हिंदू जागरण

हिंदू चेतना का स्वर

वामपंथी-इस्लामवादी गठजोड

Posted by amitabhtri पर अप्रैल 25, 2008

नेपाल में माओवादियों की विजय के उपरांत अनेक प्रकार के विचार सामने आने लगे हैं। भारत में इस विषय पर विभिन्न समाचार पत्रों में जो लेख या सम्पादकीय लिखे जा रहे हैं उससे एक बात स्पष्ट हो जाती है कि नेपाल में माओवादियों की विजय को दो सन्दर्भों में देखा गया हैं। एक विचार के अनुसार नेपाल में माओवादियों की विजय का लाभ उठाकर भारत में वामपंथी उग्रवादियों नक्सलवादियों या फिर माओवादियों को भी मुख्यधारा में शामिल करने के प्रयास करने चाहिये। अनेक बडे समाचार पत्रों ने अपनी सम्पादकीय और लेखों के द्वारा सरकार को सलाह दी है कि नेपाल में माओवादियों की विजय से एक स्वर्णिम अवसर भारत को मिला है कि वह भारत में नक्सलियों को लोकतंत्र का मार्ग अपनाने को प्रेरित करे। इसके अतिरिक्त नेपाल में माओवादियों की विजय को लेकर एक दूसरी विचारधारा भी है जो मानती है कि अब नेपाल भारत की सुरक्षा की दृष्टि से एक बडा खतरा बन जायेगा और भारत का हित इसी में है कि नेपाल में माओवादी हिंसा को नष्ट करने की दिशा में भारत प्रयास जारी रखे और बदली परिस्थितियों में भी राजा को नेपाल में प्रासंगिक बना कर रखे। इन दोनों ही विचारों में से कौन सा विचार आने वाले समय में प्रभावी होने वाला है यह कहने की आवश्यकता नहीं है।

हमारे लेख का विषय यह है कि नेपाल में माओवादियों की विजय का भारत की सुरक्षा पर दीर्घगामी स्तर पर क्या प्रभाव पडने वाला है। अभी हाल के अपने अंक में प्रसिद्ध पत्रिका तहलका ने भारत में नक्सलियों के समर्थक और उनके बौद्धिक प्रवक्ता माने जाने वाले बारबरा राव का एक साक्षात्कार प्रकाशित किया है और इसमें उनसे जानने का प्रयास किया है कि नेपाल में माओवादियों की विजय का भारत के नक्सल आन्दोलन पर क्या प्रभाव पडने वाला है। पूरे साक्षात्कार में बारबरा राव ने अनेक बातें की हैं परंतु जो अत्यंत मह्त्वपूर्ण बात है वह यह कि नेपाल और भारत के माओवादियों के लक्ष्य में मूलभूत अंतर है एक ओर नेपाल के माओवादियों का उद्देश्य जहाँ नेपाल में राजशाही समाप्त कर गणतंत्र की स्थापना था वहीं भारत में नक्सली या माओवादी एक व्यवस्था परिवर्तन या समानांतर राजनीतिक प्रणाली का आन्दोलन चला रहे हैं। इस व्यस्था परिवर्तन के मूल में शास्त्रीय साम्यवादी सोच है कि उत्पादन के साधनों पर सर्वहारा समाज का अधिकार हो। बारबरा राव का मानना है कि अभी यह देखना होगा कि नेपाल का शासन किस प्रकार चलाया जाता है। इस साक्षात्कार से एक बात स्पष्ट होती है कि नेपाल के माओवादियों के प्रति भारत के नक्सली कोई दुर्भाव नहीं रखते जैसा कि भारत में कुछ समाचार पत्रों ने नेपाल में माओवादियों की विजय के बाद समाचारों में लिखा था कि भारत स्थित माओवादी लोकतांत्रिक व्यवस्था में आने से नेपाली माओवादियों से खिन्न हैं। बारबरा राव की बातचीत से स्पष्ट है कि भारत स्थित नक्सली या माओवादी नेपाल की परिस्थितियों पर नजर लगाये रखेंगे।

 

भारत में जिस प्रकार नेपाल में माओवादियों की विजय के उपरांत उनको अवसर देने के नाम पर या फिर भारत में नक्सलियों को लोकतांत्रिक बनाने के नाम पर जिस प्रकार माओवादियों की विजय को स्वीकार कराया जा रहा है और उससे भी आगे बढकर भारत सरकार पर एक बौद्धिक दबाव बनाया जा रहा है कि वह माओवादियों को हाथोंहाथ ले इसके बाद भी कि माओवादी नेता प्रचण्ड अपनी विजय के उपरांत दहाड दहाड कर कह रहे हैं कि वे भारत के साथ पुरानी सभी सन्धियाँ भंग कर भारत के साथ नेपाल के सम्बन्धों की समीक्षा नये सन्दर्भ में करेंगे। इस प्रकार भारत विरोधी वातावरण के बाद भी नेपाल में माओवादियों की विजय को भारत के लिये उपयुक्त ठहराने वाले कौन लोग हैं और इसके पीछे इनका उद्देश्य क्या है?

