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पोलियो में भी धर्म

Posted by amitabhtri पर सितम्बर 6, 2006

देश में मुसलमानों के साथ भेदभाव न करने और उन्हें आत्मसात् करने की अपील सर्वत्र होती है, परन्तु मुस्लिम समाज की जड़ता और उनके बुद्धिजीवियों द्वारा उन्हें दिग्भ्रमित करने के लगातार उदाहरणों के मध्य यह तय कर पाना अत्यन्त कठिन है कि मुस्लिम समाज में सुधार सम्भव भी है या नहीं.                            मुस्लिम समाज की जड़ता और मूर्खता का नवीनतम उदाहरण पल्स पोलियो अभियान की असफलता है. भारत सरकार के तमाम प्रयासों के बाद भी इस वर्ष पोलियो के मामले देश में  पिछले वर्ष की अपेक्षा अधिक पाये गये हैं. इस वर्ष कुल 256 पोलियो संक्रमण के शिकार लोग देश में पाये गये और इनमें से 232 मामले उत्तर प्रदेश के हैं और उनमें भी 56 मामले मुरादाबाद और उसके आस-पास के उन क्षेत्रों के हैं जहाँ मुसलमानों की संख्या अधिक है.                भारत के एक प्रमुख अंग्रेजी दैनिक टाइम्स ऑफ इण्डिया ने 27 जुलाई के अपने अंक में इस बावत एक समाचार प्रकाशित करते हुये सिद्ध किया था कि मुरादाबाद, रामपुर, ज्योतिबा फुले नगर जैसे क्षेत्रों में मुसलमान अपने बच्चों को पल्स पोलियो की खुराक नहीं पिलाते. इसका कारण मुसलमानों के मध्य व्याप्त यह धारणा है कि यह खुराक मुसलमानों की सन्तानों को बच्चा पैदा करने की क्षमता से वंचित करने का षड़यन्त्र है.                वास्तव में भारत में इसकी शुरूआत 2005 में एक उर्दू समाचार पत्र में छपे एक लेख के बाद हुई जिसमें मुसलमानों को इस खतरनाक दवा से अपने बच्चों को दूर रखने की चेतावनी दी गई थी.                             इस षड़यन्त्रकारी सिद्धान्त का प्रतिपादन नाईजीरिया की सुप्रीम शरियत काउन्सिल के अध्यक्ष और पेशे से डाक्टर इब्राहिम दत्ती अहमद ने किया था जिसका रहस्योद्घाटन अमेरिकी विद्वान डेनियल पाइप्स ने 2005 में अपने एक लेख के द्वारा किया था. नाईजीरियई डाक्टर के सिद्धान्त के बाद कि यह मुस्लिम पीढ़ी के बन्ध्याकरण का संगठित अमेरिकी प्रयास है, इस अफवाह ने गति पकड़ी और आज मुस्लिम बस्तियों में पोलियो की खुराक को लेकर कोई उत्साह नहीं है. इस बात की पुष्टि कोई भी पल्स पोलियो अभियान में लगी स्वयंसेवी संस्थाओं से कर सकता है.                   इस घटनाक्रम के बाद एक बार फिर प्रश्न उठता है कि आखिर मुस्लिम इतना अधिक असुरक्षा भाव से क्यों ग्रस्त है कि विकास या परिवर्तन की एक भी लहर उसके धर्म के अस्तित्व के लिये संकट बन कर खड़ी हो जाती है. कभी एक गीत उनके धर्म को नष्ट करने का खतरा उत्पन्न कर देता है तो कभी विकलांगता के अभिशाप से मुक्त करने का अभियान उन्हें अपने विरूद्ध षड़यन्त्र के रूप में दिखाई देता है, ऐसे में मुस्लिम समाज के पिछड़ेपन का उत्तरदायी कौन है, गैर-मुसलमान या फिर स्वयं मुसलमान.             यही नहीं इससे यह प्रश्न भी उठता है कि मुसलमान आखिर किस आधार पर देश के विकास का अंग बनना चाहता है. जनसंख्या नियन्त्रण कार्यक्रमों का पालन न कर, पल्स पोलियो का विरोध कर, तलाक और विवाह में शरियत का पालन कर.                     कुछ उदारवादी लोगों की दृष्टि में ये विषय मुसलमानों पर छोड़ देने चाहिये पर अन्ततोगत्वा ये चीजें तो देश को ही प्रभावित करती हैं. यदि शरीर का कोई अंग पूरी तरह स्वस्थ नहीं है तो पूरा शरीर प्रभावित होगा और सम्भव है कि इस अंग का संक्रमण शरीर के अन्य हिस्सों को प्रभावित करे. ऐसे में व्यक्ति को क्या करना चाहिये इसका निर्णय तो सभी कर सकते हैं.

One Response to “पोलियो में भी धर्म”

  1. SHUAIB said

    bahut hi majedar jankari hai – hamara ajeeb desh, ajeeb log, ajeeb soch aur ajeeb khabren 😦 😉

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