ जाये कि वे उनकी रक्षा करने में समर्थ हैं तो इसके परिणाम आने वाले समय में क्या हो सकते हैं?

इससे पहले राजदीप सरदेसाई ने अपने चैनल पर कुछ सप्ताह पूर्व आतंकवाद पर ही एक बहस आयोजित की थी और किसी मानवाधिकार कार्यकर्ता के साथ किरण बेदी और अरुण जेटली को भी आमंत्रित किया था और स्वयं को उदारवादी और लोकतांत्रिक सिद्ध करते हुए पुलिस को अपराधी तक सिद्ध करने का अवसर बहस में मानवाधिकार कार्यकर्ता को दिया था। अब प्रश्न है कि पुलिस को अधिकार भी नहीं मिलने चाहिये, जिहाद पर चर्चा भी नहीं होनी चाहिये, सेकुलरिज्म के नाम पर इस्लामी कट्टरवाद को बढावा दिया जाना चाहिये, देश के बहुसंख्यक हिन्दुओं की बात उठाने वाले को आतंकवादियों के बराबर खडा किये जाने के प्रयासों को महिमामण्डित किया जाना चाहिये, मानवाधिकार के नाम पर आतंकवादियों की पैरोकारी होनी चाहिये, आतंकवाद के आरोप में पकडे गये लोगों के मामले में सेकुलरिज्म के सिद्धांत का पालन होना चाहिये। इन परिस्थितियों में कौन सा देश आतंकवाद से लड सकता है यह फार्मूला तो शायद राजदीप सरदेसाई और जावेद अख्तर के पास ही होगा।

आज सबसे दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति यह है कि हमारे चिंतन और व्यवहार में राष्ट्र के लिये कोई स्थान नहीं है और इसका स्थान उन प्रवृत्तियों ने ले लिया है जो राष्ट्र के सापेक्ष नहीं हैं। आश्चर्य का विषय है कि जिस उदारवाद का पाठ हमारे बडे पत्रकार दुनिया के सबसे बडे उदारवादी लोकतंत्र अमेरिका से पढते हैं वे क्यों भूल जाते हैं कि अमेरिका में राज्य के अस्तित्व और उसके ईसाई मूल के चरित्र पर कोई प्रश्नचिन्ह नहीं खडा किया जाता और इन दो विषयों पर पूरे देश में सहमति है इसी कारण 11 सितम्बर 2001 को आतंकवादी आक्रमण के बाद आम सहमति हो या फिर अभी आये आर्थिक संकट के मामले में सहमति हो इस बात को आगे रखा जाता है कि राज्य कैसे सुरक्षित रहे? 11 सितम्बर के आक्रमण के बाद कुछ कानूनों को लेकर उदारवादी-वामपंथियों ने अमेरिका में भी काफी हो हल्ला मचाया था पर राज्य की सुरक्षा को प्राथमिकता दी गयी न कि उदारवादी-वामपंथियों को फिर भारत में ऐसा सम्भव क्यों नहीं है? निश्चय ही इसका उत्तर अरुण जेटली की इसी बात में है कि अब काँग्रेस में राष्ट्रवाद के लिये कोई स्थान नहीं है और उसका झुकाव सेकुलरिज्म की ओर है जो इस्लामी कट्टरवाद से प्रेरित है।

लेकिन चिंता का विषय यह है कि केवल काँग्रेस ही इस भावना के वशीभूत नहीं है देश में बुद्धिजीवियों का एक बडा वर्ग सेकुलरिज्म और पोलिटिकल करेक्टनेस की ओर झुक रहा है और आतंकवाद ही नहीं राष्ट्रवाद से जुडे सभी विषयों पर विभ्रम की स्थिति उत्पन्न कर रहा है। यही कारण है कि इस्लामी आतंकवाद की चर्चा करते समय अधिकाँश पत्रकार यह भूल जाते हैं कि यह एक वैश्विक आन्दोलन का अंग है और वे इसे 1992 में अयोध्या में बाबरी ढाँचे के ध्वस्त होने से जोडकर चल रहे हैं। लेकिन यह तर्क निरा बकवास है इस देश में मुस्लिम वर्ग के साथ कोई ऐसा अन्याय नहीं हुआ है कि वह हथियार उठा ले। आज समस्त विश्व में इस अवधारणा को प्रोत्साहन दिया जा रहा है कि अमेरिका द्वारा इजरायल को दिये जा रहे समर्थन से अल कायदा जैसे संगठन उत्पन्न हुए। यदि ऐसा है तो ब्रिटेन, स्पेन, बाली में मुस्लिम समाज के साथ क्या अन्याय हुआ था? दक्षिणी थाईलैण्ड में बौद्धों ही पिछले दो वर्ष से हत्यायें क्यों हो रही हैं। आज भारत में सेकुलरिज्म के नाम पर जिस प्रकार इस्लामी आतंकवाद के लिये तर्क ढूँढे जा रहे हैं इसका स्वरूप भी वैश्विक है।

