भारत-पाक शान्ति वार्ता
Posted by amitabhtri पर सितम्बर 19, 2006
हवाना में सम्पन्न हुये निर्गुट सम्मेलन में भारत के प्रधानमन्त्री मनमोहन सिंह और पाकिस्तानी राष्ट्रपति ने एक बार फिर बातचीत का दौर आरम्भ किया है जो जुलाई माह में मुम्बई मे हुये बम धमाकों के बाद स्थगित हो गई थी. इस बातचीत को भारत और पाकिस्तान दोनों ही सरकारें अपने जनसम्पर्क अभियान के माध्यम से एक उपलब्धि रूप में चित्रित कर रही हैं.
एक ओर जहाँ बलूचिस्तान में नवाब बुग्ती की पाकिस्तानी सेना द्वारा हुई हत्या और वजीरिस्तान में तालिबानी आतंकवादियों से समझौते के बाद संयुक्त विपक्ष का सामना कर रहे पाकिस्तानी राष्ट्रपति अपनी स्थिति मजबूत करने के लिये कश्मीर का कार्ड खेल रहे हैं तो वहीं भारत के प्रधानमन्त्री पाकिस्तान से बातचीत का क्रम आरम्भ कर देश के समक्ष आतंकवाद का विकल्प प्रस्तुत करने का प्रयास कर रहे हैं. ऐसे में यह वार्ता दोनों शासनाध्यक्षों की मजबूरी को अधिक बयान करती है.
पाकिस्तान के राष्ट्रपति से मुलाकात के बाद भारत के प्रधानमन्त्री ने जिस प्रकार पाकिस्तान को भी आतंकवाद से पीड़ित बताकर आतंकवाद से लड़ने में दोनों देशों की साझा कोशिशों के लिये कार्य पद्धति विकसित करने की बात की तो उनकी बात में स्वतन्त्र सम्प्रभु राष्ट्र के प्रतिनिधि से अधिक कुछ अदृश्य महाशक्तियों के स्वर ध्वनित हुये. प्रधानमन्त्री मनमोहन सिंह के बयान के बाद पाकिस्तान स्थित भारतीय उच्चायुक्त शंकर मेनन ने मुम्बई ब्लास्ट में पाकिस्तान को क्लीन चिट देते हुये कहा कि भारत ने इन विस्फोटों के लिये पाकिस्तान को कभी दोषी नहीं ठहराया. यह बयान उन दावों के विपरीत है जिनमें महाराष्ट्र के मुख्यमन्त्री सहित देश के अनेक जिम्मेदार पदों पर बैठे लोगों ने न केवल पाकिस्तान पर अँगुली उठाई थी वरन इस सम्बन्ध में ठोस सबूत होने की बात की थी. अब नवीनतम बयान से साफ है कि भारत की नीति में आये इस परिवर्तन के पीछे कुल और खिलाड़ी भी हैं. मजबूरी की इस वार्ता को आरम्भ करने से एक बड़ा प्रश्न फिर खड़ा हुआ है कि भारत ने बातचीत में आज तक क्या प्राप्त किया है और पिछले असफल प्रयोगों के बाद भी बातचीत केवल बातचीत के लिये क्यों की जाती है. इस सम्बन्ध में एक अनुमान यह होता है कि भारत-पाकिस्तान विषय में वार्ता की मेज पर जाने से पहले भारत का कोई गृहकार्य नहीं होता. अभी तक भारत-पाकिस्तान विवाद की मूल भावना को समझने और उसके समाधान का कोई गम्भीर प्रयास कभी हुआ ही नहीं. पिछले कुछ वर्षों में आगरा शिखर वार्ता से हवाना में हुई भेंट तक वार्ता एक राजनीतिक पड़ाव से अधिक कुछ सिद्ध नहीं हो पाता.
इसका एक बड़ा कारण समस्या को रिजाल्व करने के स्थान पर उसे डिजाल्व करने में बढ़ती रूचि है. भारत के साथ पाकिस्तान के विवाद की तुलना यदि इजरायल-फिलीस्तीन विवाद से करें तो इस सम्बन्ध में स्थिति कुछ हद तक स्पष्ट हो सकती है. हालांकि इजरायल-फिलीस्तीन के विवाद का स्वरूप कुछ भिन्न भले हो परन्तु इजरायल की भी सबसे बड़ी समस्या पड़ोसी अरब देशों द्वारा इजरायल के अस्तित्व को अस्वीकार करते हुये उसे अपने ऊपर थोपा गया मानने की है, यद्यपि भारत के साथ ऐसी समस्या तो नहीं है परन्तु पाकिस्तान के अस्तित्व का आधार भारत विरोध है जहाँ का शासन और धार्मिक तन्त्र कुछ काल्पनिक मिथकों के जरिये पाकिस्तान का इतिहास निर्मित कर उसे इस्लामी पहचान देकर भारत को एक हिन्दू खलनायक के रूप में अपने देशवासियों के समक्ष खड़ा करता है.