 

यही वह बिन्दु है जो हमें सोचने को विवश करता है और देश में वामपंथी विचारधारा के झुकाव को स्पष्ट करता है। इसमें बात में कोई शक नहीं है कि भारत के बडे समाचार पत्रों में निर्णायक पदों पर वही लोग बैठे हैं जो शीतकालिक युद्ध की मानसिकता के हैं और उस दौर के हैं जब वामपंथी विचारधारा कालेज कैम्पस में फैशन हुआ करती थी। इस विचारधारा को पिछले 25 वर्षों में अनेक उतार चढाव देखने पडे हैं। पहले राम मन्दिर के रूप में हिन्दुत्व आन्दोलन ने फिर सामाजिक न्याय के मण्डल आन्दोलन ने समाज का ध्रुवीकरण इस आधार पर कर दिया कि वामपंथी विचारधारा हाशिये पर चली गयी। ऐसी परिस्थितियों में यही वामपंथी विचार के पत्रकार जातिवादी दलों और हिन्दुत्व विरोधी शक्तियों के साथ चले गये और सेकुलरिज्म के नाम पर एक नया मोर्चा बना लिया जिसका एक साझा कार्यक्रम हिन्दुत्व विरोध था। फिर भी यह विचारधारा पूरी तरह वामपंथ पर आधारित नहीं थी।

 

2000 के बाद समस्त विश्व में एक नया परिवर्तन आया है और वैश्वीकरण के विरुद्ध प्रतिक्रिया और इस्लामी आतंकवाद का उत्कर्ष एक साथ हो रहा है। एक ओर जहाँ वैश्वीकरण के नाम पर सामाजिक असमानता बढ रही है तो वहीं एक वैकल्पिक विश्व व्यवस्था के नाम पर इस्लामवादी शक्तियाँ कुरान और शरियत पर आधारित विश्व व्यवस्था स्थापित करने का प्रयास कर रही हैं। वैश्वीकरण से उपजे सामाजिक असंतुलन के चलते समाज में आन्दोलन के लिये जो वातावरण पनप रहा है उसका कुछ हद तक उपयोग भारत में नक्सली कर रहे हैं। इस प्रकार नक्सलियों के आन्दोलन का सूत्र भी वर्तमान विश्व व्यवस्था का विरोध है और इस्लामवादी पुनरुत्थान आन्दोलन का लक्ष्य भी कुरान आधारित विश्व की स्थापना है। भारत में दोनों ही शक्तियाँ अर्थात नक्सली और इस्लामवादी हिन्दुत्व को साम्प्रदायिक और अपना शत्रु मानती हैं।

 

यह निष्कर्ष मैंने अपने अनुभव के आधार पर निकाला है। आज से कोई दो वर्ष पूर्व मुझे नक्सल प्रभावित राज्य छत्तीसगढ जाने का अवसर मिला और उन हिस्सों में भी जाने का अवसर मिला जो नक्सल प्रभावित या नक्सल प्रभाव वाले हैं। अपनी यात्रा के दौरान नक्सलियों के पूरे कार्य व्यवहार को जानने का अवसर मिला। नक्सलवादी एक समानांतर व्यवस्था पर काम कर रहे हैं। छ्त्तीसगढ जैसे क्षेत्र में जो भौगोलिक दृष्टि से काफी बिखरा है और कुछ गाँवों में तो केवल एक तो घर ही हैं और पिछ्डापन इस कदर है कि इन क्षेत्रों में रहने वाले निवासी देश क्या होता है यह तक नहीं जानते। ऐसे पिछ्डे क्षेत्रों में शिक्षा का बहुत बडा अभियान संघ परिवार के एकल विद्यालय चला रहे हैं जहाँ दूर दराज के घरों में भी आपको भारतमाता के कैलेण्डर मिल जायेंगे। खैर इसके बाद भी नक्सलवादियों का प्रभाव इन क्षेत्रों में बहुत अधिक है और उनके अपने विद्यालय हैं जहाँ वे जनजातिय लोगों के बच्चों को अपने पाठ्यक्रम के आधार पर शिक्षा देते हैं और बच्चों के अभिभावकों को धन भी देते हैं। इन पाठ्यक्रमों के अंतर्गत साम्राज्यवाद और हिन्दुत्व को सहयोगी सिद्ध करते हुए दोनों को समान रूप से शत्रु बताया जाता है। यही नहीं तो नक्सलियों की एक पत्रिका मुक्तिमार्ग  भी इस क्षेत्र से निकलती है जिसमें भी इसी प्रकार के भाव व्यक्त किये जाते हैं। इस अनुभव को पाठकों से बाँटना इसलिये आवश्यक था कि इन चीजों को देखकर दो वर्ष पूर्व जो विचार मेरे मन में आया था और जिसके बारे में उस समय भी मैने लिखा था वह यह कि नक्सलियों का यह भाव एक बडे संकट को जन्म दे सकता है और वह यह कि भारत में और विश्व स्तर पर वामपंथ और इस्लामवाद के समान उद्देश्य होने के कारण किसी स्तर पर आकर वे एक दूसरे के सहयोगी बन सकते है।