जिस प्रकार 11 सितम्बर 2001 की घटना को विश्व भर के उदारवादी-वामपंथियों ने सीआईए और मोसाद का कार्य बताया था उसी प्रकार भारत में 2002 में गोधरा में रामसेवकों को ले जा रही साबरमती ट्रेन में इस्लामवादियों द्वारा लगायी गयी आग के लिये हिन्दू संगठनों को ही दोषी ठहरा कर षडयंत्रकारी सिद्धांत का प्रतिपादन इसी बिरादरी के भारत के लोगों ने किया । जिस प्रकार विदेशों में सक्रिय इस्लामी आतंकवादी फिलीस्तीन और इजरायल विवाद, इराक में अमेरिका सेना की उपस्थिति और ग्वांटेनामो बे में इस्लामी आतंकवादियों पर अत्याचार को आतंकवाद बढने का कारण बता रहे है उसी प्रकार भारत में 1992 में अयोध्या में बाबरी ढाँचा गिराया जाना, 2002 में गुजरात के दंगे और प्रत्येक आतंकवादी आक्रमण के बाद निर्दोष मुसलमानों को पकडा जाना और उन्हें प्रताडित किये जाने को भारत में इस्लामी आतंकवादी घटनाओं का कारण बताया जा रहा है। आज भारत में हिन्दू संगठनों को इस्लामी आतंकवाद का कारण बताया जा रहा है तो विश्व स्तर पर अमेरिका के राष्ट्रपति बुश और इजरायल को लेकिन वास्तविकता ऐसी नहीं है।

आज विश्व स्तर पर इस्लामी आतंकवाद के आन्दोलन का सहयोग बौद्धिक प्रयासों से, मानवाधिकार के प्रयासों से, मुसलमानों को उत्पीडित बताकर और षडयंत्रकारी सिद्धान्त खोजकर किया जा रहा है। पिछले वर्ष ईरान के राष्ट्रपति महमूद अहमदीनेजाद ने अपने देश में यूरोप और अन्य देशों के उन विद्वानों को आमंत्रित किया जो मानते हैं कि नाजी जर्मनी में यहूदियों का नरसंहार हुआ ही नहीं था और यह कल्पना है जिस आधार पर यहूदी समस्त विश्व को ब्लैकमेल करते हैं।

आज विश्व स्तर पर चल रहे इन प्रयासों के सन्दर्भ में हमें इस्लामी आतंकवाद की समस्या को समझना होगा। आज उदारवादी-वामपंथी बनने के प्रयास में हमारा बुद्धिजीवी समाज आतंकवादियों के हाथ का खिलौना बन रहा है।

आज जिस प्रकार सेकुलरिज्म के नाम पर भारत को कमजोर किया जा रहा है उसकी गम्भीरता को समझने का प्रयास किया जाना चाहिये। आखिर जो लोग मुस्लिम उत्पीडन का तर्क देते हैं और कहते हैं कि बाबरी ढाँचे को गिरता देखने वाली पीढी जवान हो गयी है और उसने हाथों में हथियार उठा लिये हैं या 2002 के दंगों का दर्द मुसलमान भूल नहीं पा रहे हैं तो वे ही लोग बतायें कि भारत विभाजन के समय अपनी आंखों के सामने अपनों का कत्ल देखने वाले हिन्दुओं और सिखों के नौजवानों ने हाथों में हथियार उठाने के स्थान पर अपनी नयी जिन्दगी आरम्भ की और देश के विकास में योगदान दिया। रातोंरात घाटी से भगा दिये गये, अपनों की हत्या और बलात्कार देखने के बाद भी कश्मीर के हिन्दुओं की पीढी ने हथियार नहीं उठाये और आज भी नारकीय जीवन जीकर अपने ही देश में शरणार्थी बन कर भी आतंकवादी नहीं बने क्यों? बांग्लादेश और पाकिस्तान में अल्पसंख्यकों का दर्जा पाने वाले हिन्दू पूरी तरह समाप्त होने की कगार पर आ गये पर उनकी दशा सुनकर कोई विश्व के किसी कोने में हिन्दू आत्मघाती दस्ता नहीं बना क्यों? इस प्रश्न का उत्तर ही इस्लामी आतंकवाद की समस्या का समाधान है।

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