1948 में इजरायल की निर्मिति के पश्चात 1967 में छह दिन के युद्ध में ही अरब देशों को पराजित करने के बाद अमेरिका में इजरायल को अपना रणनीतिक साथी माना जाने लगा और बिडम्बना है कि अमेरिका का मित्र बनने के बाद इजरायल को 1992 के बाद से स्वयं को अनेक क्षेत्रों से स्वेच्छया हटना पड़ा है, पहले लेबनान में गोलन पहाड़ियों से वापसी, फिर गाजा क्षेत्र से वापसी और अब येहुद ओलमर्ट द्वारा जेरूसलम के विभाजन का प्रस्ताव. फिलीस्तीन के साथ शान्ति प्रयासों के क्रम में अमेरिका के प्रस्तावों पर कभी ओस्लो फार्मूला और कभी कैम्प डेविड शिखर वार्ता में इजरायल ने फिलीस्तीन को एक पर एक छूट दी जिसका परिणाम फिलीस्तीन में इन्तिफादा और इजरायल की सीमाओं तक लेबनान के आतंकवादी संगठन हिजबुल्लाह की पहँच के रूप में सामने आया. इजरायल के विश्लेषक मानते हैं कि फिलीस्तीन को छूट देने की प्रवृत्ति के चलते अरब देशों के अनेक कट्टरपंथी संगठनों को भरोसा हो चला है कि अब इजरायल में वह धार नहीं रही और उससे मुकाबला आसान है और इसी का परिणाम है कि इजरायल को नष्ट करने की बातें अधिक खुलकर होने लगी हैं.
भारत-पाकिस्तान समस्या के मूल में भी कश्मीर मुद्दा नहीं है मुद्दा है पाकिस्तान का अलोकतान्त्रीकरण . पाकिस्तान के शासन तन्त्र और सामाजिक तन्त्र पर मुल्ला मिलिट्री गठबन्धन का नियन्त्रण. इसी गठबन्धन के कारण पाकिस्तान में लोकतान्त्रिक संस्थाओं का विकास नहीं हो सका है. भारत को पाकिस्तान में लोकतान्त्रिक सिद्धान्तों जैसे नागरिकों के मूल अधिकार, स्त्री अधिकार, व्यक्तिगत अधिकार, स्थानीय निकायों को अधिक प्रतिनिधित्व , अल्पसंख्यकों के अधिकारों की रक्षा, अभिव्यक्ति की स्वन्त्रता और सूचना के अधिकार को सशक्त करने के लिये विशेष प्रयास करने चाहिये ताकि जनता लोकतन्त्र की ओर प्रवृत्त हो सके. इसके लिये भारत को अहस्तक्षेप की अपनी पुरानी नीति का परित्याग कर अपने हितों की रक्षा के लिये दूसरे देशों की नीतियों को प्रभावित करने कीनई नीति का विकास करना चाहिये.
यदि अमेरिका अपने हितों की रक्षा के लिये मध्य पूर्व की नीतियों और सरकारों को अपने अनुकूल चलाने की नीति को राष्ट्रीय हित में उचित ठहराता है और चीन अपनी रणनीतिक स्थिति मजबूत करने के लिये तिब्बत को हजम कर सकता है तो भारत को अपने पड़ोसी देशों की नीतियों प्रभावित करने का अधिकार क्यों कर नहीं मिलना चाहिये.
भारत को पाकिस्तान के सम्बन्ध में अल्पकालिक नीतियों का परित्याग कर दीर्घगामी नीति का अनुपालन करते हुये पाकिस्तान के लोकतान्त्रीकरण का प्रयास करना चाहिये और इसके लिये पाकिस्तान की लोकतन्त्र समर्थक शक्तियों को नैतिक, सामरिक और आर्थिक हर प्रकार की सहायता देने का प्रयास करना चाहिये, अन्यथा महाशक्तियों के दबाव में पाकिस्तान को छूट देते हुये हम पाकिस्तान के इस्लामी साम्राज्यवादी एजेण्डे से घिर जायेंगे.
रजनीश मंगला said
आपका ये लेख मैंने अपनी पत्रिका के लिए लिया है। यहां देखें
amit said
good