हाय रे तुष्टीकरण
Posted by amitabhtri पर अगस्त 28, 2006
अपने पिछले चिट्ठे में जब मैंने वन्देमातरम् के विषय पर मुसलमानों द्वारा उठाई जा रही आपत्तियों के पीछे छुपी मानसिकता को उजागर करने का प्रयास किया था तो मुझे इस बात का भान नहीं था कि हमारे पूज्य सन्त भी इस विषय को लेकर व्यथित हैं. अभी दो दिन-तीन दिन पूर्व मुझे ज्ञात हुआ कि इस विषय पर मुसलमानों की हठधर्मिता पर कुछ प्रमुख सन्त न केवल क्षुब्ध हैं वरन् उन्होंने प्रेस विज्ञप्ति के माध्यम से अपने क्षोभ को सार्वजनिक किया है. आर्ट ऑफ लिविंग फाउण्डेशन द्वारा जारी की गई गुरूवार दिनांक 25 अगस्त की गई प्रेस विज्ञप्ति में इस संस्था के संस्थापक श्री श्री रविशंकर व स्वामी चिदानन्द और स्वामी दयानन्द सरस्वती ने कुछ मुस्लिम संगठनों द्वारा वन्देमातरम् को इस्लाम विरोधी बताकर उसे न गाने के निर्णय को असहिण्णुता का एक उदाहरण बताते हुये प्रश्न किया है कि इस असहिण्णुता की कोई तो सीमा होनी चाहिये. कल हमसे कहा जायेगा कि नमस्ते मत बोलो फिर कहा जायेगा कि राष्ट्रीय ध्वज से भगवा रंग हटा दो. प्राय: अनेक अवसरों पर शान्त रहने वाले सन्त भी इस विषय पर मुखर होकर बोल रहे हैं, जो इस विषय की गम्भीरता को स्पष्ट करता है. इतने विरोध के बाद भी कुछ राजनीतिक दलों को इसमें कुछ भी आपत्तिजनक नहीं लगता कि मुसलमान इसे गाना नहीं चाहता. वास्तव में यह विषय एक विचित्र मानसिकता को प्रतिबिम्बित करता है जिसमें वास्तविकता से मुँह चुराकर दूसरों पर आरोप मढ़कर स्वयं को सन्तुष्टि प्रदान कर दी जाती है. यह विचित्र रोग हमारे राजनेताओं और बुद्धिजीवियों को लग चुका है. ऐसा प्रतीत होता है मानों शब्द अपनी सार्थकता खो चुके हैं. जैसे बारम्बार कहा जाता है कि हमारे देश में विधि का शासन है और सरकार के निर्णयों की समीक्षा करने का अन्तिम अधिकार न्यायालय को है , परन्तु राजनेता उसी हद तक न्यायालय की बात स्वीकार करते हैं जब तक न्यायालय के निर्णय उनके राजनीतिक हितों की पूर्ति करते हैं. अभी पिछले सप्ताह इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने हज सब्सिडी रोकने का निर्णय दिया नहीं कि केन्द्र के सत्ताधारी दल ने इस निर्णय के विरूद्ध सर्वोच्च न्यायालय जाने की बात कह दी, क्यों इसलिये कि यह निर्णय मुसलमानों के विरूद्ध है. यह रवैया तो यही स्पष्ट करता है कि मुसलमान और उन्हें वोट बैंक बनाकर उनकी जिद का पोषण करने वाले राजनीतिक दल कोई भी ऐसा निर्णय नहीं मानेंगे जो मुसलमानों से कर्तव्य पालन की अपेक्षा भी करेगा. यदि ऐसा ही है तो न्यायपालिका, व्यवस्थापिका या फिर संसद के ढाँचे से मुसलमानों को उन्मुक्ति दे देनी चाहिये. शाहबानो प्रकरण से लेकर आज तक मुसलमानों ने किसी भी प्रगतिशील निर्णय को अपनी शरियत में हस्तक्षेप बताकर उसका प्रबल विरोध किया. ऐसे में इस बात की क्या गारण्टी है कि मुसलमान राम मन्दिर के विषय में अपने प्रतिकूल निर्णय होने पर स्वीकार करेगा. आज वह अवसर आ गया है कि हम अल्पसंख्यकों को दी जाने वाली इस संवैधानिक उदारता में छुपे अन्तर्निहित खतरे को भाँपे. विश्व में चल रहे इस्लामी आतंकवाद और इस मानसिकता में एक सम्बन्ध है. आखिर कहने से तो कुछ नहीं होता आचरण के आधार पर किसी का चरित्र प्रकट होता है. देश के प्रति लगाव के जो प्रतीक हैं आप उनकी अवहेलना करते हैं और रात-दिन गाते हैं कि हम सबसे पहले भारतीय हैं फिर मुसलमान, न्यायालय के निर्णय आपको स्वीकार नहीं, धर्म और राष्ट्रीय कर्तव्य में चयन के समय आपकी प्राथमिकता धर्म की मध्ययुगीन सोच है, देश के कानूनों मसलन, परिवार नियोजन, तलाक, समान नागरिक संहिता से आपको उन्मुक्ति चाहिये फिर किस आधार पर आपको देश से प्रेम है. मुसलमानों के इस अलगाववादी विचार का पोषण करने वालों में हमारे तथाकथित बड़े नाम वाले पत्रकार भी हैं. अभी 26 अगस्त को इण्डियन एक्सप्रेस के सम्पादक ने अपनी कुशलता का परिचय देते हुये प्रसिद्ध शहनाई वादक स्व.उस्ताद बिस्मिल्लाह खान की विशेषताओं के आधार पर इस्लामी आतंकवाद से मुसलमानों को अलग करने का प्रयास किया. यह विचित्र मानसिकता ही मुसलमानों को अलग-थलग करती है. आखिर भारत में रहने वाला व्यक्ति यदि अल्लाह के नाम पर रागभैरवी गाता है तो इसमें इतना अचरज क्यों, इस विषय को इतना महिमामण्डित करने की आवश्यकता क्या है, ऐसा इसलिये कि सेक्युलरिज्म के नाम पर मुसलमानों के मसीहा बनने वाले ये बड़े लोग स्वयं मुसलमानों को राष्ट्र की मुख्य धारा का अंग नहीं मानते अन्यथा इस्लामी आतंकवाद की बहस में अब्दुल हमीद, उस्ताद या फिर स्वयं राष्ट्रपति अब्दुल कलाम का नाम लेकर इस्लामी आतंकवाद बनाम मुसलमान की बहस की वास्तविकता से भागने का प्रयास न करते. यह किस भारतवासी को नहीं पता कि इस कोटि के मुसलमान अलगववाद या आतंकवाद के प्ररक नहीं है. इसके प्रेरक तो वे लोग हैं जो मस्जिदों में भाषण देकर मुस्लिम युवकों को को जेहाद के लिये प्ररित करते हैं या फिर वे मुस्लिम बुद्धिजीवी हैं जो मुस्लिम अत्याचार की झूठी कहानियाँ गढ़कर आम मुसलमान को उत्तेजित करते हैं. मुसलमानों के साथ देश में हो रहा विशेषाधिकारपूर्ण व्यवहार उन्हें मुख्यधारा में कभी नहीं ला सकता. क्योंकि यह व्यवहार उन्हें और जिद्दी और हठधर्मी ही बनायेगा. इसलिये आवश्यकता इस बात की है कि पूर्वाग्रह से मुक्त होकर मुस्लिम समस्या का समाधान खोजा जाये
संजय बेंगाणी said
यह देश में पहली बार नहीं हो रहा हैं. किसी ने इतिहास का अध्ययन किया हो तो ठीक यही बाते स्वतंत्रता पुर्व हो रही थी. तब (और अब भी) सावरकर जैसो की चेतावनियां कट्टर हिन्दूओं कि सोच मानी जाती रही और देश विभाजीत हुआ. एक बार फिर वही हो रहा हैं.
सागर चन्द नाहर said
जिस वन्दे मातरम को गाते गाते अशफाक उल्ला खाँ जैसे कई मुस्लिम क्रान्तिकारी देश के लिये फ़ाँसी के फ़न्दे पर लटक गये, उस वन्दे मातरम को गाने में उलेमाओं, और कट्टर मुस्लिमों को क्या आपत्ति है?
क्या उन शहीदों को इस बात का पता नहीं था कि वे अल्लाह की बजाय भारत माँ की वन्दना कर रहे हैं?
anunad said
तुष्टीकरण करना नेताओं का बहुत उपयोगी हथियार है, इसक प्रयोग वे क्यों न करेंगे? किन्तु जनता में जागरूकता होनी चाहिये जो तुष्कीकरण और उससे जुड़े खतरों को देख सके , इसका विरोध और प्रतिकार करे। तभी तो तुष्टीकरण पर लगाम लग पायेगा?