 

 नेपाल में माओवादियों की विजय के उपरांत जिस प्रकार की प्रतिक्रिया भारत में तथाकथित बुद्धिजीवियों और पत्रकारों के मध्य हुई है उससे एक आशंका को बल मिलता है कि वामपंथ के थके सिपाही एक बार फिर विश्व स्तर पर साम्राज्यवाद को और भारत में हिन्दुत्व को निशाना बना कर इस्लामवादियों के साथ आ सकते हैं।

 

वैसे वामपंथियों का मुस्लिम साम्प्रदायिकता का सहयोग देने का पुराना इतिहास रहा है और भारत के विभाजन के लिये मुस्लिम लीग को वैचारिक अधिष्ठान प्रदान करने का कार्य वामपंथियों ने ही किया था। भारत में पिछ्ले 25-30 वर्षों से हाशिये पर आ गये वामपंथियों को सुनहरा अवसर 2004 में मिला जब वे केन्द्र में सत्तासीन दल के प्रमुख घटक बने और विदेश नीति सहित अनेक मुद्दों पर वीटो लगाने में सफल रहे। वामपंथियों ने नेपाल में माओवादियों को नेपाल की सत्ता तक लाने में भारत की ओर से मध्यस्थता की और राजतंत्र समाप्त करने का मार्ग प्रशस्त किया। कुछ वर्षों पहले भारत के दक्षिणी राज्य केरल में हुए विधानसभा चुनावों में वामपंथियों ने विदेश नीति को मुद्दा बनाकर चुनाव लडा और आई ए ई ए में भारत द्वारा ईरान के विरुद्ध किये गये मतदान को मुस्लिम वोट से जोडा और फिलीस्तीन के आतंकवादी नेता और अनेकों इजरायलियों की हत्या कराने वाले इंतिफादा के उत्तरदायी यासिर अराफात का चित्र लगाकर वोट की पैरवी की। इसी प्रकार अमेरिका के राष्ट्रपति जार्ज बुश की भारत यात्रा के दौरान मुम्बई और दिल्ली में इस्लामवादियों के साथ मिलकर बडी सभायें कीं और अमेरिका के राष्ट्रपति को संसद का संयुक्त सत्र सम्बोधित करने से रोक दिया। डेनमार्क में पैगम्बर मोहम्मद का आपत्तिजनक कार्टून प्रकाशित होने पर यही वामपंथी इस्लामवादियों के साथ सड्कों पर उतरे और केरल में इन्हीं वामपंथियों की सरकार ने कोयम्बटूर बम काण्ड के आरोपी कुख्यात आतंकवादी अब्दुल मदनी को जेल से रिहा करने के लिये विधानसभा का विशेष सत्र आहूत किया। ऐसा काम संसदीय इतिहास में पहली बार हुआ होगा जब विधानसभा के विशेष सत्र द्वारा किसी आतंकवादी को छोड्ने का प्रस्ताव पारित किया जाये।

 

अब जबकि नेपाल की संविधान सभा में विजय के उपरांत माओवादियों के नेता प्रचण्ड ने अपना प्रचण्ड रूप दिखाना आरम्भ कर दिया है और उनका भारत विरोधी एजेण्डा सामने आ रहा है तो स्पष्ट है कि नेपाल में चीन और पाकिस्तान की जुगलबन्दी गुल खिलाने वाली है और इसकी तरफ उन लोगों का ध्यान बिलकुल नहीं जा रहा है जो भारत सरकार को सीख दे रहे है कि नेपाल में माओवादियों की विजय से भारत में नक्सलवादियों को भी लोकतांत्रिक बनाने में सहायता मिलेगी। इस तर्क से सावधान रहने की आवश्यकता है कहीं इस चिंतन के पीछे माओवादियों के सहारे मृतप्राय पडे वामपंथ को जीवित करने का स्वार्थ तो निहित नहीं है। वैसे भी विश्व स्तर पर आज वामपंथी इस्लामवादियों को अपना सहयोगी बनाने में नहीं हिचकते और अमेरिका, इजरायल सहित अनेक विषयों पर उनके सुर में बात करने में तनिक भी परहेज नहीं करते। नेपाल में माओवादियों की विजय को दक्षिण एशिया में इस्लामवादी-वामपंथी गठजोड की दिशा में एक मह्त्वपूर्ण कदम माना जाना चाहिये। आने वाले दिनों में यह गठज़ोड और अधिक मुखर और मजबूत स्वरूप लेगा।

एक उत्तर दें

Fill in your details below or click an icon to log in:

WordPress.com Logo

You are commenting using your WordPress.com account. Log Out /  बदले )

Facebook photo

You are commenting using your Facebook account. Log Out /  बदले )

Connecting to %s

 
%d bloggers like this: